इंटरनेट मीडिया पर चल रही फर्जी खबरें खतरा पैदा करतीं है,कैसे?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
केंद्र सरकार ने 35 यूट्यूब चैनल, दो ट्विटर अकाउंट, दो इंस्टाग्राम अकाउंट, दो वेबसाइट और एक फेसबुक अकाउंट को ब्लाक करने के निर्देश जारी किए हैं। पाकिस्तान से संचालित होने वाले ये चैनल भारत विरोधी फर्जी खबरें और आपत्तिजनक सामग्री के प्रसारण में लगे थे। अभी कुछ दिनों पहले ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के काफिले को तथाकथित प्रदर्शनकारियों द्वारा रोके जाने के कुछ घंटे बाद ही यूट्यूब पर खालिस्तानी तत्वों द्वारा लगभग एक वर्ष पहले डाला गया एक एनिमेटेड वीडियो सामने आया।
उसमें नरेंद्र मोदी जैसे ही दिखने वाले एक नेता के काफिले को एक पुल पर ठीक वैसे ही रोका जाता है जैसे कि प्रधानमंत्री के काफिले को रोका गया। फिर मोदी जैसे दिखने वाले उस एनिमेटेड चरित्र पर भीड़ हमला कर देती है। इस वीडियो को एक समय पर अलकायदा और इस्लामिक स्टेट जैसे आतंकी संगठनों द्वारा प्रकाशित की जाने वाली टेरर मैन्युअल्स की श्रेणी में रखा जा सकता है जिसमें वे अपने अनुयायियों को आतंकी हमलों को अंजाम देने के नए-नए तरीके बताते रहते हैं। इससे भी गंभीर विषय यह है कि भारत के प्रधानमंत्री की सुरक्षा को खतरे में डालने वाला घृणा से भरा यह वीडियो एक वर्ष तक यूट्यूब पर पड़ा कैसे रहा?
हमारी साइबर सुरक्षा एजेंसियां साल भर तक क्या करती रहीं? अभी कुछ दिन पहले ही मैं अमेरिका के एक बहुत लोकप्रिय यूट्यूब चैनल पर अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे को लेकर एक वृत्तचित्र देख रहा था। इसके अंत में बताया गया कि निर्माता-निर्देशक अफगानिस्तान में चल रही क्रूरता को नहीं दिखा रहे हैं, क्योंकि अगर ऐसा किया गया तो यूट्यूब इस वीडियो को डिलीट कर देगा। प्रश्न यह है कि जो यूट्यूब एक तथ्यात्मक समाचार रिपोर्ट को लेकर इतनी सख्त हो सकता है उसने भारत के प्रधानमंत्री पर हमले का तरीका सुझाता वीडियो एक साल तक कैसे अपने मंच पर बने रहने दिया?
दरअसल यह बिग टेक की मनमानी और भारत में लचर साइबर सुरक्षा का का कोई अकेला उदाहरण नहीं है। अभी कुछ दिन पहले ही कश्मीरी मूल की जानी-मानी पत्रकार आरती टिक्कू सिंह के भाई को आतंकियों द्वारा जान से मार डालने की धमकी दी गई। जब उन्होंने इसपर एक ट्वीट के माध्यम से अपना रोष प्रकट किया तो इसे नियमों का उल्लंघन बताते हुए ट्विटर द्वारा उनका अकाउंट ही निलंबित कर दिया गया। भला किसी के द्वारा आतंकियों से मिल रही धमकी के विरुद्ध आवाज उठाना घृणा फैलाना कैसे हो सकता है?
यह वही ट्विटर है जिसने तालिबान नेताओं के तमाम अकाउंट चलते रहने दिए हैं। जिस दिन प्रधानमंत्री के काफिले को निशाना बनाने की कोशिश की गई उसी दिन इंटरनेट मीडिया पर एक फर्जी वीडियो भी वायरल किया गया जिसमें सुरक्षा मामलों की कैबिनेट समिति यानी सीसीएस को यह फैसला लेते दिखाया गया कि सारे सिख सैनिकों को सैन्य बलों से निकाल दिया जाए। फर्जीवाड़े का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि इसमें उन अनुराग ठाकुर को दिखाया गया, जो सीसीएस का हिस्सा ही नहीं हैं।
स्पष्ट है कि यह सेना में विद्रोह फैलाने और पंजाब को अस्थिर करने की साजिश का हिस्सा था। इसका खंडन करने के लिए सरकार द्वारा आनन-फानन में प्रेस विज्ञप्ति जारी की गई। जांच में इस वीडियो को वायरल करने वाले अधिकतर खाते पाकिस्तानी पाए गए, परंतु ये खाते कई दिनों तक इंटरनेट मीडिया साइटों पर बने रहे। यह बताता है कि हमारी सुरक्षा एजेंसियों को इन इंटरनेट मीडिया कंपनियों से त्वरित सहयोग नहीं मिल पा रहा है।
किसी बड़े कानून-व्यवस्था के संकट की स्थिति में या फिर किसी युद्ध जैसी स्थिति में समाज और सैन्य बलों में उत्तेजना फैलाने वाली ऐसी फर्जी खबर का कई घंटों तक इंटरनेट मीडिया पर प्रसारित होते रहना विषम परिस्थिति को जन्म दे सकता है।
समस्या सिर्फ इतनी ही नहीं है। हाल में बुल्ली बाई नामक एक एप चर्चा का विषय रहा। इस एप के माध्यम से पिछले कुछ महीनों से कुछ असामाजिक तत्व अल्पसंख्यक समुदाय से आने वाली कुछ महिलाओं के चित्र इंटरनेट पर डालकर उनकी बोली लगवा रहे थे। यह सामने आते ही सुरक्षा एजेंसियां हरकत में आईं और इस घृणित कृत्य में लगे आरोपियों को धर दबोचा गया।
फिर पता चला कि बहुसंख्यक हिंदू महिलाओं को निशाना बनाने वाले पचासों पेज, समूह और प्रोफाइल भी दर्जनों इंटरनेट मीडिया प्लेटफार्म पर कई वर्षों से सक्रिय हैं। हंगामा होने पर इनमें से चंद पेजों को निलंबित भी कराया गया, पर कई ऐसे पेज और समूह अभी भी सक्रिय हैं। जैसी तेजी से पुलिस ने बुल्ली बाई मामले में कार्रवाई की उस रफ्तार से इंटरनेट पर हिंदू महिलाओं को निशाना बनाने वाले इन तत्वों को क्यों गिरफ्तार नहीं किया गया? वर्षों से सक्रिय इन पेजों, समूहों और प्रोफाइलों से देशभर की पुलिस बेखबर क्यों थी?
हमारी पुलिस एजेंसियों की ब्रिटिशयुगीन कार्यशैली, जिसमें सही-गलत न देखकर कानून-व्यवस्था बनाए रखने पर जोर दिया जाता था, अब इस सूचना क्रांति के युग में गंभीर सामाजिक उन्माद और विद्वेष को जन्म दे सकती है, जहां समाज हर कार्रवाई की निगरानी और विश्लेषण करता है। पुलिस अधिकारियों को समझना होगा कि इस युग में इंटरनेट मीडिया पर तथ्यात्मक रूप से सही विमर्श को कानून-व्यवस्था के लिए खतरा बताकर दबाया नहीं जा सकता है। न ही एकतरफा कार्रवाई करके संवेदनशील मामलों को रफा-दफा किया जा सकता है।
न्याय व्यवस्था को लागू करने वाली एजेंसियों को ऐसे वामपंथी विमर्श से प्रभावित नहीं होना चाहिए जिसमें यह पहले से मानकर चला जाता है कि हमेशा अल्पसंख्यक ही बहुसंख्यकों द्वारा प्रताडि़त होते हैं। ऐसी प्रशासनिक चूक और इंटरनेट मीडिया कंपनियों की बेलगाम मनमानियां भारी अराजकता के रूप में प्रकट हो सकती हैं और कुछ सीमा तक होने भी लगी हैं।
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