मंदिर निर्माण में गर्भ गृह बनाने का विज्ञान और रहस्य क्या है?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
विश्वकर्मा वास्तु शास्त्र’ के अनुसार मंदिर का प्रत्येक हिस्सा मानव तन के विभिन्न अंगों के समान होता है। चित्र देखकर स्पष्टतः ज्ञात होता है कि मंदिर का प्रारूप मानव शरीर से कितना मेल खाता है।
गर्भगृह’ मंदिर का सबसे महत्त्वपूर्ण व पवित्र स्थान होता है। मंदिर के इसी क्षेत्र में भगवान की मूर्ति या चित्र की स्थापना की जाती है, क्योंकि यह भगवान का निवास स्थान माना गया है।
मंदिर को मनुष्य देह से जोड़ा गया है। गर्भगृह को मस्तक के भृकुटि-स्थान से जोड़ा जाता है।
मानव देह के मस्तक के बीचों बीच जिस स्थान पर तिलक या बिंदी लगाई जाती है, जिसे आज्ञा चक्र भी कहा जाता है। इसी स्थान के भीतर ईश्वर सूक्ष्म रूप में निवास करते है, परब्रह्म परमात्मा का अंश आत्मा का निवास स्थान हमारे शरीर के ऊपरी भाग के केंद्र पर होता है।
इसी संदर्भ में गीता में कहा गया- ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
अर्थात् ईश्वर सभी जीवित प्राणियों के ह्रदय में निवास करता है। यहाँ ह्रदय से आशय आध्यात्मिक ह्रदय से है, इसी तृतीय-दिव्य नेत्र के भीतर ईश्वर निवास करता है।
वास्तविकता में इसी आंतरिक असल मंदिर के लिए बाह्य मंदिर के ‘गर्भगृह’ की ओर इशारा मात्र है। यही वैज्ञानिक- आध्यात्मिक रहस्य है कि गर्भगृह में भगवान की मूर्ति को स्थापित किया जाता है।
मंदिर के मुख्य केंद्रीय स्थल को ही ‘गर्भगृह’ या ‘मूलस्थानम’ कहा जाता है। इसी स्थल पर मुख्य देवता की मूर्ति को पूर्ण विधि-विधान के साथ शास्त्रोक्त रीति से प्रतिष्ठित किया जाता है। यह मंदिर का वह मुख्य केंद्र होता है, जहाँ पृथ्वी की विद्युत चुंबकीय तरंगें अधिकतम पाई जाती हैं।
देव मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा करते समय मूर्ति के नीचे वैदिक लिपि में लिखे मंत्रों वाली तांबे की पट्टी को भी स्थापित किया जाता है। इसके अतिरिक्त मूर्ति के ऊपर तांबे के छत्र को भी रखे जाने का विधान है। इन तांबे की पट्टी और छत्र द्वारा विद्युत चुम्बकीय तरंगों का अवशोषण और प्रकीर्णन सतत ही होता रहता है।
सामान्यतः गर्भ गृह को तीन तरफ से बंद किया जाता है, जिससे ऊर्जाओं को नियंत्रित करके उनके प्रभाव को बढ़ाया जा सके।
गर्भ गृह में दैवीय चेतना और प्राण ऊर्जा का इतना तीव्रतम प्रभाव पाया जाता है, कि यदि पवित्र ह्रदय से कोई व्यक्ति यहां उपस्थित होकर जप, पूजा, ध्यान आदि करता है तो वह क्षण भर में ही दिव्य चैतन्य प्राण शक्ति से सराबोर हो जाता है।
गर्भ गृह में विद्यमान विद्युत चुम्बकीय ऊर्जा तरंगें, यहां उपस्थित होकर जप, पूजा, ध्यान आदि करने वाले साधक के शरीर के साथ एक विशेष सामंजस्य स्थापित कर उसके शरीर में प्रवाहित होने लगती हैं। परिणामस्वरूप साधक दिव्य आलौकिक शक्ति को अपने अंदर और आसपास अनुभव करने लगता है।
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