क्या बिहार की राजनीति में कुछ होने वाला है?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
भले ही बाहर से सब शांत दिख रहा हो, लेकिन बिहार में एक सवाल सबके भीतर घुमड़ रहा है, जो रह-रह कर बाहर छलकने से नहीं चूकता। सवाल है कि क्या वाकई बिहार की राजनीति में कुछ होने वाला है? जितने मुंह, उतनी बातें और हर बात तर्क से मढ़ी। लेकिन सवाल के साथ यह दुविधा भी साथ होती है कि पूर्ण बहुमत की गठबंधन सरकार में जब विपक्ष के पास कोई विकल्प न हो तो फिर कैसा बदलाव? जवाब की तलाश में हर छोटी-बड़ी, ढंकी-खुली राजनीतिक घटनाओं पर सबकी निगाहें टिकी हैं। कुछ होता दिखता नहीं और जो नहीं दिखता उसकी पुख्ता जानकारी नहीं, बावजूद इसके सवाल जिंदा है और जवाब की तलाश में हर कोई है। सवाल भी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को लेकर है और जवाब भी उन्हीं के निर्णयों पर टिका है।
नीतीश कुमार क्या चाहते हैं यह तो वही जानें, लेकिन उनको लेकर लोग बहुत चिंतित हैं। कोई राष्ट्रपति बनवा रहा है तो कोई उपराष्ट्रपति, किसी के पास उन्हें केंद्र में मंत्री बनाए जाने का तर्क है तो कोई यथास्थिति पर ही भरोसा किए है। सभी के पास अपने-अपने समीकरण हैं और हर कोई दूसरे के तर्क को काट स्वयं को सही साबित करने में जुटा है। चूंकि जुलाई में राष्ट्रपति व अगस्त में उपराष्ट्रपति का चुनाव होना है इसलिए अटकलबाज इन चुनावों को नीतीश से जोड़कर देख रहे हैं।
राष्ट्रपति बनवाने वालों के पास तर्क है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उत्तर प्रदेश चुनाव के दौरान परिवारवाद पर चोट करते हुए नीतीश को डा. राममनोहर लोहिया व जार्ज फर्नाडीज की तरह सच्चा समाजवादी बताया था। नीतीश को भाजपा राष्ट्रपति बनवा कर समाजवाद के नाम पर राजनीति करने वालों को चोट देगी और उस वोट बैंक में भी सेंध लगा देगी। नीतीश को राष्ट्रपति बनवा कर बिहार में बड़े भाई की भूमिका में आएगी और अपना मुख्यमंत्री बैठाकर लोकसभा चुनाव में उतरेगी। इस तर्क को खारिज करने वालों का कहना है कि भाजपा नीतीश को इस पद पर कभी नहीं बैठाने वाली। वह अपने दल से ही किसी को आगे करेगी।
उपराष्ट्रपति बनवाने वालों के अपने दावे हैं। इस खेमे का मानना है कि ऐसी स्थिति में मुख्यमंत्री जदयू का रह सकता है और नीतीश ऊपर भेजे जा सकते हैं। इससे भाजपा को कोई नुकसान नहीं होने वाला। कुछ का दावा है कि भाजपा नीतीश को केंद्र में मंत्री बनाने के फेर में है। वह गृह मंत्रलय छोड़ कोई भी मंत्रलय उन्हें दे सकती है। इस तरह के दावे करने वालों के अपने तर्क हैं। उनका मानना है कि स्थानीय फीडबैक के आधार पर भारतीय जनता पार्टी शीर्ष नेतृत्व को लगने लगा है कि अब नीतीश के नेतृत्व में लोकसभा चुनाव लड़ने पर सत्ता विरोधी लहर का सामना करना पड़ेगा। जो जदयू के खिलाफ तो है, लेकिन भाजपा के खिलाफ उतनी नहीं है। शराबबंदी और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों के कारण नुकसान हो रहा है।
अगर चेहरा बदल जाएगा तो भाजपा 90 प्रतिशत से अधिक सीटों पर आसानी से कब्जा कर लेगी, लेकिन नीतीश कुमार के रहने पर नुकसान हो सकता है। इस तरह के भिन्न-भिन्न विचारों वाले सभी लोगों का यह भी मानना है कि मतभेद भले ही हों, लेकिन भाजपा नीतीश का साथ छोड़ने की स्थिति में नहीं है। वह जानती है कि नीतीश अगर लालू के साथ चले गए तो स्थिति विपरीत हो जाएगी, क्योंकि 2015 विधानसभा चुनाव का उदाहरण उसके सामने है, जिसमें नीतीश-लालू गठबंधन को 151 सीटें मिली थी। कांग्रेस की 27 सीटें मिलाकर महागठबंधन को 178 सीटें हासिल हो गई थी, जबकि भाजपा को मात्र 53 सीटों से संतोष करना पड़ा था। इसलिए भाजपा चाहती है कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे यानी नीतीश दिल्ली चले जाएं और पटना में चेहरा बदल कर भाजपा मैदान मार ले।
नीतीश कुमार दिल्ली जा रहे हैं। लेकिन यह भी जिज्ञासा उठने लगी कि आखिर नीतीश मुख्यमंत्री पद छोड़ राज्यसभा क्यों जाना चाहेंगे। मंत्री पद का दावा करने वाले इसे केंद्रीय मंत्रिमंडल में आगामी समय में फेरबदल से जोड़ कर देखने लगे। लेकिन बात पची नहीं और 24 घंटे के भीतर नीतीश ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि उनकी कोई इच्छा नहीं है राज्यसभा जाने की। सांसद बनने की इच्छा थी जो पूरी हो गई। लेकिन फिलहाल फेरबदल की संभावना पाले लोगों की जिज्ञासा अभी भी शांत नहीं हुई है। वे अभी भी मानकर चल रहे हैं कि जल्द ही कुछ भी हो सकता है, जबकि यथास्थिति के पैरोकार इसे हवा-हवाई करार दे रहे हैं। भविष्य जो भी दिखाए, फिलहाल बिहार की राजनीति में इस तरह की चर्चाएं हर तरफ हो रही हैं।
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