संत रैदास पर चिंतन-मनन करने की आवश्यकता है़?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

महान समाज सुधारक, तपोनिष्ठ, कर्मनिष्ठ, जात-पात के बंधन से मुक्त, एकेश्वरवाद के प्रणेता गुरु रैदास का जन्म पवित्र काशी नगरी के मडुआडीह में 1433 में माघ पूर्णिमा के दिन हुआ था. उनके माता-पिता का पेशा मरे हुए जानवरों की खाल उतारना और उनसे जूते-चप्पल बनाना था. तत्कालीन सामाजिक परंपराओं के अनुसार रैदास जी का विवाह बचपन में ही हो गया था. अत: उन्हें भी अपनी पारिवारिक जिम्मेदारी संभालने के लिए अपने पुश्तैनी पेशे को अपनाना पड़ा.

संत रैदास को बचपन से ही साधु-संतों की संगति अत्यंत प्रिय थी. उन्हें अपने आराध्य में अटूट भक्ति एवं आस्था थी. अपने ज्ञान के अथाह भंडार और तार्किक शक्ति से वे बड़े-बड़े विद्वानों को पराजित कर देते थे. अपनी तर्क शक्ति से उन्होंने साबित कर दिया था कि ईश्वर की भक्ति किसी लालच या डर के कारण नहीं, बल्कि निश्छल होनी चाहिए. उन्होंने अपने विचारों व ज्ञान से समाज को दिशा दिखायी.

उन्हें परमपिता परमेश्वर का सानिध्य प्राप्त था. वे निर्गुण ब्रह्म के उपासक थे और बड़े बेबाकी से कहा करते थे- ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा.’ उनका मानना था कि जहां ईश्वर का वास होगा, वहां सारा संसार समा जायगा. निर्मल और स्वच्छ मन के अंदर ही सारी समष्टि की अच्छाइयां समाहित हो सकती हैं. उन्होंने कहा- ‘प्रभु जी तुम चंदन हम पानी, जाकि संग अंग वास बसानी.’

संत रैदास जी का आगमन जिस काल एवं परिस्थिति (वातावरण) में हुआ था, उस समय जाति व्यवस्था काफी कड़ी थी और समाज में जात-पात, छुआछूत, ऊंच-नीच जैसी कुरीतियां एवं बुराईयां व्याप्त थीं. इन कुरीतियों के कारण नीची जातियों का जीवन बड़ा ही कष्टप्रद व संघर्षपूर्ण था. ऐसी विषम और कठिन परिस्थिति में रैदास जी ने एकनिष्ठ कर्म और धर्म का सीधा मार्ग अपनाया और पूरी मानव जाति को सच्चा, सीधा, सरल जीवन जीने की राह दिखायी.

वे पूजा-पाठ में आंडबर के विरोधी थे और सीधे-सच्चे मार्ग द्वारा प्रभु के प्रेम को पाने के आग्रही थे. यह दुखद है कि अशिक्षा एवं अज्ञानता के कारण न ही लोग संत रैदास की शिक्षाओं का उपयोग कर पा रहे हैं, न ही उससे प्रेरणा ही ले पा रहे हैं. जबकि उनका जीवन दर्शन सभी के लिए प्रेरक है.

संत रैदास स्वाभिमानी, निडर, सच्चे, कर्मनिष्ठ, सहनशील व उदार होने के साथ ही कर्तव्य बोध की भावना और चारित्रिक नैतिकता से भरे हुए थे. उनके भीतर कठिन से कठिन परिस्थितियों का डटकर मुकाबला करने का अदम्य साहस था. वे बनावटी व दिखावटी जीवनशैली से कोसों दूर रहकर सुख-शांति एवं संतोष का जीवन जीने के पक्षधर थे.

यह उनका साहस और निडरता ही थी कि सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक विषमता वाली परिस्थितियों के बीच वे न केवल दलितों के उद्धारकर्ता, मार्गदर्शक, प्रेरक बनकर उभरे, बल्कि अपनी श्रद्धा, आस्था और विश्वास की बदौलत ढोंगियों, पाखंडियों एवं धार्मिक दुष्प्रचार करनेवालों पर विजय भी प्राप्त की. उनके इन्हीं गुणों से प्रभावित होकर चित्तौड़ की रानी (झाली रानी) मीराबाई उनकी शिष्या बन भगवद्भक्ति में लीन हो गयीं.

संत रैदास की शिक्षा, जीवन मूल्य व विचार अनमाेल हैं. ऐसे में जरूरत है कि समाज का हर वर्ग अपने हृदय में इन जीवन मूल्यों को प्रतिस्थापित करे. ताकि उनकी शिक्षा और विचार का व्यापक प्रचार-प्रसार हो सके. उन्होंने जिस आत्मीयता और नैसर्गिक तौर-तरीकों से संपूर्ण मानव समाज में सामाजिक समरसता एवं धार्मिक व्यापकता का बीजारोपण किया, उनकी उसी मौलिक अवधारणा को आज संपूर्ण विश्व को आत्मसात करने की आवश्यकता है.

आज हमारे समाज में कई तरह के दुर्गुणों का चलन बढ़ रहा है व मानव मूल्यों का क्षरण हो रहा है. जिसके चलते हमें नित नयी परेशानियां झेलनी पड़ रही हैं. नशाखोरी, अकर्मण्यता, दिशाहीनता, तिलक-दहेज का प्रचलन, बाल विवाह, बाल श्रम, बच्चों की खरीद-फरोख्त, बच्चियों के साथ दुष्कर्म और उनकी हत्या जैसे अमानवीय कृत्य बढ़ते ही जा रहे हैं.

परिवार एवं समाज द्वारा स्थापित तौर-तरीकों से विमुख होना, बड़े-बुजुर्गों का अनादर करना एवं अपने कर्तव्यों तथा उत्तरदायित्वों से विमुख होने के साथ-साथ कई तरह के अवांछित क्रियाकलापों में संलिप्त रहने जैसे कृत्य भी आज समाज में देखे जा रहे हैं. इन सभी समस्याओं के निदान के लिए चर्चा-परिचर्चा, बहसों एवं जागरूकता शिविरों के माध्यम से जागरूकता फैलाने और हमारे महान धार्मिक व समाज सुधारकों के जीवन से प्रेरणा लेने की जरूरत है.

संतों-महात्माओं एवं समाज के उद्धारकों के जीवन चरित्र को विद्यालयी पाठ्यक्रम में शामिल करना भी समय की मांग है. ऐसे संत-महात्माओं के संदेशों, उपदेशों, विचारों एवं महान कर्मो के मर्म को केवल उनकी जयंती मनाकर नहीं समझा जा सकता है. इसके लिए चिंतन-मनन करने की आवश्यकता है़

संत रैदास जी समरस समाज के सामाजिक, धार्मिक, शैक्षणिक, बौद्धिक, सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक धरोहर हैं. उनके आचरण, व्यवहार एवं शिक्षाओं को आत्मसात करना ही उनके प्रति सच्ची श्रद्धा और भक्ति होगी. हमें काम, क्रोध, लोभ, मोह एवं अहंकार रहित होकर शुद्ध, स्वच्छ तन-मन से इस गृहस्थ संत के गुणों को ग्रहण करना चाहिए.

आज दुनिया को कई तरह की विषम परिस्थितियों से जूझना पड़ रहा है. ऐसे में प्रत्येक व्यक्ति को इन विषम व विपरीत परिस्थितियों को जान-समझ कर इन संत-महात्माओं के बताये मार्ग का अनुसरण करना चाहिए़ जब ऐसा होगा, तभी हमारे महान संतों-मनीषियों के दर्शन की सार्थकता सिद्ध हो सकेगी और देश-समाज में समरसता व शांति स्थापित हो सकेगी़.

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