Breaking

क्या JNU कुलपति के विरोध में अभियान आरंभ हो गया है?

क्या JNU कुलपति के विरोध में अभियान आरंभ हो गया है?

०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
previous arrow
next arrow
०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
previous arrow
next arrow

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में नए कुलपति की नियुक्ति की घोषणा के साथ ही वामपंथी संगठनों से जुड़े लोगों की ओर से नकारात्मक टिप्पणियां आने लगी हैं। वैसे इसमें कोई आश्चर्य की बात भी नहीं। किसी और को भी बनाया जाता तब भी वही होता, जो अभी हो रहा है। वामपंथ या उदारवादी खेमा जो स्वयं को केवल बुद्धिजीवी मानता है, उसे यह बात कैसे हजम होती कि जेएनयू के पुराने कुलपति को विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का सिरमौर बना दिया और साथ में कर्मठ महिला जो जेएनयू की पढ़ी लिखी हैं, उन्हें कुलपति।

यह निर्णय उनकी छाती पर मंूग दलने जैसा था, इसलिए प्रतिकार हो रहा है। लेकिन इसका एक और कारण यह भी है कि कैंपस कोरोना महामारी जनित कारणों से बंद रहने के लगभग दो साल बाद पूरी तरह से खुल रहा है। विरोधियों के लिए परिवेश तैयार करने का इससे बड़ा और कोई मुद्दा नहीं था।

देखा जाए तो शिक्षा जगत में कई मुलभूत परिवर्तन मजबूती के साथ हो रहे हैं। नई शिक्षा नीति को लागू करने का प्रयास भी तेजी से गति पकड़ रहा है। यूजीसी ने पिछले सप्ताह दो दस्तावेज अपलोड किए हैं, जो पब्लिक डोमेन में है। उस पर सहमति और चर्चा हो रही है। देश के अन्य विश्वविद्यालय भी नई शिक्षा नीति को लागू करने की कोशिश में हैं।

एक नए भारत की तस्वीर अंकित हो रही है। परंतु जो लोग देश को भारतीय संस्कृति से दूर रखना चाहते थे, उनकी आंखों में जलन की पीड़ा थी। इसलिए उनके लिए बहुत आसान था एक नए कुलपति को घेरे में लेना। तथ्य को अपने तरीके से जोड़कर एक ऐसी कहानी रची जा रही है जो मनगढ़ंत थी।

देखा जाए तो जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में वामपंथ हिंसा की कई जीवंत कहानियां हैं। वर्ष 1983 में तो वामपंथी राजनीति जेएनयू कैंपस में इस कदर हिंसक और बेकाबू हो गई थी कि उस समय लगभग एक वर्ष के लिए इस विश्वविद्यालय को बंद तक करना पड़ा था। सभी छात्रावासों को खाली कराकर विद्यार्थियों को जबरदस्ती घर भेजना पड़ा था। उस दौर की हिंसा का आरोप तो प्रोपेगंडा में माहिर वामपंथी भी किसी और पर लगा नहीं पाएंगे, क्योंकि तब तो जेएनयू में दूसरी विचारधाराओं का प्रवेश ही नहीं हुआ था।

उस समय जेएनयू के कुलपति रहे प्रोफेसर पीएन श्रीवास्तव ने मीडिया के समक्ष बयान दिया था कि उपद्रवी छात्रों ने उनके घर में प्रवेश करके बहुत कुछ लूट कर ले गए। प्रोफेसर हरजीत सिंह ने अपनी व्यथा सुनाते हुए कहा कि उनके घर में घुसी उन्मादी छात्रों की भीड़ ने तोड़-फोड़ की। इन शिक्षकों पर वामपंथी छात्रों ने ‘राष्ट्रवादीÓ होने का आरोप लगाया था। इस पूरी हिंसा में वामपंथी विचारधारा के शिक्षक छात्रों को उकसाने और उनके लिए योजना बनाने में लगे हुए थे। इस घटना के बाद लंबे समय तक इस विश्वविद्यालय परिसर में अर्धसैनिक बलों की टुकड़ी को अस्थायी तौर पर तैनात करना पड़ा था।

छात्र राजनीति का नया स्वरूप : कैंपस में छात्र राजनीति एक स्वाभाविक प्रक्रिया है, लेकिन विरोध प्रदर्शन की एक नियति होती है। छात्र और शिक्षक के बीच संबंध की भारतीय परंपरा और सोच बेहद घनिष्ठ है। अगर विरोध का स्वरूप हिंसक हो तो वह निंदनीय है। पिछले तीन वर्षों में इस विश्वविद्यालय परिसर में कई नए केंद्र खुले हैं। शोध कार्य को निरंतर बढ़ावा दिया गया, भारतीय ज्ञान और संस्कृति को शिक्षण में शामिल किया गया।

राष्ट्रीय पहचान से जेएनयू को जोडऩे की कोशिश की गई। छात्रों के लिए नए हास्टल बनाने की तयारी की गई। इसके बावजूद शिकायतों का पुलिंदा बड़ा होता चला गया। इसका क्या कारण हो सकता है? क्यों चंद लोग जेएनयू को देश की परिधि से बाहर रखने पर तुले हुए हैं।

हर देश की संस्थाएं देश के हितों को ध्यान में रखकर आर्थिक और सैनिक नियमों को बनाने में मदद करती हैं। अमेरिकी शक्ति अगर दशकों तक दुनिया में छाई रही तो इसके पीछे उसकी संस्थाओं का भी योगदान था। लेकिन जेएनयू के भीतर एक ऐसे बुद्धिजीवी वर्ग ने अपनी जड़ जमा ली जो न तो पूरी तरह से साम्यवादी थे और न ही सोशलिस्ट। उनका छद्म रूप माक्र्स के दास कैपिटल का था, लेकिन असली रूप अमेरिका के पूंजीवाद और व्यक्तिगत सुख और ऐशोआराम पर टिका हुआ था। पढ़ाई वामपंथी विचारों को मजबूत बनाने की होती, लेकिन ठिकाना अमेरिका और यूरोप में होता।

दर्जनों ऐसे दिग्गज बुद्धिजीवी अपने नाम के साथ विभागीय राजवाड़ा बनाने में सफल हुए जिनके नाम के साथ ही केंद्र का नाम था। उनकी पसंद का ही बुद्धिजीवी केंद्र में स्थान प्राप्त कर सकता है। विदेश में फैलोशिप पर भेजने की कलम की शक्ति भी इन्हीं के पास थी। दरअसल यह राजवाड़ा टूटने लगा। इतना ही नहीं, जहां हुर्रियत के लीडर आकर कश्मीर को देश से अलग होने की हुंकार भरकर चले जाते थे, आज वही परिसर अनुच्छेद 370 के हटाए जाने पर शांत है, यहां तक कि समर्थन करते हुए प्रसन्नता भी जताई जा रही है। यह अद्भुत परिवर्तन भी इसी दौरान हुआ है।

शिक्षण संस्थानों में समर्पण की भावना : इस संदर्भ में यदि हम जवाहरलाल नेहरू के सोच को ही समझने का प्रयास करें तो उन्होंने कहा था कि विश्वविद्यालय मंदिर की तरह है। यहां समर्पण की भावना होनी चाहिए। अगर मंदिर की तफ्तीश करें तो जेएनयू से बेहतर मंदिर भारत में नहीं है। पिछले कुछ वर्षों में जेएनयू की प्रगति पहले से कहीं तेज गति से हुई है। जब संस्थाओं की बात होती है तो उसकी गुणवत्ता का आकलन राष्ट्रीय मानक के अनुसार किया जाता है कि देश की प्रगति में वह संस्था कितनी सहायक रही है।

अगर अमेरिका के भी उदाहरण को लिया जाए तो उसकी ज्ञानपूर्ण अर्थव्यवस्था और सामरिक सोच को विकसित करने में संस्थाओं और थिंक टैंक का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। लेकिन जेएनयू में जब देश की परंपरा की, संस्कृति की और उसकी अस्मिता की बात होती थी तो उसे पिछड़ेपन का कारण मान लिया जाता। यानी क्रिटिकल थिंकिंग की परिभाषा केवल राष्ट्र की बुराई करने में है या उस देश की मिट्टी में पैदा हुई संस्कृति को तहस नहस करने भर से है।

दरअसल एक विचारधारा की निरंकुशता ने संस्था को राष्ट्र से दूर खींचने की कोशिश की। आज कैंपस पहले की तरह ज्ञान केंद्र बना हुआ है। केवल चंद लोगों की स्वार्थ और लिप्सा बंद हो गई है। बेचैनी उनकी है। उनकी नजर में जेएनयू गर्त में गिर चुका है। निर्णय तो भावी पीढ़ी करेगी कि यह सकारात्मक परिवर्तन देश के लिए कितना आवश्यक था।

उनकी हर कोशिश होती रही कि जेएनयू के कुलपति को कठघरे में खड़ा कर देश के प्रधानमंत्री पर निशाना साधा जाए। इस बार भी वैसा ही कुछ हो रहा है। प्रोफेसर शंतिश्री पंडित जेएनयू की छात्रा रह चुकी हैं। इसलिए वामपंथ के चक्रव्यूह को बखूबी समझती हैं। एक कुशल प्रशासक के रूप में भी उनकी पहचान है। इस बात की पूरी उम्मीद है कि नई शिक्षा नीति को लागू करने और जेएनयू की प्रगति में उनके प्रयास सफल होंगे।

राष्ट्र निर्माण में छात्रों की भूमिका : राष्ट्र निर्माण में विश्वविद्यालय और छात्रों की अहम भूमिका है। जब आर्थिक व्यवस्था ज्ञानमूलक हो और दुनिया में सबसे अधिक युवा शक्ति भारत से निकलती हो, तब बात और महत्वपूर्ण हो जाती है। पिछली सदी के पांचवें दशक में और फिर महज दशक भर पहले चीन ने यह बात कही थी कि भारत कोई राष्ट्र नहीं है, वह टुकड़ों में बंटा हुआ एक ढांचा है जो समय के साथ बिखर जाएगा।

लेकिन बीते 75 वर्षों में भारत न केवल मजबूत हुआ है, बल्कि पिछले कुछ समय से अपनी पुरातन संस्कृति की पहचान को स्थापित करने की कोशिश में भी लगा हुआ है। इस बीच यह आवश्यक है कि किसी वैचारिक सोच से ज्यादा राष्ट्रीय हित की बात हो। शंतिश्री पंडित जेएनयू को आगे ले जाने की बात कह रही हैं। ऐसे में यदि विरोध हो भी तो वह सकारात्मक दिशा में हो, क्योंकि जेएनयू की गिनती देश के लब्ध प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में होती है।

राष्ट्र विरोधी गतिविधियों के प्रति सक्रियता : वर्ष 1975-77 के दौर में जब देश में आपातकाल लगा था, तब जहां पूरे देश में सरकार की तानाशाही का विरोध हो रहा था, वहीं इस विश्वविद्यालय परिसर में सरकार की वाहवाही हो रही थी। दरअसल तबकी प्रमुख वामपंथी पार्टी ने आपातकाल का समर्थन किया था और उस दौर के मानवाधिकार उल्लंघनों में हिस्सा भी लिया था। पिछली सदी के आखिरी दशक में भी हिंसा की कई बड़ी घटनाएं घटीं। वर्ष 2000 में विश्वविद्यालय परिसर में हुई हिंसा का एक सनसनीखेज मामला संसद में कर्नल भुवन चंद्र्र खंडूड़ी ने उठाया था।

दरअसल मामला यह था कि जेएनयू के केसी ओट नामक सभागार में वामपंथी संगठनों द्वारा एक मुशायरा आयोजित किया गया था, जिसमें पाकिस्तान से भी शायर आए थे। वहां भारत-पाकिस्तान संबंधों में भारत को बुरा और पाकिस्तान को अच्छा बताने वाली नज्में गायी जा रही थीं और तब महज एक वर्ष पहले कारगिल युद्ध में भारत को दोषी बताते हुए लिखे गए शेर भी पढ़े जा रहे थे। उस खुले सभागार में दर्शकों के बीच दो भारतीय सैनिक भी बैठे थे, जो उस समय तो अवकाश पर थे, लेकिन कारगिल की लड़ाई में वे शामिल रहे थे।

उन्होंने खड़े होकर इस कार्यक्रम का विरोध किया। जवाब में विश्वविद्यालय परिसर के वामपंथियों ने उन दोनों सैनिकों को घेर कर पीटा और अधमरा करके मुख्य गेट के बाहर फेक दिया। कर्नल खंडूड़ी ने जब संसद में यह पूरा वृत्तांत सुनाया तो उस समय भी जेएनयू में दी जा रही राजनीतिक शिक्षा पर देश में प्रश्न उठे थे।

वर्ष 2010 में जब दंतेवाड़ा में सीआरपीएफ के 76 जवान माओवादी हमले में वीरगति को प्राप्त हुए थे, उस समय देश में शोक की लहर थी। लेकिन विश्वविद्यालय परिसर में स्थित एक ढाबे पर वामपंथी गुटों ने इस घटना पर जश्न मनाया और डीजे चलाकर पार्टी की।

वर्ष 2013 में इस विश्वविद्यालय परिसर में एक अजीब तरह का कार्यक्रम आयोजित किया गया जिसे वामपंथियों ने महिसासुर पूजन दिवस का नाम दिया। इस दिन विश्वविद्यालय परिसर में पर्चा बांटा गया जिसमें भारतीयों की आराध्य देवी दुर्गा के लिए अकल्पनीय अपशब्दों का प्रयोग किया गया। इस कार्यक्रम से हिंदू और सिखों की भावना आहत होना स्वाभाविक था, लेकिन विरोध करने पर उनके साथ वामपंथियों द्वारा बर्बर हिंसा हुई।

Leave a Reply

error: Content is protected !!