LetsInspireBihar अभियान के अंतर्गत जहानाबाद में युवा संवाद कार्यक्रम आयोजित

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श्रीनारद मीडिया, सेंट्रल डेस्‍क:

LetsInspireBihar अभियान के अंतर्गत युवा संवाद   6 मार्च, 2022 को जहानाबाद में आयोजित हुआ । नगर भवन में आयोजित कार्यक्रम में सर्वप्रथम आईपीएस विकास वैभव ने  इतिहास के नव-निर्माण की भूमि, अखंड राष्ट्र निर्माण के संकल्प की भूमि, आजीवकों की भूमि, तपस्वियों की भूमि, ज्ञान तथा विज्ञान की भूमि, अति प्राचीन काल से ही शौर्य की भूमि मगध को नमन किया । सभागार में अनेक स्थानों पर तथा मंच के पीछे भी बराबर की गुफाओं के चित्र को देखकर संबोधन के प्रारंभ में मैंने सभी से यह पूछा कि जिस पर्वत पर ये गुफाएं अवस्थित थीं, उसका प्राचीन नाम क्या था ? मैंने देखा कि पूरे सभागार में सभी एक-दूसरे से चर्चा कर रहे थे परंतु विमर्शोपरांत भी जब सभागार में उपस्थित कोई भी व्यक्ति प्रश्न का उत्तर नहीं दे सका, तब मैंने सभी को स्मरण कराया कि प्राचीन काल में #गोरथगिरी के नाम से प्रसिद्ध इस पर्वत की अपनी महत्वपूर्ण भूमिका थी और यह कि मगध के शौर्य का स्मरण करने के लिए इन पर्वतों से उपयुक्त कोई अन्य स्थान नहीं हो सकता चूंकि स्वयं भगवान श्रीकृष्ण जब जरासंध वध के निमित्त इन्द्रप्रस्थ से चलकर यहाँ पहुंचे थे तब उन्होंने राजगृह की ओर देखकर कहा था कि मगध की राजधानी को बल से जीतना संभव नहीं था ।

श्री वैभव ने  सभी को महाभारत में वर्णित जरासंध वध के आख्यान का स्मरण कराया कि किस प्रकार अपने संबंधी कंस के वध के पश्चात क्रोधित जरासंध द्वारा जब अपनी गदा को घुमाकर फेंका गया था, तब वह मथुरा के समीप ही कहीं जाकर गिरा था । महाभारत का ऐसा वर्णन भले ही वैज्ञानिक दृष्टिकोण से अनुचित प्रतीत हो रहा हो परंतु संभव है कि उसका काव्यात्मक तात्पर्य यह रहा हो कि जरासंध की शक्ति का प्रभाव मथुरा तक व्याप्त था । अतः जरासंध द्वारा संभावित आक्रमण के भय के कारणों को स्पष्ट करते हुए भगवान श्रीकृष्ण द्वारा यह वर्णित किया गया कि मथुरा में नहीं परंतु सूदूर समुद्र तटवर्ती द्वारका में अपनी राजधानी को उनके द्वारा स्थापित किया गया था ।

तत्पश्चात अनेक राजाओं के जरासंघ द्वारा बंदी बनाए जाने के कारण तथा उपरोक्त आक्रमण के भय से मुक्त होने के लिए ही भगवान श्रीकृष्ण द्वारा जरासंध वध को तब अत्यावश्यक बताया गया । जरासंध वध की रोचक कथा का अध्ययन भी निश्चित ही मगध के पूर्व शौर्य का स्मरण कराती हैं चूंकि जब श्रीकृष्ण, अर्जुन एवं भीम राजगृह की ओर चले थे, तब जरासंध के प्रभाव के कारण ही हस्तिनापुर से गंगा किनारे प्रयाग काशी आदि नगरों से होते हुए मगध की ओर जाने वाले सामान्य मार्ग का परित्याग करके उनके द्वारा क्षद्म वेश में (यहाँ जरासंध के प्रभाव के कारण क्षत्रिय वेश त्यागकर तपस्वियों के भेष में प्रस्थान उल्लेखनीय है) उत्तर कुरू के मार्ग से हिमालय की तराई तथा नेपाल से गुजरते हुए सदानीरा (गंडक) तट तक पहुँचे थे जिसके किनारे बढ़ते हुए अंततः गंगा पार कर गोरथगिरी पहुँचे, जहाँ चढ़कर उन्होंने राजगृह का अवलोकन किया था ।

इतिहास के अनेक प्रसंगों का स्मरण करते हुए विकास वैभव ने बताया कि बिहार में सदैव सकारात्मक परिवर्तनों के लिए अपवादों को प्रस्तुत करने की परंपरा रही थी । एक ओर जहाँ वैशाली में इस चिंतन का जन्म हुआ कि कोई भी चयनित सक्षम व्यक्ति द्वारा शासन किया जा सकता है, वहीं मगध में भी इस चिंतन को स्वीकार्यता मिली कि किसी भी वर्ग का सक्षम व्यक्ति निश्चित ही शासक बन सकता है । इसी कारण अपवाद संभव हुए और समय के साथ अभिवृद्धि होती रही जिससे मगध की शक्ति निरंतर बढ़ती रही और तीसरी शताब्दी इसापूर्व में मगध की सेनाओं के विषय में यह लोकोक्ति आम थी कि जब विशाल सेनाएँ प्रस्थान करती थीं, तब उनके कारण उड़े धूल से सूर्य भी छिप जाता था ।

ऐसे विवरणों को मगध सम्राट धनानंद के काल में युनानी आक्रांता वीर योद्धा अल्क्षेन्द्र (अलेक्जेंडर) की सेनाओं ने जब सुना तब वे अत्यधिक भयाक्रांत हो उठे और उस अवस्था में उन्होंने अपने सम्राट के विश्वविजय के अभियान में गंगा की ओर आगे बढ़ने से मना कर दिया । अपने सैनिकों के परिवर्तित व्यवहार से अत्यंत द्रवित वीर अल्क्षेन्द्र ने तब तीन दिवसों तक अपने शिविर में मौन रहने के पश्चात सभी सैनिकों को संबोधित कर मनाने का हरसंभव आत्मीय प्रयास किया परंतु हर प्रयास व्यर्थ ही सिद्ध हुआ और अंततः अल्क्षेन्द्र को विश्वविजय के अपने अभियान को स्थगित करना पड़ा तथा गंगा की ओर नहीं बढ़कर यूनान की ओर ही वापस लौटना पड़ा । इधर मगध में शौर्य की गौरवशाली परंपरा में एक नवीन अध्याय जोड़ने हेतु लगभग उसी समय आचार्य चाणक्य के मार्गदर्शन में चंद्रगुप्त मौर्य द्वारा अखंड भारत में एक ही सत्ता की स्थापना हेतु समेकित प्रयास प्रारंभ कर दिया गया जिसकी परिणति नंद वंश के अंत तथा शक्तिशाली साम्राज्य की स्थापना के साथ हुई ।

आगे संबोधन में मगध के सामर्थ्य, वैशाली के चिंतन की उत्कृष्टता तथा पतन के कारणों पर चर्चा करते हुए मैंने अभियान के उद्देश्यों को बताना प्रारंभ कर दिया और कहा कि बिहार की भूमि प्राचीन काल से ही ज्ञान, शौर्य एवं उद्यमिता की प्रतीक रही है और यह कि हम उन्हीं यशस्वी पूर्वजों के वंशज हैं जिनमें अखंड भारत के साम्राज्य को स्थापित करने की क्षमता तब थी जब न आज की भांति विकसित मार्ग थे, न सूचना तंत्र और न उन्नत प्रौद्योगिकी ।

यह हमारे पूर्वजों के चिंतन की उत्कृष्टता ही थी जिसने बिहार को ज्ञान की उस भूमि के रूप में स्थापित किया जहाँ वेदों ने भी वेदांत रूपी उत्कर्ष को प्राप्त किया और जहाँ कालांतर में ऐसे विश्वविद्यालयों स्थापित हुए जिनमें अध्ययन हेतु संपूर्ण विश्व के विद्वान लालायित रहते थे । तब सभी को उदाहरणों के साथ समझाते हुए मैंने कहा कि उर्जा निश्चित आज भी वही है, परंतु यदि हम वांछित उन्नति नहीं कर पा रहे तो आवश्यकता केवल इस चिंतन की है कि नैसर्गिक उर्जा का प्रयोग हम कहाँ कर रहे हैं ।आवश्यकता लघुवादों यथा जातिवाद, संप्रदायवाद आदि संकीर्णताओं से परे उठकर राष्ट्रहित में आंशिक ही सही परंतु कुछ निस्वार्थ सकारात्मक सामाजिक योगदान समर्पित करने की है । मैंने सभी से चिंता नहीं अपितु चिंतन तथा आपस में संघर्ष नहीं अपितु सहयोग करने का आह्वान किया ।

यात्रा गतिमान है !

 

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