बस एक ही संदेश है,एक बार फिल्म अवश्य देखिए।
श्रीनारद मीडिया, सेंट्रल डेस्क:
बहुत पढ़े-लिखे थे कश्मीरी पंडित। ज्ञान एवं धन का कहीं अगर संगम था तो कश्मीरी पंडितों के पास। लक्ष्मी-सरस्वती एक हीं छत के नीचे बिना की प्रतिद्वंदी भावना के रह रहीं थी।
कश्मीर से काशी का पुराना रिश्ता था (आज भी है)।धर्म, कला एवं संस्कृति साक्षात विराजते थे- ऋषि कश्यप के वंशजों के यहां। बड़ा गुमान था-अपनी जड़ों पर, अपने विराट हृदय पर। अपने जीवन अपनी दुनिया में मग्न दर्शन की परत दर परत उघाड़ते गए। गोया सत्य कहीं आंखों से ओझल न हो जाए। सत्य की खोज में हीं निकले …और अकेले होते गए। बंद कमरे में गीता, रामायण पर भाष्य लिखा जाने लगा, चर्चाएं होती रहीं। इस बात से पूरी तरह से बेख़बर कि वर्षों पहले खैबर दर्रे को लांघकर जो बर्बर सभ्यता भारत को रौंदने के इरादे लेकर आयीं थीं उनका मक़सद हीं था दरियाए-सिंध के पानी को लाल करना…..अपनी सभ्यता को थोपना, औरतों को माले गनीमत समझना और ….जितनी क्रूरता से संभव हो सके …उस इंसान यहाँ तक कि जानवर तक का कत्ल करना जो उनके ‘इमान’ का न हो।
नरसंहार का पुराना इतिहास जानते हुए, चाणक्य जैसे दूरदर्शी पूर्वज की थाती संजोते हुए भी आसन्न खतरे को पहचान नहीं पाए। लाहौर का भी तो इतिहास ज्यादा पुराना नहीं था। भूल गए कि गीता का सीधा प्रसारण युद्धभूमि से हुआ था। गीता का पहला ज्ञान हीं था- अपने शत्रु को पहचानना। ….और उसे नष्ट करना। यहीं धर्म है। यहीं कर्म भी।
वहीं बर्बर सभ्यता अपने भीतर अनेकानेक विकृतियाँ समेटे अपने हीं समान दिखने वाले मानवों को मिटाने के लिए टूट पड़ी। चाहें कोई कुरान-ए-पाक को कश्मीरी में अनुवाद करता मिला या कोई उन्हीं के बच्चों को पढ़ा कर निकलती महिला शिक्षिका मिली, सबको बस कू्र से क्रूर तरीकों से कत्ल करना था …क्योंकि बर्बरता एवं क्रूरता की यहीं मनोवैज्ञानिक बढ़त का फायदा आगे मिलना वाला था। जो मानव समूह एक चिंटी के पांव से दब जाने पर अफसोस प्रकट करता है, वह कत्ल की बात सुनकर हीं आधा मर जाएगा।
…वहीं हुआ।
शेष भारत या तो बॉलीवुड के गीतों पर थिरक रहा था या आरक्षण की आग में झुलस रहा था। सबकी नजर में सारा दोष ब्राह्मणों का था। मीडिया ने भी हमेशा कश्मीरी पंडित कहा।
लेकिन इतने नरसंहार के बाद भी उनमें से एक भी आतंकी नहीं बने। यहीं उनका संस्कार है। यहीं उनकी सभ्यता है। उनके कष्ट को जानकर कभी-कभी तो मन कहता है-काश! आतंकी हीं बन गए होते….। अपनी हीं जमीन से उजड़ना तो नहीं पड़ता।
“कश्मीर-जेनोसाइड वीक”
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