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रामचरितमानस पर तुलसीदास जी के समय और समाज का व्यापक प्रभाव था,कैसे?

रामचरितमानस पर तुलसीदास जी के समय और समाज का व्यापक प्रभाव था,कैसे?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

यह तुलसी की भारतीय जनसाधारण की समझ का ही नतीजा है कि उनकी रामकथा न केवल संपूर्ण उत्तर भारत की स्मृति में है, बल्कि यह उसके आचार-विचार में सदियों से संस्कार की तरह शामिल भी है। भारतीय जनसाधारण आज भी इस कथा को जाने-अनजाने जीता और बरतता है। जार्ज ग्रियर्सन की तुलसी के संबंध में यह टिप्पणी सही है कि ‘वे बुद्धदेव के बाद भारत के सबसे बड़े लोकनायक थे।’ तुलसी की रामकथा केवल पंरपरा से आती रामकथा नहीं है, यह उत्तर भारतीय समाज की ऐतिहासिक और सामाजिक-सांस्कृतिक जरूरतों के अनुसार नए सिरे गढ़ा गया आख्यान है।

तुलसी जिस समय और समाज में थे, वहां समाज की व्यवस्था और अनुशासन के लिए परंपरा के साथ होना जरूरी था। उनके समय में ‘सुधारक’ होना आसान था और इस कारण मत-मतांतरों की भीड़ लगी हुई थी। जनसाधारण के लिए बहुत मुश्किल था कि वह क्या करे और किधर जाए। तुलसी ने इसी समय रामकथा की पुनर्रचना ‘रामचरितमानस’ के रूप में की और यह जनसाधारण में सहज ही स्वीकार्य हो गई। रामकथा में तुलसी के आदर्श ‘श्रुतिसम्मत’ थे, उनमें परंपरा का विरोध नहीं था, इसलिए जनसाधारण को इसे आत्मसात करने में कोई मुश्किल पेश नहीं आई।

दरअसल प्रतिरोध में होने के झंझट कई थे- उसके आत्मसातीकरण में समय लगता था और इस बीच समाज की उपेक्षा, निंदा और कभी-कभी बहिष्कार में जीवन व्यतीत करना बहुत मुश्किल काम था। तुलसी का मार्ग परंपरा सम्मत था और उसमें सम्मान का जीवन भी था। तुलसी के यहां प्रतिरोध नहीं है, यह धारणा भी गलत है। परंपरा में जितना प्रतिरोध अंतॢनहित होता है, उतना तुलसी के यहां भी है।

तुलसी सुधारकों की तरह उसकी झंडाबरदारी नहीं करते। वे परंपरा और व्यवस्था के साथ रहकर इनकी बुराइयों की पहचान करते हैं और साथ ही इनका अपना समाधान भी ढूंढते हैं। अपने समय में ब्राह्मणों के पतन पर ‘रामचरितमानस’ में उन्होंने जितना लिखा, उतना तो संतों ने भी नहीं लिखा। रामकथा के लिए संस्कृत और ‘भाषा’ में से ‘भाषा’ का उनका चुनाव भी उनके समय में बहुत क्रांतिकारी था।

तुलसी की ‘रामचरितमानस’ पर उनके समय और समाज का गहरा और व्यापक प्रभाव है। तुलसी भक्त होते हुए भी अपने समय और समाज की ओर पीठ करके खड़े हुए व्यक्ति नहीं थे। उनकी कथा में उनका समय और समाज परोक्ष और प्रत्यक्ष, दोनों तरह से है। उनके समय में सल्तनत की लंबी पराधीनता के बाद जनसाधारण मुगलों के नए निजाम में रहने-जीने की आदत डाल रहा था।

बाबर सन् 1526 में इब्राहिम लोदी को परास्त करने के बाद सन् 1527 में राणा सांगा को भी हराकर यहां मुगल साम्राज्य की नींव रख चुका था और सन् 1530 तक शासन भी कर चुका था। उसके बाद हुमायूं और फिर सन् 1556 से 1605 तक अकबर सत्तारूढ़ रहा। हुमायूं और उसके बाद खासतौर पर अकबर के समय कुछ हद तक राजनीतिक स्थिरता आ गई थी। सल्तनतकालीन शासकों की तुलना में अकबर सहिष्णु भी था और धाॢमक मामलों में उसकी नीति कमोबेश अहस्तक्षेप की थी। तुलसी ने पठानों और मुगलों का संघर्ष देखा था और इस कारण रही क्षेत्रीय अस्थिरता और असुरक्षा का भी उनको अनुभव था।

तुलसी के समय जनसाधारण की सामाजिक स्थिति बहुत खराब थी। वर्णाश्रम के आदर्श की स्मृति थी, लेकिन यथार्थ में ये दोनों ही अपना रूप खो चुके थे। वर्ण व्यवस्था अमानवीय जातीय सोपान क्रम में ढल गई थी। वर्ण और जातीय गतिशीलता थी, लेकिन आग्रह इनको बनाए रखने था। मुसलमानों की मौजूदगी से पारंपरिक सामाजिक ताना-बाना हिल गया था।

शासकों और उनकी तांत्रिक व्यवस्थाएं जनसाधारण को लेकर उदासीन थीं। जनसाधारण का जीवन मुश्किल में था- उसे जीवन की आधारभूत सुविधाएं भी मुहैया नहीं थीं। बार-बार पडऩे वाले अकालों और युद्ध अभियानों से जनसाधारण त्रस्त था। अकबर के शासनकाल सन् 1556 और सन् 1573-74 पड़े अकालों से जनसाधारण की हालात बहुत खराब थी। महामारियों का प्रकोप भी जनसाधारण पर अलग से था। शासक और अन्य अमीर-उमरा आराम और विलास का जीवन व्यतीत करते थे। समय की यह उठापटक उनकी कविता में कई तरह से आती है। ‘रामचरिमानस’ के उत्तरकांड के कलियुग वर्णन में उनका समय और समाज यह बहुत मुखर और पारदर्शी होकर सामने आता है।

तुलसी जानते थे कि समाज में सद्भाव और अनुशासन की निरंतरता विरोधों के प्रश्रय और प्रोत्साहन में नहीं, उनके सामंजस्य और समन्वय में है। उन्होंने अपनी रामकथा में यही किया- उन्होंने इसकी कथा के मोड़-पड़ावों और चरित्रों का आग्रहपूर्वक इस तरह से पुनर्गठन किया कि ये जनसाधरण के लिए सामंजस्य और समन्वय का आदर्श बन गये। हजारीप्रसाद द्विवेदी ने उनकी सफलता के इसी रहस्य का खुलासा करते हुए लिखा कि ‘वे समन्वय की विशाल बुद्धि लेकर पैदा हुए थे।’

तुलसी भारतीय समाज के वैविध्य और एक-दूसरे अलग और कई विरोधी मत-मतांतरों के संबंध में अच्छी तरह जानते थे। उनका अपना वैयक्तिक जीवन भी इस सामाजिक वैविध्य और विरोध के बीच व्यतीत हुआ। वे ऐसे व्यक्ति थे, जो लोक और शास्त्र, दोनों के ज्ञाता थे और यह असाधारण संयोग था। उनकी रचनाओं यह साफ-साफ दिखता भी है। ‘रामचरितमानस’ ऐसी रचना है, जिसमें धुर विरोधी तत्वों को एक-दूसरे में साफ-साफ घुलते-मिलते देखा जा सकता है। वैराग्य और गार्हस्थ्य, भक्ति और ज्ञान, भाषा और संस्कृत, निर्गुण और सगुण, पुराण और काव्य, ब्राह्मण और चांडाल, पंडित और अपंडित, राग और विराग आदि बिना किसी अंतॢवरोध के एक-दूसरे के साथ हैं।

तुलसीदास के समय सांप्रदायिक मत-मतांतर अपने चरम पर थे और कहीं-कहीं उनमें पारस्परिक संघर्ष और प्रतिद्वंद्विता का भाव भी था। ‘रामचरितमानस’ में जगह-जगह इस विरोध का परिहार और शमन है। शैवों और वैष्णवों की प्रतिद्वंद्विता और विरोध का परिहार ‘रामचरितमानस’ में एकाधिक स्थानों पर है। उन्होंने ‘ब्रह्मवैवर्तपुराण’, जिसमें शिव हरि मंत्र के जापक कह गए हैं, के हवाले से राम के मुंह से कहलवाया कि ‘शिवद्रोही मम दास कहावे।

सो नर सपनेहु मोहिं न भावै?’ आशय यह है कि शंकर प्रिय, मम द्रोही, शिवद्रोही, ममदास मुझे पसंद नहीं है। उन्होंने हिंदू समाज में एकाधिक देवों की उपासना के कारण होने वाले विभेद का भी निराकरण किया। तुलसीदास रामभक्त हैं, लेकिन लोकाचार के अनुसार उन्होंने मानस की शुरुआत में गणेश वंदना की है। तुलसी की यह समन्वय चेतना सामाजिक विभेदों, मत-मतांतरों के पारस्परिक विरोधों आदि के शमन में निर्णायक सिद्ध हुई। उनकी इस प्रतिभा और बुद्धि ने उन्हें समाज के सभी वर्गों और स्तरों में मान्य और स्वीकार्य बनाया।

तुलसी के समय भक्ति आंदोलन अपने चरम पर था। उत्तर और दक्षिण में कई धाॢमक विचार और संप्रदाय फैले हुए थे। दक्षिण में आलवार और नायनार संत-भक्तों ने भक्ति को प्रपत्ति से जोड़कर जनसाधारण के लिए सुलभ कर दिया। आंशिक प्रतिरोध के बाद भक्ति के लिए वर्ण और जाति की बाधाएं भी खत्म हो गई थीं।

रामानुजाचार्य, विष्णु स्वामी, मध्वाचार्य, वल्लभाचार्य आदि विचारकों ने भक्ति को एक दार्शनिक आधार भी दे दिया था। रामानंद आदि के माध्यम से दक्षिण का भक्ति आंदोलन उत्तर भारत में भी लोकप्रिय हो रहा था, लेकिन यहां स्थिति अलग थी। यहां दक्षिण से अलग जनसाधारण में अभी भी बौद्धमत की जड़ें थीं और उससे भी अधिक यहां इस्लाम मौजूद था और खास बात यह कि यह शासकों का धर्म था।

भक्ति आंदोलन ने यहां प्रपत्ति के साथ बौद्धमत और इस्लाम के प्रभाव में अलग रूप भी धारण किया। बोद्ध मत की परंपरा यहां सिद्धों और नाथों से होती हुई संत मत तक आई। संत मत ने समाज में जीवन विरत साधु-संयासियों को खूब को प्रश्रय दिया। भक्ति आंदोलन ने न्याय और समता आधारित जीवन और व्यवस्था के लिए माहौल बनाया, लेकिन इससे शैव, शाक्त, वैष्णव जैसी संकीर्णताएं और मत-मतांतर भी बढ़े।

एक और परिवर्तन हुआ- ‘नीच समझी जाने वाली जातियों में कई पहुंचे हुए महात्मा हो गए थे, उनमें आत्मविश्वास का संचार हो गया था, पर, जैसा कि साधारणत: हुआ करता है, शिक्षा और संस्कृति के अभाव में यही आत्मविश्वास दुर्वह गर्व का रूप धारण कर गया था।’ तुलसी भक्ति आंदोलन के इन बनते-बिगड़ते रूपों से अवगत थे। उन्होंने ‘रामचरितमानस’ अपनी राह इन सबके बीच में रहकर, इनके साथ अत:क्रिया से बनाई।

यह विडंबना है कि हमारे समय में परंपरा के समर्थन में होना दकियानूसी माना जाता है। प्रतिरोध किसी स्वस्थ समाज की निरंतर या स्थायी अभिलक्षणा नहीं होती। तुलसी परंपरा के समर्थन में थे और उन्होंने उसके भीतर रहकर उसका संस्कार-परिष्कार किया। ‘रामचरितमानस’ उनके इसी संस्कार-परिष्कार के उपक्रम का जीवंत दस्तावेज है।

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