स्वाभिमान और शौर्य के प्रतीक थे शिवाजी महाराज.

स्वाभिमान और शौर्य के प्रतीक थे शिवाजी महाराज.

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

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पुरुषश्रेष्ठ राजा शिवाजी! हम सुदूर तीर्थक्षेत्र काशी से आए हैं- एक पावन संकल्प लेकर। राजन, उत्तर देश में आज पवित्र मंदिरों का ध्वंस किया जा रहा है। मूर्तियां नष्ट-भ्रष्ट की जा रही हैं। निर्बल हिंदू प्रजा का बलात् धर्म-परिवर्तन किया जा रहा है। यही हालत रही तो भगवान राम और श्रीकृष्ण की यह पावन धरती एक दिन राख बन जाएगी। इसीलिए उत्तरवासियों के प्रतिनिधि के रूप में हम यह भिक्षापात्र लिए आपके दुर्ग में आए हैं। हे धर्मरक्षक, हमें सिंहासन दो। हे नरोत्तम, धर्मदंड को राजदंड का बल दो। छत्रपति राजा बनो। हमें ‘छत्र’ दो।’ छह जून, 1674 को रायगढ़ में शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक समारोह में वेदमूर्ति गागा भट्ट के शब्द गरज रहे थे तो शिवाजी महाराज के मन में जमा संकल्प मूर्तिमान हो गया। ‘तुम छत्रपति बनो’ काशी से आए ब्राह्मण के रूप में मानो स्वयं शिव ने आदेश दिया हो।

इस आदेश को उन्होंने समर्थ गुरु रामदास जी के आशीर्वाद से फलीभूत किया, ‘तुम्हें हम प्रभु रामचंद्रजी का ही अवतार मानते हैं। अब तुम्हें इतने महान कार्य संपन्न करने हैं, जो अभी तक किसी के हाथों संपन्न नहीं हो सके हैं।’

स्वाभिमान और शौर्य के प्रतीक

शिवाजी महाराज 19 फरवरी, 1630 को पुणे के पास शिवनेरी के पहाड़ी किले में शाहजी राजे भोंसले के घर जन्मे थे, जो बीजापुर सुल्तान के सेनाधिकारी थे। पिता का संरक्षण उचित रूप से न मिल पाने के कारण उनकी शिक्षा-दीक्षा ढंग से न हो सकी। वे पले-बढ़े माता जीजाबाई की देख-रेख और समर्थ गुरु रामदास के निर्देशन में और दादोजी कोंडदेव के सैन्य प्रशिक्षण ने उन्हें शौर्यवान बनाया। 16 मई, 1640 को उनका विवाह सईबाई से हुआ।

19 साल की आयु में ही शिवाजी ने प्रचंडगढ़ जीतकर मराठा शक्ति बढ़ाने का जो सिलसिला शुरू किया, अपनी महान विजयों से साम्राज्य की सीमा बढ़ाने के साथ उसे जीवनकाल तक कायम रखा। मराठा साम्राज्य का बीजारोपण करने से लेकर उसे एक महान शक्ति बनाने के बीच उन्होंने शत्रुओं से कई महत्वपूर्ण किले जीते और नए किले बनाते रहे। बीजापुर की आदिलशाही, अहमदनगर की निजामशाही तथा औरंगजेब की मुगलिया सल्तनत की शक्तिशाली विशाल सेनाओं को उन्होंने अनेक बार नाकों चने चबवा दिए।

छत्रपति के छापामार युद्ध, अफजल खां का वध और आगरा में औरंगजेब की कैद से पुत्र संभाजी के साथ भाग जाने सरीखे शौर्य, साहस व बुद्धिमता के उनके वृत्तांत किंवदंती बन चुके हैं। मराठों सहित संपूर्ण जनमानस को संगठित कर और युद्धकौशल का प्रशिक्षण देकर छत्रपति ने उनमें स्वाभिमान और स्वराज्य की निष्ठा जागृत की। निजामशाही, आदिलशाही और मुगलशाही ने महाराष्ट्र में अपना शक्ति संचय स्थानीय सरदारों तथा किलेदारों के माध्यम से किया था, जिनके अन्याय व अत्याचार से जनता को शिवाजी महाराज ने ही छुटकारा दिलाया। उन्होंने कृषकों, सामान्य प्रजा और धार्मिक स्थानों की अनेक व्यवस्थाएं कीं।

शारीरिक क्षमता, शौर्य, पराक्रम, दूरदृष्टि, कुशल संगठन, कठोर व योजनाबद्ध प्रशासन, अप्रतिम राजनीति, आदि उच्च कोटि के गुणों के साथ महाराष्ट्र के पहाड़-पठारों में अनुकूल गुरिल्ला पद्धति से छापामार युद्ध के साथ उचित समय पर आक्रमण तथा आवश्यकता पड़ने पर संधि का सूत्र सरीखी उनकी युद्ध व कूटनीतियां आज भी सफलता का मानक बनी हुई हैं।

रच दिया नया इतिहास

‘राष्ट्र सर्वप्रथम है, फिर गुरु, फिर माता-पिता व परिवार और फिर परमेश्वर का स्थान है’ मानने वाले छत्रपति शिवाजी महाराज ने आदर देने में मां जीजाबाई और समर्थ गुरु में फर्क नहीं किया, क्योंकि जहां वे नारी के सभी अधिकारों में सबसे महान अधिकार मातृ स्वरूप को मानते थे, वहीं तेजस्वी विद्वान के सामने सिर झुकाने को पुरुषार्थी का परम कर्तव्य क्योंकि उनके अनुसार ‘पुरुषार्थ भी विद्या से ही आता है।’ अपनी मुद्रा पर इसीलिए उन्होंने गुरुदेव का नाम अंकित किया। ‘सिंह का न तो कोई अभिषेक करता है और न कोई अन्य संस्कार होता है।

वह अपने बल से ही ‘वनराज’ की पदवी हासिल करता है।’ संभवत: यह उक्ति छत्रपति शिवाजी के लिए ही बनी थी। उनका कहना था कि स्वतंत्रता अधिकार है और उसके लिए लड़ना मनुष्य का कर्तव्य। जब संपूर्ण भारतवर्ष विदेशी सत्ता के पाश में था। निरंतर अत्याचारों, बलात् धर्म परिवर्तन और जजिया कर जैसे अनाचारों ने हिंदुओं को अपने ही देश में असहाय और अल्पसंख्यक बना रखा था। तब आततायी बादशाहों की नाक के नीचे स्वतंत्र विशाल हिंदू राज्य की स्थापना करके उन्होंने नया इतिहास रचा।

सुशासन का उत्कृष्ट उदाहरण

छत्रपति शिवाजी महाराज महानतम शासक माने जाएं या न माने जाएं, पर दयावान व नीतिवान सम्राट के रूप में शासनकर्ताओं के बीच सुशासन की मिसाल बन गए। इसके लिए माता और गुरु से मिले नेकी और लोकोपकार के संस्कार जिम्मेदार हैं। राजभाषा को विकसित करने का यत्न, विविध कलाओं को राजाश्रय- कला और संस्कृति के संरक्षण के लिए भी छत्रपति शिवाजी ने कई काम किए । गागा भट्ट जैसे विद्वानों और भूषण, कवि कुलेश, जैराम, परमानंद जैसे संस्कृत और हिंदी कवियों को उन्होंने संरक्षण दिया। उनमें कई कवि उत्तर भारत से थे।

हिंदवी स्वराज्य के प्रणेता

हिंदवी स्वराज्य, अर्थात आदर्श शासन और पूर्ण भारतीय स्वराज। भारतवर्ष किसी भी दल या दलों के शासन में रहा हो,मूल विचारधारा हमेशा देश को हर प्रकार के विदेशी सैन्य व राजनैतिक प्रभाव से मुक्त रखने की रही है। पहली बार ‘हिंदवी स्वराज्य’ शब्द का प्रयोग शिवाजी महाराज ने ही 1645 के एक पत्र में किया था। उन्होंने जिस विचारधारा का उपयोग अफगानों, मुगलों, पुर्तगाली और अन्य विदेशी मूल के शासकों के विरुद्ध संपूर्ण भारतवर्ष को एकत्रित करने के लिए किया, उसी का इस्तेमाल लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध किया। ‘हिंदवी स्वराज्य’ की सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि छत्रपति शिवाजी ने ‘अष्टप्रधान मंडल’ की स्थापना कर हिंदवी स्वराज्य के राज्य कार्यभार की परिपूर्ण व्यवस्था की जिम्मेदारी अष्टप्रधानों को ही सौंप दी थी।

सभी धर्मों के प्रति आदर

छत्रपति शिवाजी महाराज की हिंदळ्त्व प्रवणता का एकमात्र उद्देश्य था अपने धर्म की रक्षा और ऐसा करते हुए उनमें इस्लाम अथवा किसी भी अन्य मत-पंथ के प्रति रंचमात्र भी उपेक्षा या घृणा झलकी हो, ऐसा कभी नहीं हुआ। छत्रपति शिवाजी महाराज की हिंदू पदपादशाही का मर्म था- अपने धर्म के उत्थान के साथ सभी मतों-पंथों के प्रति आदर और सद्भावना। हिंदू हृदय सम्राट होने के बावजूद उनकी राजनीति में सांप्रदायिकता और जातीय भेदभाव के लिए कोई स्थान नहीं था। मुसलमान फकीरों का भी उन्होंने उतना ही सम्मान किया जितना हिंदू साधु-संतों का।

बाबा याकूब ने भी उनकी वैसी ही प्रशंसा की है, जितनी संत तुकाराम और समर्थ गुरु रामदास ने। जाति, वर्ण, धर्म आदि के आधार पर नियुक्ति के लिए छत्रपति शिवाजी के शासन में कोई स्थान नहीं रहा। उनकी नौसेना के मुख्य अधिकारी दौलत खां और सिद्दी थे तथा विदेश मंत्री मुल्लाह हैदर-यानी तीनों मुसलमान। मुल्लाह हैदर को तो उन्होंने एक बार गवर्नर बहादुर खां के पास शांति-वार्ता के लिए अपना दूत बनाकर भी भेजा था।

शस्त्र भी कर उठते प्रशंसा

छत्रपति शिवाजी महाराज जैसे चरित्रवान शासक दुर्लभ ही हुए। मां जीजाबाई का अनुशासित पालन-पोषण ऐसा था कि उनके साम्राज्य में हर स्त्री पूजनीय थी। निर्दोष व्यक्तियों को सताने, विशेषकर महिलाओं के साथ दुव्र्यवहार करने वालों को कठोर दंड देना उनके राज्य का विधान था। मर्यादा पुरुषोत्तम ऐसे कि संभाजी पर स्त्री अपहरण के अपराध का अभियोग लगने पर उनके हितैषियों को एक बार चिंता हुई कि कहीं वे पुत्र को ही सूली पर न चढ़ा दें। कितनी ही महिलाओं को उन्होंने उनके अपहर्ताओं से छुड़वाया, दोषियों को दंडित किया और महिलाओं को उपहार देकर उनके परिवारों के पास सम्मान के साथ भेजा।

महान धार्मिक होते हुए भी लकीर के फकीर लोगों से अपनी चिढ़ उन्होंने कभी छिपाई नहीं। छत्रपति की हिंदू पदपादशाही में सर्वसमाज में भेद न था। छत्रपति शिवाजी की शिवशाही समाज सुधारों के लिए भी याद की जाती है। छत्रपति शिवाजी महाराज के ये गुण ऐसे विरले थे कि शत्रु भी उनकी प्रशंसा करते थे। कई पश्चिमी समीक्षकों ने भी उनकी मुक्त कंठ से प्रशंसा की है। शिवाजी महाराज की कीर्ति का बखान करते कविराज भूषण गदगद हो कहते हैं:

तेरो तेज है सरजा दिनकर सो –

दिनकर है तेरो तेज के निकर सो।

तेरो जस है सरजा हिमकर सो –

हिमकर है तेरो जस के अकर सो।

संदेहों में घिरा अंत्यकाल

छत्रपति शिवाजी महाराज जीवनभर छल-कपट, कलह और विश्वासघात से घिरे रहे। तीन अप्रैल, 1680 को रायगढ़ में उनके निधन पर भी इनका साया रहा। उनके निधन को स्वाभाविक मानने वाले इतिहासकारों के अनुसार उन्हें टाइफाइड हो गया था। आखिरी तीन दिन वे तेज बुखार से ग्रस्त थे। वहीं उन्हें जहर देकर हत्या मानने वाले इतिहासकार भी हैं, जो उनके निधन के पीछे दरबार के कुछ मंत्रियों से लेकर उनकी अन्य रानी सोयराबाई की साजिश मानते हैं। इन इतिहासकारों का मानना है कि सोयराबाई ने सौतेले बेटे संभाजी के बजाय 10 वर्ष के सगे बेटे राजाराम को नया राजा बनाने के प्रलोभन में यह कदम उठाया।

1926-27 में किले की खुदाई हुई तो उसमें जो अवशेष मिले, इतिहासकार इंद्रजीत सावंत ने उनके डीएनए टेस्ट की भी मांग की थी, ताकि अगर ये पार्थिव अवशेष छत्रपति शिवाजी महाराज के हों तो उनकी मृत्यु की असल वजह जानी जा सके। छत्रपति शिवाजी की मृत्यु को हत्या मानने वाले इतिहासकारों का मत है कि यह बहुत ही सुनियोजित साजिश थी। संभाजी को जान-बूझकर वहां से दूर कोल्हापुर भेज दिया गया था।

हनुमान जयंती के कारण अंत्यकाल में उनके पास कोई निकटजन मौजूद ही नहीं था। छत्रपति की तबीयत इससे पहले भी बिगड़ चुकी थी, पर इस बार जब बिगड़ी तो उन्हें बचाया नहीं जा सका। हालांकि तब उनकी उम्र महज 50 वर्ष थी। शिवाजी महाराज के निधन के बाद उनके पुत्र संभाजी महाराज उत्तराधिकारी बने।

 

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