हमारे नवीन का बलिदान व्यर्थ न जाने पाए!

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रूस और यूक्रेन की जंग ने बलि ले ली हमारे कर्नाटक के एक होनहार मेडिकल छात्र की

भारतीय राजनयिक गतिविधि और शैक्षणिक व्यवस्था पर भी उठ रहे सवाल दर सवाल

✍️गणेश दत्त पाठक, स्वतंत्र टिप्पणीकार:

महज 21 साल का था वो मासूम। अपने कैरियर को संवारने सहेजने ही तो पहुंचा था भारत के कर्नाटक से रूस के खारकीव। नवीन की मेडिकल की पढ़ाई का चौथा साल था। मां बाप ने न जाने कितने हसरतों को दबाकर और आंखों में न जाने कितने सपनों को सजाकर भेजा था अपने लाडले को यूक्रेन। परंतु हाय रे! साम्राज्यवाद और सत्ता के मद में चूर तानाशाह के बेरहम कारिंदों की करतूत। भूख से बिलबिला रहे मासूम के लिए बस कुछ खाने की लालसा ने उसे सियासत के नापाक मंसूबों से लैस बमों का बेरहम शिकार बना डाला। एक शानदार स्वप्न की अकाल मौत।

सवाल दर सवाल उठ रहे

सवाल दर सवाल उठ रहे हैं? सवाल रूसी राष्ट्रपति के तानाशाहीपूर्ण रवैए पर उठ रहे हैं? सवाल यूक्रेनी राष्ट्रपति के एकतरफा नाटो प्रेम पर भी उठ रहे हैं? सवाल सभ्यता के इस डिजिटल दौर में भी संवाद के प्रभावी नहीं बनने पर उठ रहे हैं? सवाल नाटो की कमजोर प्रवृति पर उठ रहे हैं? तो सवाल संयुक्त राष्ट्र की प्रासंगिकता पर भी उठ रहे हैं? सवाल यूक्रेन के शैक्षणिक संस्थानों की वाणिज्यिक प्रवृत्ति पर भी उठ रहे हैं, जिसके कारण इन विश्वविद्यालयों को समय पर बंद नहीं किया गया? सवाल भारतीय राजनय पर भी उठ रहे हैं जिसने छात्रों के लाने संबंधी अभियान ऑपरेशन गंगा के शुरू करने में इतना विलंब क्यों लगाया? सवाल भारतीय शैक्षणिक व्यवस्था पर भी उठ रहे है, जिसकी कुछ कमियों की वजह से छात्रों को विदेश कैरियर सहेजने के लिए जाना पड़ता हैं? सवाल पैरेंट्स के उस अंतराष्ट्रीय आकर्षण पर भी उठ रहे हैं, जो छात्रों के लिए अंतहीन परेशानियों का सबब भी बन रहा है।

युद्ध सभ्यताओं की असफलता की अनंत दास्तां

मानव के अस्तित्व के साथ ही युद्ध की कहानियां सभ्यताओं की दुखती रग रही है। जब तब कुछ तानाशाही रवैए के सियासतदानों ने अपने मंसूबों को पूरा करने, अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए, लाखों लाख निरीह प्राणों को हरा है। प्रथम विश्वयुद्ध और द्वितीय विश्वयुद्ध की विनाश लीला भी भूली जा चुकी है। रूस यूक्रेन के जंग के दौरान तृतीय विश्वयुद्ध की आहट भी सुनाई देने लगी थी। संयुक्त राष्ट्र संघ भी मूकदर्शक ही बना रह गया। अमेरिका और नाटो भी हाथ मलते रह गए। लेकिन कोरोना महामारी से तबाह मानवता को फिर जंग की दुश्वारियों को झेलना ही पड़ा। जो न जाने कितने दर्द देगा, यह तो आनेवाला समय ही बताएगा। परंतु मानव सभ्यता अभी भी संवाद को युद्ध पर वरीयता नहीं दे पाई है यह तो एक चिंतनीय तथ्य है ही।

अपने छात्रों के संदर्भ में भारतीय राजनय समय पर सचेत नहीं हो पाया

यूक्रेन में जंग छिड़ने के महज कुछ दिनों पहले ही भारतीय राजनय ने यूक्रेन में अध्ययनरत छात्रों को देश लाने के गंभीर प्रयास की सूझी। अभी प्रयास शुरू ही हुआ कि जंग शुरू हो गई। फिर भी तकरीबन 1800 छात्रों को 8 फ्लाइट से निकाल लेने का प्रयास सराहनीय तो कहा जा सकता है लेकिन सभी छात्रों को निकाल लेने का प्रयास ही प्रशंसनीय होता। भारतीय राजनय को इस मसले पर मंथन करना होगा।

यूक्रेन के संस्थानों के वाणिज्यिक हित पड़े भारी

शिक्षा का वाणिज्यीकरण एक विश्वस्तरीय अवधारणा बन चुकी है। यूक्रेन के विश्वविद्यालयों ने भी अपने वाणिज्यिक हितों को ध्यान में रखते हुए। युद्ध की आशंकाओं के बीच संस्थानों को बंद नहीं किया। ऑनलाइन कक्षाएं संचालित की जा सकती थी। विश्वविद्यालय समय पर बंद हो गए होते तो छात्र सकुशल स्वदेश में होते। हमारा नवीन भी हमारे बीच होता। साथ ही, शिक्षा के कमर्शियल उपागम के कारण ही भारत में मेडिकल शिक्षा इतनी महंगी हो गई हैं कि छात्र यूक्रेन आदि देशों की तरफ देखते हैं। इस कमर्शियल कलेवर पर भी मंथन होना चाहिए।

भारत में मेडिकल प्रवेश परीक्षा में प्रतिस्पर्धा बेहद तगड़ी

भारत में तकरीबन 600 मेडिकल कॉलेजों में तकरीबन 90 हजार मेडिकल सीट उपलब्ध हैं। डेढ़ अरब की जनसंख्या के आरोग्य रक्षण के लिहाज से भी ये सीट बेहद कम है। छात्रों के लिए मेडिकल संस्थानों में प्रवेश की प्रतिस्पर्धा बेहद तगड़ी हो जाती है। आरक्षण की कहानी तो है ही। कई प्रतिभावान छात्र प्रवेश से ही वंचित हो जाते हैं, जिससे छात्रों को यूक्रेन आदि जाना पड़ता हैं। सवाल यह उठता हैं कि विशाल जनसंख्या के आरोग्य रक्षण को देखते हुए तथा मेडिकल क्षेत्र में प्रवेश के इच्छुकों की खासी तादाद को देखते हुए मेडिकल सीट बढ़ाने के सार्थक प्रयास अस्तित्व में क्यों नहीं आते हैं?भारत में मेडिकल सीट बढ़ाने के प्रयास ही नवीन के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि हो सकती हैं। महज शोक संवेदना व्यक्त कर खानापूर्ति से काम नहीं चलनेवाला है।

हमारा मासूम नवीन रूस यूक्रेन के जंग की भेंट चढ़ गया। परन्तु भारतीय राजनय को अपने कूटनीतिक चैनलों का इस्तेमाल कर बाकी बचे छात्रों को तुरंत निकालने के प्रयास करने चाहिए। साथ ही, भारतीय छात्रों के लिए देश में ही मेडिकल संस्थानों में पर्याप्त सीट उपलब्ध कराने के लिए व्यवस्थाओं को सृजित करने के प्रयास करना ही हमारे नवीन के बलिदान को व्यर्थ नहीं जाने दे सकता है।

English version ?

May the sacrifice of our Naveen not go in vain!

The war between Russia and Ukraine killed a promising medical student from our Karnataka

Question by question also arising on Indian diplomatic activity and educational system

️✍️Ganesh Dutta Pathak
independent commentator

He was only 21 years old. To save his career, he had reached Kharkiv in Russia from Karnataka in India. It was the fourth year of Naveen’s medical studies. The parents had sent their beloved to Ukraine by suppressing so many wishes and decorating so many dreams in their eyes. But hey! The handiwork of the ruthless servants of the tyrannical dictator in the guise of imperialism and power. The urge to eat just something for the hungry innocent made him a ruthless victim of bombs armed with the nefarious designs of politics. Premature death of a splendid dream.

question after question

Question by question? Questions are being raised on the authoritarian attitude of the Russian supremo? Questions are also being raised on the one-sided NATO love of the Ukrainian supremo? Questions are being raised on the failure of communication even in this digital age of civilization? Questions are being raised on the weak nature of NATO? So questions are also arising on the relevance of the United Nations? Questions are also being raised on the commercial nature of Ukrainian educational institutions, due to which these universities were not closed on time? Questions are also being raised on Indian diplomacy, why did it take so long to launch Operation Ganga, a campaign to bring students? Questions are also arising on the Indian educational system, due to which some of its shortcomings have to go abroad for saving career? Questions are also being raised on the international attraction of the parents, which is also causing endless problems for the students.

Infinite tales of the failure of war civilizations

Along with the existence of humans, the stories of war have been the pain of civilizations. When then the politicians of some dictatorial attitude have lost lakhs of innocent lives in order to fulfill their wishes, to fulfill their ambitions. The ruins of the First World War and the Second World War have also been forgotten. During the war of Russia-Ukraine, the sound of the Third World War was also being heard. The United Nations also remained a mute spectator. America and NATO also kept rubbing hands. But humanity devastated by the Corona epidemic had to face the miseries of war again. Who knows how much pain it will give, only time will tell. But human civilization has still not been able to give priority to dialogue over war, it is a worrying fact.

Indian diplomacy could not be conscious in time with respect to its students

Just a few days before the war broke out in Ukraine, Indian diplomacy realized a serious effort to bring the students studying in Ukraine to the country. The effort had just begun that the battle had begun. Still, the effort to get about 1800 students out of 8 flights can be said to be commendable, but the effort to get all the students out would have been commendable. Indian diplomacy will have to brainstorm on this issue.

The commercial interests of Ukrainian institutions outweigh

Commercialization of education has become a world class concept. Ukraine’s universities also take into account their commercial interests. The institutions did not close amid fears of war. Online classes could be conducted. Had the universities closed on time, the students would have been in their home country safely. Our Naveen would also be among us. Also, due to the commercial approach to education, medical education in India has become so expensive that students look to countries like Ukraine. There should be a churn on this commercial aspect too.

Competition in medical entrance exam in India is very strong

About 90 thousand medical seats are available in about 600 medical colleges in India. This seat is also very less in terms of health protection of the population of 1.5 billion. The competition for admission in medical institutions for students becomes very tough. Many talented students are denied admission, due to which students have to go to Ukraine etc. The question arises that in view of the health protection of the huge population and in view of the large number of aspirants to enter the medical field, why do not meaningful efforts to increase the medical seats come into existence? Efforts to increase the medical seats in India are towards the new It can be a true tribute. Merely expressing condolences is not going to work.

Our innocent new Russia has died in the war of Ukraine. But Indian diplomacy should use its diplomatic channels to make efforts to expel the remaining students immediately. At the same time, making efforts to create arrangements for providing adequate seats in medical institutions to Indian students in the country itself cannot allow our Naveen’s sacrifice to go in vain.

 

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