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निराला का प्रखर व्यक्तित्व आज भी बेहद प्रासंगिक है,कैसे?

निराला का प्रखर व्यक्तित्व आज भी बेहद प्रासंगिक है,कैसे?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क


सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ का उद्भव एक ऐसे समय में हुआ था जब राष्ट्र स्वाधीनता के लिये संघर्ष कर रहा था।उनका रचना-काल बीसवीं शताब्दी के शुरू के चालीस वर्षों तक चलता है-यह छायावाद काल था और इस काल को देश की स्वाधीनता के संघर्ष के समय के काल-खण्ड के साथ जोड़ कर भी देखा जा सकता है।’निराला’ का जन्म सन् 1896 में वसंत पंचमी के दिन हुआ था, हालाँकि इस पर कुछ विवाद भी उठते रहे हैं,

लेकिन स्वयं ‘निराला’ जी ने वसंत पंचमी के दिन को ही सही माना है। उनके कथा-संग्रह ‘लिली’ में उनकी जन्म-तिथि 21 फरवरी 1899 अंकित है।पिता श्री राम सहाय तिवारी उन्नाव के रहने वाले थे।महिषादल में उन्होंने पुलिस की नौकरी की थी।’निराला’ की शिक्षा हाई स्कूल तक पूरी हुई। हिंदी, संस्कृत और बांग्ला का अध्ययन उन्होंने किसी स्कूल में नहीं किया था, बल्कि इनका स्वयं अध्ययन करते रहे।

उनका प्रारंभिक जीवन घोर आर्थिक विपन्नता और कष्ट के बीच व्यतीत हुआ । यह बड़े दुर्भाग्य की बात थी कि जब ‘निराला’ सिर्फ तीन साल के थे, उसी वक्त उनकी मां का देहांत हो गया और युवावस्था तक आते-आते पिता चल बसे।दुर्भाग्य का साया यहीं नहीं हटा बल्कि बुरे दिनों का काला साया आकाश पर छाये काले बादलों सदृश उनके जीवन पर छाये रहे।वे जब कभी उबरने की कोशिश करते,वे और अधिक निकट आकर उन्हें अपने आगोश में लेते रहे।प्रथम विश्व युद्ध की महामारी में पत्नी मनोहरा देवी, चाचा, भाई तथा भाभी-सबने ‘निराला’ को एकांत-अकेला छोड़ दिया।

जिस प्रकार एक अकेला व्यक्ति अरण्य रुदन से गुजरता निपट एकांत में अपनी छाया की तलाश करता है, ठीक उसी तरह’ निराला’ अपनी ही छाया तलाशते रहे।लेकिन इन विपरीत परिस्थितियों में वे और अधिक शक्ति के साथ उभरकर सामने आये।वे जीवन पर्यंत अपनी शर्तों पर जिये और जिस आत्मीयता के साथ इलाहाबाद से जुड़े रहे, उसी तरह इसी शहर के दारागंज मुहल्ले में अपने एक मित्र राय साब के घर के पीछे बने एक कमरे में प्राण-त्याग कर गये।

यहाँ एक कवि-कलाकार की जीवन गाथा प्रस्तुत करना भर हमारा उद्देश्य नहीं है।संसार ऐसे कुछ लोगों से भरा-पूरा है, जिन्होंने जीवन में घनघोर कष्ट उठाये, यातनायें झेलीं, कष्ट को गले लगाया, संत्रस्त और विक्षुब्ध रहे, समय-समाज से प्रताड़ित होते रहे और अगर देखा जाये तो विश्व कवि रबींद्रनाथ टैगोर भी सबकुछ लुट जाने के बाद मां काली के समक्ष यही विनती करते पाये गये थे-”तुमसे मैंने आजतक कुछ नहीं मांगा।

मेरे परिवार के एक-एक सदस्य मेरी खुद की नजरों के सामने एक-एक कर विदा होते गये और मैं उन्हें बचा न पाया, नहीं मैंने तुमसे कुछ मांगा ही, किंतु आज मांगता हूँ।”मुझे झेलने की शक्ति दे दो मां।क्योंकि यह शक्ति सिर्फ तुम्हीं दे सकती हो।इसके सिवा मुझे कुछ नही चाहिए।”

यहाँ ‘निराला’ भी ऐसा ही कुछ कहते हैं।दरअसल उनके ऊपर बंगाल की शक्ति पूजा, स्वामी विवेकानंद की काली वंदना और मां स्तवन और रबींद्रनाथ की विश्व व्यापी देवी सुंदरी की प्रार्थना का प्रभाव पड़ा था-

”एक बार बस और नाच तू श्यामा ।अट्टाहास, उल्लास, नृत्य का होगा जब आनंदविश्व की इस वीणा के टूटेंगे सब तार बंद हो जायेंगे वे जितने कोमल छंद सिंधु-राग का होगा अब आलाप।”

कहना चाहिए कि इन प्रार्थनाओं के पारायण की वजह से ही ‘निराला’ वह कर पाये जो कल्पनातीत है।कष्ट से व्यक्ति और मजबूत होता है और अपने आत्मबल को चट्टान सरीखा बनाकर हर तरह की विपरीत परिस्थितियों का मुकाबला करता है।निराकार के उपासक और अद्वैत दार्शनिक’ निराला’ ने कबीर सरीखे संतों की तरह ही वैष्णवी भक्ति का भाव अपनाया।वे उस अदृश्य शक्ति से सत्संग मांगते हैं तथा असत्य, काम, क्रोध जैसे तामसिक विकारों से मुक्ति चाहते हैं।जाहिर है, उनके लिये मुक्ति का यह मार्ग व्यक्तिगत नहीं है-व्यक्तिगत रूप से मुक्ति प्राप्त करना एक व्यक्ति की अपनी निजी विवशता हो सकती है लेकिन ‘निराला’ जब मुक्ति की बात करते हैं तब वह वैश्विक मुक्ति की बात करते हैं । वे मध्ययुगीन साहित्य में वर्णित उन तथाकथित भक्तों की तरह ‘स्व’ के धिक्कार की बात नहीं करते बल्कि लोक-उद्धार की बात करते हैं।

और यहाँ आकर ‘निराला’ एक विराट फलक पर विश्व जनीन चेतना को जाग्रत करते हैं।यही चेतना ‘निराला’ को एक बड़ा कवि बनाती है।लोकचेतना की जागृति वह लोक पीड़ा को हरकर करना चाहते हैं और राष्ट्रीय फलक पर सांस्कृतिक चेतना जगाते हैं और इस प्रकार सांस्कृतिक नवजागरण, अतीत गौरव गान और राष्ट्र वंदन के सुर उनकी कविताओं में बखूबी आ जाते हैं।

देश की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और धार्मिक विकृतियों के प्रति समाज को सजग करते ‘निराला’ ने नया मार्ग प्रशस्त किया।’भिक्षुक’,’विधवा’,’डिप्टी साहब’ जैसी कविताओं के माध्यम से सामाजिक विकृतियों को उन्होंने अपनी कविता का विषय बनाया।इस संदर्भ में ‘निराला’ की ‘तुलसी दास’ कविता उल्लेखनीय है जिसमें हमारे देश की सांस्कृतिक संपदा और नारी की अस्मिता का वर्णन आया है।

यहाँ ‘निराला’ देश के प्रति अनुराग प्रदर्शित करते प्रसाद के ‘अरुण यह मधुमय देश हमारा, जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा’ के निकट दिख जाते हैं, क्योंकि वे भारत के गौरव-गान को नहीं भूलते।अपनी कविताओं में बार-बार भारत के अतीत के गौरव गान की ओर लौटते हैं।अपने लेखन की प्रेरणा वे भारत के वैभवशाली अतीत से ही ग्रहण करते हैं । यहाँ आकर कवि की प्रासंगिकता आज के संदर्भ में और अधिक बढ़ जाती है।

अतीत और बीते समय के गौरवशाली इतिहास से अपनी चिंता को जोड़ते और फिर कविता लिखनेवाले ‘निराला’ युगीन परिस्थितियों में पूछते हैं-”क्या यही वह देश है ?”

आज यह सवाल अचानक महत्वपूर्ण हो गया है।यह सवाल प्रासंगिक है, आज के समय में।हमारी चिंता यह नहीं कि निराला कितने बड़े कवि थे और उनके कद को ही मापने का प्रयत्न करते फिरें।ऐसा करना एक बेमतलब का किया हुआ निरर्थक काम होगा।हमारी चिंता यह है कि इन दिनों साहित्य में जो विभिन्न गुट, खेमेबंदी चल रही है, उसने साहित्य का कितना नुकसान किया है।लेखन और प्रकाशन के नाम पर एक अजब सी आत्मश्लाघा चल पड़ी है।

पुराने लेखक, कवि, रचनाकार एक हाशिए पर छूट गये हैं या तथाकथित’ नयों’ के द्वारा छोड़ दिये गये हैं और हर नया लेखक खुद को सर्वश्रेष्ठ बनाने की होड़ में लिखनेवाले कलम की निब ही तोड़ ने पर आमादा है।परंपरायें ध्वस्त हो रही हैं, पुरातन साहित्य भूलने की ‘वस्तु’ बनकर रह गया है और नये लेखक खुद को सबसे बड़ा दिखाने की सनक लिये किताबों का विमोचन कराता एक हाथ से दूसरे हाथ में उछाल रहा है।

‘निराला’ की प्रसिद्ध पंक्तियाँ हैं-

”वह तोड़ती पत्थरदेखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर। वह तोड़ती पत्थरकोई न छायादार पेड़ वह जिसके तले बैठी वह स्वीकारश्याम तन भर बंधा यौवननत नयन, प्रिय कर्मरत मन गुरु हथौड़ा हाथ करती बार-बार प्रहार सामने तरु मालिका, अट्टालिका प्राकार”।

‘अनामिका’,’परिमल’,’गीतिका’,द्वितीय अनामिका’,’तुलसीदास’,’कुकुरमुत्ता’,’अणिमा’,’बेला’,’नये पत्ते,”अर्चना’,’आराधना’,’गीत कुञ्ज’,’सांध्य काकली’,’अपरा’ शीर्षकों के अंतर्गत काव्य रचना करनेवाले ‘निराला’ ‘अप्सरा’,’अलका’,’प्रभावती’,’निरुपमा’,’कुलीभाट’,’बिल्लेसुर बकरिहा’ जैसे उपन्यास और’ लिली’,’चतुर चमार’,’सुकुल की बीवी’,’सखी’,’देवी’, जैसे कहानी संग्रह के साथ कुछ निबंध संग्रह भी दे गये जो ‘रवींद्र कविता कानन’,’प्रबंध पद्म’, ‘प्रबंध प्रतिमा’, ‘चाबुक’ और’ चयन’ शीर्षकों में संकलित हैं । उन्होंने ‘पुराकथा’ और अनुवाद के क्षेत्र में भी काम किया।

‘निराला’ घिसी-पिटी परंपरा से अलग एक विद्रोही और क्रांतिकारी कवि थे। अपनी मौलिक कलाकृतियों के साथ-साथ उन्होंने संपादन-कर्म भी किया था।उन्होंने 1918 से 1922 तक महिषादल की सेवा की तथा 1922-23 के दौरान कलकत्ता से प्रकाशित ‘समन्वय’ का संपादन किया।1923 के अगस्त से ‘मतवाला’ के संपादन-मंडल से जुड़े।लखनऊ में गंगा पुस्तक माला कार्यालय और वहाँ से निकलनेवाली मासिक पत्रिका ‘सुधा’से सन् 1935 तक संबद्ध रहे।इसके बाद सन् 1942 से मृत्युपर्यंत इलाहाबाद में रहकर स्वतंत्र लेखन करते रहे।किंतु उनकी ख्याति और लोकप्रियता एक कवि के रूप में ही निखर कर सामने आयी।

सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ को खड़ी बोली का कवि माना जाता है, किंतु वे व्रजभाषा और अवधी में भी कविता लिखते थे-उनकी कविताओं में जीवन के विभिन्न रंग सजते-संवरते हैं-

”घने-घने बादल हैं एक ओर गड़गड़ाते पुरवाई चलती हैतालों में करंबुए, कोकनद खिले हुए ढोर चरते हुए कहीं हिरणों का झुंड आम पकते हुए नाले बहते हुए युवक अखाड़े में जोर करते हुए”

और यह भी –

“धाये धाराधर धावन है !गगन गान गाजे सावन हे प्यासे उत्पल के पलकों पर बरसे जल धर-धर-धर-धर श्याम दिगंत-दाम छवि छाई वही अनुत्कुंठित पुरवाई शीतलता-शीतलता आयी।”

‘निराला’ की कविताओं में आध्यात्मिकता, प्रेम की सघनता, देश-प्रेम का जज्बा, सामाजिक रूढ़ियों का विरोध, प्रकृति के प्रति अनुराग झलकता है।वे कहीं भी भीड़ के साथ खड़े नहीं दिखते बल्कि वे राह-अन्वेषी और अपनी राह के अलग राही दिखते हैं-
”रोक-टोक से कभी नहीं रुकती हैयौवन मद की बाढ़ नदी की किसे देख झुकती है गरज-गरज वह क्या कहती है, कहने दो अपनी इच्छा से प्रबल वेग से बहने दो।”

उनके जीवन का सारांश था-

”दुख ही जीवन की कथा रही….”’परिमल’ की भूमिका में वे लिखते हैं-”मनुष्य की मुक्ति की तरह कविता की भी मुक्ति होती है।मनुष्य की मुक्ति कर्म के बंधन से छुटकारा पाना है और कविता को छंद के शासन से मुक्त होना है।जिस तरह मुक्त मनुष्य कभी किसी दूसरों के प्रतिकूल आचरण नहीं करता और उसके तमाम कार्य औरों को प्रसन्न करने के लिये होते हैं, फिर भी स्वतंत्र।यही भूमिका कविता की भी होती है।

‘निराला’ को याद करना उस महान सृजेता को याद करना है जिसका सृजन अपनी ही तरह का है जिस तरह उनका व्यक्ति एक स्वाभिमानी और खुद्दार व्यक्ति है।उनका काव्य,उनका साहित्य और उनका प्रखर व्यक्तित्व हमारे लिये आज के समय में बेहद प्रासंगिक है।

आभार–अमरेंद्र मिश्र

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