“स्त्री मनुष्य होने के लिए दुनिया से निरंतर टकरा रही है।”-प्रो.चंद्रकला त्रिपाठी,वरिष्ठ साहित्यकार
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर साहित्य,कला एवं संस्कृति के समृद्ध मंच ‘कस्तूरी’ के तत्वावधान में परिचर्चा का आयोजन किया गया। ‘स्त्री प्रतिरोध स्वर: संदर्भ हिन्दी सिनेमा’ विषयक परिचर्चा में प्रो.चंद्रकला त्रिपाठी(वरिष्ठ साहित्यकार), डॉ. सरिता तिवारी(शिक्षाविद), डॉ. आरती निर्मल(साहित्य,कला समीक्षक), डॉ. रश्मि रावत(आलोचक,समीक्षक) एवं डॉ. चित्रा माली(समीक्षक) के विचारों से मंच समृद्ध हुआ।
डॉ. चित्रा माली(समीक्षक) ने सिनेमा के सौ वर्षों से अधिक की सृजन यात्रा को आधुनिक संदर्भ में प्रस्तुत किया। डॉ. माली ने कहा कि, समय के सच का मुकम्मल बयान लिखता हिन्दी सिनेमा स्त्री को आसमान देने के लिए कृतसंकल्पित है। श्याम बेनेगल की फिल्मों ‘अंकुर’, ‘भूमिका’, ‘मंथन’ ने स्त्री चेतना को आवाज दी है। आज यह आवाज़ दीपा मेहता, मीरा नायर, नंदिता दास की फिल्मों का मुख्य स्वर है।
डॉ. आरती निर्मल(साहित्य,कला समीक्षक) ने 1962 में बिमल मित्र के उपन्यास पर आधारित फिल्म ‘साहब बीबी और गुलाम’ को केंद्र में रख विषय को विस्तार दिया। डॉ. निर्मल ने कहा कि, फिल्में समाज के यथार्थ को मजबूती से दर्शकों के सामने रखती हैं। ‘साहब बीबी और गुलाम’ फ़िल्म उपनिवेशित भारत में जमीदारों के गिर रहे सामाजिक परिवेश को दर्शाती है और साथ ही साथ पति के प्यार से वंचित एक लाचार औरत की मनोदशा को भी समाज के समक्ष प्रस्तुत करती है।
डॉ. रश्मि रावत(आलोचक,समीक्षक) ने कहा कि, प्रतिरोध विषमतामूलक समाज का सौंदर्य है। कला यथार्थ की पुनर्प्रस्तुति है। कला रूप सिनेमा सामाजिक चेतना को प्रस्तुत करते हुए प्रश्नों को जन्म दे रहा है। आज की फिल्में स्त्री को उसके मूल सौंदर्य के साथ प्रस्तुत कर रही हैं।
डॉ.सरिता तिवारी(शिक्षाविद) ने लैंगिक समानता की राजनीतिक पृष्ठभूमि को विस्तार से प्रस्तुत किया। डॉ. तिवारी ने कहा कि, सहयोग और संघर्ष से गुजरती मानव सभ्यता अपने प्रश्नों के साथ हमारे सामने है। साहित्य और सिनेमा युग से दृष्टि प्राप्त करता है और साथ ही साथ युग को दृष्टि भी प्रदान करता है। आज ‘लैंगिक समानता’ के मूल अर्थ को समझना आवश्यक है। भ्रूण परीक्षण, असमान वेतन, असमान अवसर जैसे यथार्थवादी प्रश्नों का उत्तर हमें देना होगा।
प्रो.चंद्रकला त्रिपाठी(वरिष्ठ साहित्यकार) ने सभी वक्ताओं के वक्तव्यों को एकसूत्र में पिरोते हुए स्त्री-अस्मिता के समकालीन संदर्भों को विस्तार दिया। प्रो.त्रिपाठी ने कहा कि,औरत-मर्द के जामे से हटकर मनुष्य के रूप में एक-दूसरे का स्वीकार्य आवश्यक है। ‘काम के घंटे’ और ‘बराबर की उजरत’ मानवीयता के प्रश्न हैं। स्त्री मनुष्य होने के लिए दुनिया से निरंतर टकरा रही है। अस्मिता की तलाश में स्त्री जकड़े हुए समाज से प्रश्न पूछ रही है। अमानुषिक दुनिया में पुरुष बर्बर है, इस सच का सामना करते हुए दुनिया के यथार्थ पर नज़र डालना आवश्यक है।
कार्यक्रम का संचालन रश्मि सिंह(साहित्य अध्येता) ने किया।
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