भगत सिंह और इंकलाब जिंदाबाद का नारा एक-दूसरे के पर्याय हैं,कैसे?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
भगत सिंह और इंकलाब जिंदाबाद का नारा एक-दूसरे के पर्याय हैं. भगत सिंह के क्रांतिकारी आंदोलन से जुड़ने के पूर्व क्रांति का मतलब प्रमुखतया पिस्तौल, बम, हत्या, षड्यंत्र और अंततः कुर्बानी ही थी. भगत सिंह और उनके क्रांतिकारी साथियों ने दो महत्वपूर्ण संगठनों ‘नौजवान भारत सभा’ और ‘हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातांत्रिक एसोसिएशन’ का गठन किया, जिसने क्रांति की पूर्व स्थापित समझ में दो महत्वपूर्ण परिवर्तन किये.
पहले परिवर्तन के तहत हिंसक कार्रवाई को जारी रखा गया तथा क्रांतिकारियों की नयी पीढ़ी ने उसके बुनियादी नारों को और अधिक सेकुलर और जनोन्मुखी बनाया. दूसरे परिवर्तन के तहत इन संगठनों से किसानों, मजदूरों और छात्रों को जोड़ने का प्रयास किया गया. सभा का उद्देश्य राजनीतिक के साथ सामाजिक भी था.
वह पूरे भारत में पूरी तरह से किसानों और मेहनतकशों का स्वतंत्र गणराज्य स्थापित करना चाहती थी. इसके लिए सभा ने किसानों और मजदूरों को लामबंद करने के प्रयास किये. सभा का उद्देश्य जीवन में सादगीपूर्ण आदर्शों का समावेश, भाईचारे की भावना का विकास, स्वदेशी वस्तुओं का प्रचार-प्रसार करना भी था.
वर्ष 1922 में गोरखपुर के चौरी-चौरा हिंसा के बाद गांधी जी के असहयोग आंदोलन को वापस लेने के निर्णय ने कई देशप्रेमी युवाओं को आहत कर दिया था. असहयोग आंदोलन में भाग लेने वाले कई युवकों ने क्रांतिकारी राष्ट्रवाद का मार्ग चुन लिया था. चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, सुखदेव, यशपाल, भगवती चरण वोहरा, शिव वर्मा, जतिन दास, मन्मथनाथ गुप्त चौरी-चौरा के बाद असहयोग आंदोलन के सत्याग्रही नहीं रहे थे.
भगत सिंह के राष्ट्रवादी विचारों, गतिविधियों तथा शहादत ने उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन की समानांतर धारा के रूप में एक विशिष्ट पहचान दिलायी, जो आज भी कायम है. भगत सिंह ने क्रांति को स्पष्ट करते हुए कहा था कि ‘क्रांति का मतलब बम और पिस्तौल न होकर सामाजिक रूपांतरण है, जिसका अंतिम लक्ष्य मजदूर वर्ग का शासन ही हो सकता है.’ भगत सिंह ने सारी दुनिया के क्रांतिकारी आंदोलनों का अध्ययन किया था.
सोवियत अनुभव के आधार पर वे दो नतीजों पर पहुंचे थे. पहला, भारत की मुक्ति साम्राज्यवाद से मुक्ति के साथ अभिन्न रूप से जुड़ी हुई है. दूसरा, केवल अंग्रेजों को भगाना ही काफी नहीं है, बल्कि एक समाजवादी एजेंडे की आवश्यकता है.
भगत सिंह की रचनाओं के शीर्षक ही उनकी विचारधारा और बौद्धिक दृष्टिकोण को रेखांकित करते थे. उनकी महत्वपूर्ण पुस्तकों में ‘हिस्ट्री ऑफ रिवोल्यूशनरी मूवमेंट्स इन इंडिया’, ‘एट द डोर ऑफ डेथ’, ‘रिलीजन एंड आवर फ्रीडम स्ट्रगल’, ‘कम्युनलिज्म एंड इट्स सॉल्यूशन’, ‘प्रॉब्लम ऑफ अनटचेबिलिटी’, ‘विश्व प्रेम’, ‘व्हाई आई एम एन एथिस्ट’ आदि हैं.
भगत सिंह यूथ आइकन हैं. महज 23 वर्ष की उम्र में वे क्रांतिकारी आंदोलन के मुख्य सिद्धांतकार बन कर उभरे. अप्रैल 1929 को सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेंबली में जिस समय ट्रेड डिस्प्यूट बिल पर चर्चा हो रही थी, भगत सिंह और उनके साथी बटुकेश्वर दत्त ने दर्शक दीर्घा से नीचे हॉल में दो बम फेंके थे, जिससे तेज आवाज ताे हुई, पर किसी को कोई नुकसान नहीं पहुंचा. इसके बाद दोनों युवा ‘इंकलाब जिंदाबाद’ और ‘डाउन विद इम्पीरियलिज्म’ के नारे लगाते रहे. दोनों ने पर्चे भी फेंके, जिनमें लिखा था, ‘बहरों को सुनाने के लिए धमाके की जरूरत होती है.’
असेंबली बम केस में भगत सिंह को उम्र कैद की सजा हुई और सांडर्स हत्याकांड व लाहौर षड्यंत्र केस के तहत उन्हें राजगुरु और सुखदेव के साथ फांसी की सजा सुनायी गयी. भगत सिंह चाहते तो असेंबली में बम फेंकने के बाद आसानी से भाग सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. वे ऐसे अनोखे क्रांतिकारी थे, जिन्होंने अपनी शहादत को पूरी जिम्मेदारी के साथ चुना.
भगत सिंह और उनके साथियों ने राजनीतिक कैदियों का दर्जा पाने के लिए 64 दिनों तक भूख हड़ताल की, जिसमें यतींद्र दास को अपने प्राण त्यागने पड़े. भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव सिंह 23 मार्च, 1931 को फांसी पर चढ़ा दिये गये. भगत सिंह की लोकप्रियता भारत में गांधी से कम नहीं थी. गांधी और भगत सिंह का साध्य एक था, ‘देश की आजादी.’ पर दोनों के साधन अलग-अलग थे. भिन्नता के बाद भी समानता की अवधारणा, भाईचारे की भावना, अंतिम व्यक्ति के लिए संघर्ष, जाति, धर्म, नस्ल, रंग के आधार पर भेदभाव का अंत गांधी और भगत सिंह के समाजवादी दर्शन में समान रूप से देखे जा सकते हैं.
आधिकारिक तौर पर शहीद दिवस 30 जनवरी है, पर आम जनता के मानस में शहीद शब्द सुनते ही जो चेहरा उभरता है, वह भगत सिंह का है. इसीलिए उन्हें शहीदे आजम भगत सिंह कहा जाता है. भगत सिंह और उनके साथियों की शहादत जाया न हो, इसके लिए आवश्यक है कि हम जाति, धर्म, वर्ग, शोषण विहीन समाज की उनकी अवधारणा को फलीभूत करने का प्रयास करें.