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आज भगतसिंह के साथ लोहिया को भी याद करने का दिन है।

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

लोहिया ने कहा था–
” उस देश में जिसका राष्ट्रपति ब्राह्मणों के पैर धोता है ,एक भयंकर उदासी छा जाती है ,क्योंकि वहां कोई नवीनता नहीं होती ; पुजारिन और मोची ,अध्यापक और धोबिन के बीच खुलकर बातचीत नहीं हो पाती है. कोई अपने राष्ट्रपति से मतभेद रख सकता है या उसके तरीकों को विचित्र समझ सकता है,पर वह उनका सम्मान करना चाहेगा ,पर इस तरह के सम्मान का अधिकारी बनने के लिए राष्ट्रपति को सभ्य आचरण के मूलभूत नियमों का उल्लंघन नही करना चाहिए…भाई भाई को मारने वाले इस अकाट्य काम से वे (डॉ.राजेंद्र प्रसाद ) अब मेरे आदर से वंचित हो गए हैं ,क्योंकि जिसके हाथ सार्वजनिक रूप से ब्राह्मणों के पैर धो सकते हैं ,उसके पैर शूद्र और हरिजन को ठोकर भी तो मार सकते हैं “—-डॉ. राममनोहर लोहिया .

23 मार्च, 1910 को अकबरपुर, जनपद – आंबेडकर नगर (उ.प्र.) में जन्‍मे डा. राम मनोहर लोहिया की मृत्यु 12 अक्टूबर, 1967, नई दिल्ली में हुई थी। राष्ट्रीय राजनीति में गैर कांग्रेसवाद सिद्धांत के निर्माता डा. राममनोहर लोहिया का था बनारस से गहरा नाता था। बीएचयू के सीएचएस से इंटरमीडिएट के बाद यहीं स्वतंत्रता और स्वदेशी आंदोलन के संपर्क में आए।

सधुक्कड़ी से जो नाता एक साधु का होता है, वही नाता काशी से डा. राम मनोहर लोहिया का था। काशी की आबोहवा में उनके जीवन-दर्शन को परिपक्वता मिली। अपने दर्शन के लिए विचारों की आध्यात्मिक खुराक उन्हें काशी से ही मिलती थी। 1925 में 15 वर्ष की अवस्था में यहां इंटरमीडिएट करने आए डा. लोहिया के किशोर मन पर स्वतंत्रता व स्वदेशी आंदोलन का ऐसा प्रभाव पड़ा कि इसी उम्र में उन्हें खादी भा गई और फिर ताउम्र उनके बदन से लिपटी रही।

राष्ट्रीय राजनीति में गैर कांग्रेसवाद के सिद्धांत के निर्माता डा. राममनोहर लोहिया का बनारस से गहरा नाता था। प्रखर समाजवादी चिंतक शतरुद्र प्रकाश कहते हैं डा. लोहिया का अक्सर बनारस के घाटों पर चिताओं को देखते हुए मृत्यु में भी समता का दर्शन करने ढूंढते थे। चिताओं की तेज व मद्धिम होती लपटें उन्हें उनके दर्शन और विचारों को नया आयाम देती थीं।

बनारस में डा. लोहिया के अनुयायियों की एक बड़ी फौज आज भी है जो उनकी परंपरा और चिंतन-दर्शन के अनुरूप आज भी राजनीति को प्रभावित करती है। उनके आह्वान पर 1956 में यहां दलितों के मंदिर में प्रवेश को लेकर चला आंदोलन, बनारस में आंदोलनों के इतिहास में मील का पत्थर माना जाता है।

आज के आंबेडकर नगर जनपद के अकबरपुर कस्बा निवासी शिक्षक हीरालाल के पुत्र राममनोहर को देशभक्ति के गुण विरासत में मिले थे। पिता के साथ बचपन से महात्मा गांधी के कार्यक्रमों में आते-जाते बाल मन में स्वदेशी व स्वतंत्रता संग्राम की ओर झुकाव होने लगा। 1925 में जब मैट्रिक पास करने के बाद उन्होंने शहर के कमच्छा स्थित बीएचयू के सेंट्रल हिंदू स्कूल में इंटरमीडिएट में प्रवेश लिया तो यहां के वातावरण ने उन्हें पूरी तरह आध्यात्मिक दर्शन से ओतप्रोत फक्कड़ समाजवादी के रूप में ढाल दिया। तभी उन्होंने खादी को अपना लिया।

होटल में ठहरने पर करना पड़ा था छात्रों के विरोध का सामना : शतरुद्र प्रकाश बताते हैं कि 1967 में जब वह बीएससी के छात्र थे, पता चला कि डा. लोहिया आ रहे हैं, वह क्लार्क होटल में ठहरेंगे। उनके समाजवादी विचारों और दर्शन का जुनून इस कदर सिर पर हावी था कि मन यह सोचकर विद्रोह कर उठा कि वह होटल में क्यों ठहरेंगे। फिर क्या था, उनके अनुयायी छात्रों का एक समूह होटल पहुंच गया उन्हीं का विरोध करने। उसमें शतरुद्र समेत वर्तमान में जेएनयू के शिक्षक डा. आनंद कुमार, फूलचंद यादव, शिवदेव नारायण, रामजी लाल गुप्ता आदि शामिल थे। तब राजनारायण ने उन लोगों को काफी समझाया-बुझाया।

इसी बीच आ पहुंचे डा. लोहिया ने भी राजनारायण से नाराजगी जताई कि उन्हें होटल में क्यों ठहराया गया। शाम को उन्हें ट्रेन से दिल्ली जाना था। तब ट्रेन में फर्स्ट क्लास तो था, एसी नहीं था। उसमें पानी की भी व्यवस्था नहीं थी तो उन लोगों ने सुराही खरीदकर उसमें उन्हें पानी भर कर रास्ते के लिए दिया। तब तक वे भारतीय राजनीति में गैर कांग्रेसवाद के प्रतीक बन चुके थे। 03 जून 1967 को काशी विद्यापीठ के आचार्य नरेंद्रदेव छात्रावास में आयोजित गोष्ठी का उद्घाटन करने आए डा. लोहिया तीन दिनों तक यहां शिविर में रहे।

 

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