शीतकालीन ओलिंपिक का भारत ने क्यों बहिष्कार किया?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

कभी-कभी अपना ही दांव उलटा पड़ जाता है। मसलन आप बेहतरी के लिए कुछ करना चाहें तो नतीजा बदतर साबित हो। शीतकालीन ओलिंपिक के मामले में चीन के साथ यही हुआ। अपनी साफ्ट पावर यानी सांस्कृतिक एवं सहभागिता की शक्ति बढ़ाने की मंशा से चीन ने शीतकालीन ओलिंपिक के आयोजन की जो कवायद की, वह अपने लक्ष्य से भटक गई। वैश्विक महामारी कोविड के कारण चीन की अंतरराष्ट्रीय छवि पहले से ही खराब है। उसे सुधारने के बजाय वह सवाल उठाने वाले देशों को धमकाता ही दिखा।

ऊपर से समकालीन भू-राजनीतिक स्थितियों में तनाव घटाने के बजाय वह तनाव बढ़ाकर अपने हित साधने की फिराक में है। स्वाभाविक है कि इस सबका असर बीजिंग में चल रहे उन शीतकालीन ओलिंपिक खेलों पर पड़ रहा, जिन पर उनकी शुरुआत से काफी पहले ही ग्रहण का साया मंडराने लगा था। अमेरिका की अगुआई में पश्चिमी देशों ने पहले से ही इन खेलों के राजनयिक बहिष्कार का एलान कर दिया था। चीन ने इससे कोई सबक नहीं लिया। वैश्विक समुदाय को आश्वस्त करने का कोई प्रयास नहीं किया।

उलटे यूक्रेन पर रूस-अमेरिका के गतिरोध में अपने रणनीतिक हित साधने की तैयारी में लग गया। मानों इतना ही पर्याप्त नहीं था। चीन द्वारा गलवन संघर्ष से जुड़े एक सैनिक को सुनियोजित ढंग से खेलों की मशाल थमाने के बाद तो भारत का धैर्य भी जवाब दे गया और उसने इन खेलों के राजनयिक बहिष्कार का उचित फैसला किया। इस पूरे वृत्तांत से एक बात तो तय है कि चाहे कितना ही बड़ा वैश्विक आयोजन क्यों न हो, किंतु चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के लिए अपने राजनीतिक-रणनीतिक हित सबसे ऊपर हैं।

उसका यह ढकोसला जगजाहिर हो गया कि वह खेलों को राजनीति से इतर नहीं रख सकता। यह बात बीते दिनों टेनिस स्टार पेंग शुई के प्रकरण से भी स्पष्ट हो गई थी, जिन्होंने एक दिग्गज नेता पर शोषण के आरोप लगाए थे। हालांकि बाद में वह इन आरोपों से पलट गईं, लेकिन इससे यह तो स्पष्ट हो ही गया कि खेलों की दुनिया में भी कम्युनिस्ट पार्टी की कितनी गहरी पैठ है।

ओलिंपिक खेलों की शुरुआत से पहले ही यह दिख रहा था कि कोरोना संकट के साथ ही शिनजियांग में उइगर मुसलमानों पर चीनी सरकार के उत्पीडऩ, हांगकांग से लेकर ताइवान तक निरंकुशता-आक्रामकता से कुपित वैश्विक समुदाय और विशेषकर पश्चिमी देश किसी न किसी रूप में इस आयोजन का बहिष्कार करेंगे। चूंकि खिलाड़ी ऐसे खेल महाकुंभों के लिए कई साल से मेहनत कर रहे होते हैं इसलिए उनके परिश्रम पर कहीं पानी न फिर जाए, इस पहलू को ध्यान में रखते हुए यह भी माना जा रहा था कि खेलों का पूर्ण बहिष्कार नहीं होगा।

ऐसे में खेलों के राजनयिक बहिष्कार का विकल्प ही सबसे व्यावहारिक था और पश्चिम जगत और उनके सहयोगी देशों ने बिल्कुल वही राह अपनाई भी। चीन ने शुरू में इसे गंभीरता से नहीं लिया और वह महज इसे स्वयं पर दबाव बनाने की रणनीति का हिस्सा मानता रहा। उसे पूरा विश्वास था कि अपनी ताकत से वह इस खेल आयोजन को पूरी तरह सफल बनाएगा, लेकिन उसकी यह उम्मीद चकनाचूर हो गई। यही कारण है कि अब वह रक्षात्मक हो रहा है।

जब दुनिया के दिग्गज देशों ने चीन से कन्नी काट ली तो रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन का साथ उसके लिए बड़ी राहत लेकर आया। पुतिन खेलों के उद्घाटन समारोह का हिस्सा बने। रूस और चीन की बढ़ती नजदीकियों का अंदाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि पुतिन दुनिया के पहले ऐसे नेता हैं, जिनसे चीनी राष्ट्रपति ने पिछले करीब 20 महीनों के दौरान प्रत्यक्ष मुलाकात की।

इस मुलाकात में शी ने जहां यूक्रेन और नाटो के मसले पर पुतिन के मन की बात कही तो पुतिन ने भी बदले में चीन के लिए गैस आपूर्ति बढ़ाने जैसे कई महत्वपूर्ण अनुबंधों को हरी झंडी दिखाई। जहां यूक्रेन के मुद्दे पर चीन ने कहा कि अमेरिका और उसके नाटो सहयोगियों को शीत युद्ध जैसे माहौल का निर्माण करने से बचना चाहिए, वहीं पुतिन ने भी ताइवान को लेकर वन चाइना पालिसी के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जताई। इन दोनों देशों का इस कदर नजदीक आना न केवल अंतरराष्ट्रीय समुदाय, बल्कि भारत के लिए भी गंभीर चिंता का विषय है।

ऐसा इसलिए, क्योंकि चीनी समर्थन से बूस्टर डोज पाकर अगर पुतिन यूक्रेन को लेकर और आक्रामक रुख अपनाते हैं तो उस स्थिति में भारतीय विदेश नीति के समक्ष दुविधा बहुत ज्यादा बढ़ जाएगी। तब उसके लिए अमेरिका एवं पश्चिमी देशों के सहयोग और रूस की सदाबहार दोस्ती की दुविधा के विकल्पों में से किसी एक का चयन करने की नौबत आ सकती है। साथ ही अमेरिका के पूर्वी यूरोपीय अखाड़े में फंसने से ङ्क्षहद-प्रशांत क्षेत्र में भारत के अकेले पड़ जाने की आशंका बढ़ेगी, क्योंकि पिछले कुछ समय से इस क्षेत्र में भारत-अमेरिका की सक्रियता ने शक्ति संतुलन का पासा पलट दिया है।

इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत द्वारा शीतकालीन ओलिंपिक का राजनयिक बहिष्कार करने से इन खेलों की आभा फीकी पडऩे के साथ ही चीन की छवि पर सवालिया निशान और गहरे होंगे। शुरुआत में भारत संभवत: इसके पक्ष में नहीं था तो इसका यही कारण हो सकता है कि उसकी मंशा खेलों को राजनीति से दूर रखने की हो, किंतु गलवन से जुड़े सैनिक को इस आयोजन का हिस्सा बनाकर चीन ने खेलों के प्रति भारत की सद्भावना भी गंवा दी।

ऐसे में अंत समय में ही सही, लेकिन भारत ने इन खेलों का राजनयिक बहिष्कार कर यथोचित कदम उठाया है। इससे चीन को सटीक संदेश मिलेगा कि भारत को अपने हितों से समझौता स्वीकार्य नहीं। कुछ जानकार भले ही यह दलील दें कि ऐसा करने में भी भारत ने देरी कर दी तो वे यह जान लें कि यदि भारत शुरू में ही ऐसा करता तो भारतीय विदेश नीति पर पश्चिमपरस्ती का आरोप लगता।

कहा जाता कि भारत पश्चिमी देशों के दबाव में ही ऐसा कर रहा है। ऐसे में बुरी नीयत के साथ चीनी कृत्य पर भारत की भली मंशा वाली प्रतिक्रिया न केवल उचित, बल्कि सर्वथा समयानुकूल भी है।

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