अनचाहे वैवाहिक रिश्तों से मुक्ति दिलाने के लिये क्या करना होगा?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

भारत में वैवाहिक संबंधों में कुछ ऐसा घटित हो रहा है, जिस पर गंभीर चिंतन-मनन की आवश्यकता है। इसकी वजह यही है कि पिछले कुछ दशकों के दौरान विवाह मानवीय और भावनात्मक संबंधों के जुड़ाव के बजाय अधिकारों की प्राप्ति के रणक्षेत्र में परिवर्तित हो रहा है, जहां दंपती संबंधों की कड़वाहट को एक विकृत रूप देने पर आतुर नजर आते हैं। देश की दो विभिन्न अदालतों के निर्णय यह बताने के लिए काफी हैैं कि वैवाहिक संबंधों का टकराव एक बेहद गंभीर सामाजिक विकृति के रूप में उभर रहा है।

बीते दिनों पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने पति की प्रतिष्ठा को खराब करने के लिए पत्नी द्वारा अपमानजनक पोस्ट करने को मानसिक क्रूरता मानते हुए टिप्पणी दी कि ‘एक बार जब दो पक्ष लंबे समय से अलग हैं और उनमें से किसी एक ने तलाक के लिए याचिका पेश की है तो यह अच्छी तरह से माना जा सकता है कि शादी टूट गई है। नि:संदेह न्यायालय को पक्षों के बीच सामंजस्य स्थापित करने के लिए गंभीरता से प्रयास करना चाहिए, फिर भी अगर यह पाया जाता है कि दोनों का एक होना असंभव है तो तलाक को रोकना नहीं चाहिए।’

पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय की तरह पिछले दिनों दिल्ली उच्च न्यायालय ने एक मामले में क्रूरता के आधार पर पति के पक्ष में निर्णय सुनाते हुए कहा कि ‘विवाहेतर संबंध जैसे आरोप मानसिक पीड़ा और क्रूरता के समान हैं।’ भारतीय वैधानिक प्रक्रिया चूंकि बहुत जटिल और लंबी है इसलिए ऐसी स्थिति में कानून का दुरुपयोग भी किया जाता है। पीडि़त पक्ष न्यायालय के सामने साल दर साल अपने जीवन का बहुमूल्य समय निकाल देता है, परंतु उसे विषाक्त विवाह संबंधों से सहज मुक्ति नहीं मिल पाती, क्योंकि न्यायिक व्यवस्था विवाह विच्छेद के उन नियमों के साथ स्वयं को बंधा पाती है, जो वर्षों पूर्व निर्मित हुए थे।

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा-13 क्रूरता, परित्याग, मतांतरण, व्यभिचार तथा मानसिक विकार के कारण पति-पत्नी को संबंध विच्छेद के लिए याचिका प्रस्तुत करने का अधिकार देती है। वहीं विशेष विवाह अधिनियम, 1954 की धारा-27 के तहत विधिपूर्वक संपन्न विवाह के लिए विवाह विच्छेद के प्रविधान दिए गए हैं, परंतु जिन मामलों में वैवाहिक संबंध पूर्ण रूप से अव्यावहारिक, भावनात्मक रूप से मृतप्राय यानी जिसमें सुधार की कोई संभावना न हो तथा अपूर्ण रूप से टूट चुके हों, वह विवाह विच्छेद का आधार नहीं बनना न्यायालय के समक्ष अनेक बार पीड़ादायक स्थिति उत्पन्न कर देता है।

हालांकि संविधान के अनुच्छेद-142 के तहत उच्चतम न्यायालय को यह शक्ति है कि जिन मामलों में कानून या विधि द्वारा निर्णय नहीं किया जा सकता, ऐसी स्थिति में वह उस मामले को स्वयं के अधिकार क्षेत्र में लाकर अंतिम निर्णय दे सकता है।

उल्लेखनीय है कि चार अक्टूबर, 2019 को आर श्रीनिवास कुमार बनाम आर समेधा मामले में सुप्रीम कोर्ट ने विवाह विच्छेद का निर्णय देते हुए कहा कि ‘जब वैवाहिक संबंध उस स्थिति तक खराब हो चुके हों कि वे किसी भी स्थिति में सुधारे नहीं जा सकें तो कानून द्वारा इस वास्तविकता पर ध्यान नहीं देना अव्यावहारिक तथा समाज के लिए हानिकारक होगा। ऐसे वैवाहिक संबंध निष्फल होते हैं तथा इनका जारी रहना दोनों पक्षों को मानसिक प्रताडऩा देना है। इन मामलों में किसी वैधानिक प्रविधान की अनुपस्थिति के कारण न्यायालय द्वारा अनुच्छेद-142 के तहत अपनी असाधारण शक्तियों का प्रयोग करना आवश्यक है।’

21 मार्च, 2006 को नवीन कोहली बनाम नीलू कोहली मामले में सुप्रीम कोर्ट ने भारत संघ को हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 में संशोधन करने पर गंभीरता से विचार करने की सिफारिश की थी, ताकि वैवाहिक संबंधों में आई कड़वाहट को विवाह विच्छेद के एक आधार के रूप में सम्मिलित किया जा सके। फलस्वरूप 2009 में भारत के विधि आयोग ने अपनी 217वीं रिपोर्ट में अपरिवर्तनीय संबंध विच्छेद को विवाह विच्छेद का आधार बनाने के लिए हिंदू विवाह अधिनियम तथा विशेष विवाह अधिनियम में शामिल करने की अनुशंसा की।

यह दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि विवाह संबंधों में खेले गए दांवपेच न केवल दंपतियों के लिए व्यक्तिगत क्षति का कारण बन रहे हैं, अपितु अदालतों का एक महत्वपूर्ण समय भी इसमें नष्ट हो रहा है। किसी भी देश के विकास का मापदंड मात्र आर्थिक उन्नति भर नहीं है। अगर समाज विघटित, असंतुष्ट और अप्रसन्न होगा तो यह उन्नति अपना महत्व खो देगी। इसलिए यह सरकार का दायित्व है कि बदलती हुई सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिस्थितियों के अनुकूल कानूनों में भी बदलाव हो। विशेषकर वर्तमान परिस्थितियों में विवाह के परंपरागत रूप में परिवर्तन के चलते वैधानिक परिवर्तन आवश्यक हो गया है।

मिशिगन और नेवादा विश्वविद्यालय के एक अध्ययन के मुताबिक विघटित एवं विषाक्त विवाह न केवल दंपतियों के स्वास्थ्य को कुछ गंभीर तरीकों से प्रभावित करते हैं, बल्कि भावी पीढ़ी के विकास को भी अवरुद्ध करते हैं। कड़वाहट से भरे रिश्ते बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए हितकारी नहीं होते हैैं। ब्रिटेन में 2008 में बच्चों पर हुए शोध में पाया गया कि तनावग्रस्त माहौल की तुलना में बच्चे एकल अभिभावक के साथ स्वयं को अधिक खुश महसूस करते हैं।

रिश्तों की जटिलता बताती है कि यदि दो लोगों के जीवन में तालमेल नहीं है तो उनका अलग होना ही उनके और समाज के लिए हितकारी है। संबंध विच्छेद के बहुत संकुचित आधार की वजह से बेवजह क्रूरता और न्यायिक प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने में ऐसे कानून की आवश्यकता अब महसूस की जाने लगी है, जो अनचाहे रिश्तों से अलग होने के लिए संबंधों में आक्रामकता को रोक सके।

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