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आखिर क्यों असमंजस में हैं सुशासन बाबू - श्रीनारद मीडिया

आखिर क्यों असमंजस में हैं सुशासन बाबू

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भाजपा को  छोड़कर कर वर्ष 2013 में पाला बदलने में सफल इसलिए हुए क्योंकि उस समय विधानसभा अध्यक्ष और राज्यपाल इनके फेवर का थें। उस समय विधानसभा अध्यक्ष हुआ करते थे जदयू के उदय नारायण चौधरी तथा राज्यपाल डी वाई पाटिल, इसके साथ ही जदयू उस समय सदन में 117 विधायकों के साथ सबसे सबसे बड़ी पार्टी थी। दल में नीतीश कुमार का एकतरफा राज था, उस समय नीतीश कुमार के कारण जदयू की पहचान होती थी, इसलिए कोई भी विधायक सपने में भी नीतीश कुमार के खिलाफ जाने का नहीं सोचते थे। कांग्रेस का समर्थन प्राप्त था, इसलिए देश में कांग्रेस की सरकार होने के कारण राज्यपाल भी नीतीश के फेवर में थे।

उल्लेखनीय हो कि 2013 में नीतीश सरकार के पक्ष में 126 वोट और विपक्ष में 24 वोट पड़े थे। भाजपा के 91 सदस्यों और लोकजनशक्ति पार्टी (एलजेपी) के एक विधायक ने सदन से वॉकआउट किया था। जदयू के 117 विधायकों, 4 निर्दलीयों, 4 कांग्रेसी विधायकों और एक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के विधायक का समर्थन मिला था। नीतीश के विश्वास प्रस्ताव के विरोध में राजद के 22 विधायकऔर दो निर्दलीय विधायक शामिल थे।

वहीं अगर 2017 की पाला बदल की बात की जाएं तो उस समय सदन में संख्याबल, विस अध्यक्ष और राज्यपाल सभी नीतीश के फेवर में थें, इसलिए पाला बदलना उनके लिए बहुत ही आसान था।

अगर 2017 पर नजर डालें तो हम पाते हैं कि 2017 में जब राजद को चमका देकर नीतीश कुमार भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाने जा रहे थे। उस समय विधानसभा अध्यक्ष जदयू का और केंद्र में मोदी सरकार होने के कारण राज्यपाल का भी कथित रूप से झुकाव एनडीए की तरफ था। ऐसे में 2017 में उन्हें फिर से मुख्यमंत्री बनने के लिए ज्यादा माथापच्ची नहीं करनी पड़ी। क्योंकि, इस समय बहुमत से ज्यादा आंकड़ा एनडीए को प्राप्त था।

अब अगर हम 2022 की बात करें, तो अब नीतीश के लिए स्थितियां 2013 और 2017 की तरह नहीं है। इस समय की सबसे बड़ी समस्या यह है कि नीतीश कुमार तीसरे नंबर की पार्टी के नेता बने हुए हैं। नीतीश कुमार की पार्टी के मात्र 45 विधायक हैं। वहीं, भाजपा सबसे बड़ी पार्टी है, साथ ही विधानसभा अध्यक्ष भी भाजपा कोटे से हैं और केंद्र में भाजपा की सरकार होने के कारण राज्यपाल की नियुक्ति भी भाजपा ने अपने पसंद के लोगों की कर रखी है, ऐसे में किसी भी परिस्थिति में यह समय नीतीश कुमार के अनुकूल नहीं है।
यही नहीं अगर बिहार की राजनीति हल्को के चर्चाओं की मानें तो नीतीश कुमार के बेबस होने का कारण यह भी बताया जाता है कि इस समय जदयू तीन धरे में बंटी हुई है। एक खेमा ललन सिंह के साथ है, तो दूसरा खेमा नीतीश कुमार के साथ तथा तीसरा खेमा आरसीपी के साथ, अब नीतीश ऐसी स्थिति में है कि वे स्वतंत्र होकर एकतरफा निर्णय नहीं ले सकते हैं, अगर निर्णय लेते हैं, तो पार्टी में बड़ी टूट हो सकती है।

अभी बिहार की राजनीति में सबसे बड़ी बात यह बिहार में कांग्रेस विधायकों को लेकर असमंजस की स्थिति है, समय-समय पर खबरें आती है कि कांग्रेस के विधायक कभी भी टूट सकते हैं। ऐसे में वर्तमान में जो राजनीतिक माहौल है इसमें एक बार फिर कांग्रेस के विधायकों के टूटने की चर्चा शुरू हो चुकी है। इसके अलावा भाजपा सत्ता प्राप्त करने के लिए हर हथकंडे को अपना सकती है।

भाजपा वह भी तरीका अपना सकती है, जो तरीका जदयू ने 2014-2015 में अपनाई थी। 2014 के अंतिम में अनुशासनहीनता के आरोप में विधानसभा अध्यक्ष ने कुछ विधायकों को निलंबित किया था, यही स्थिति या आज भी बनी हुई है। 2014 में विस अध्यक्ष ने पार्टी विरोधी गतिविधियों के कारण जदयू के अजीत कुमार (कांटी), पूनम देवी (दीघा), राजू सिंह (साहेबगंज) और सुरेश चंचल (सकरा) को बर्खास्त कर दिया गया था। इन विधायकों का झुकाव मांझी की तरफ था।

एक बात और सबसे दिलचस्प है कि अगर वर्तमान नीतीश कुमार की सरकार अल्पमत में आती है तो और सदन में सबसे बड़े दल होने के कारण भाजपा सरकार बनाने की दावा कर देगी और भले ही अल्पमत की सरकार बना कर भाजपा यहां मुख्यमंत्री बना लेती है, तो बहुमत परीक्षण में असफल होने के बाद भाजपा यह कह सकती है कि अभी जो स्थिति है ऐसे में सरकार चलाना बड़ा मुश्किल काम है और हॉर्स ट्रेडिंग की संभावना बनी हुई है। इसलिए मेरा अनुरोध है कि प्रदेश में एक बार चुनाव करा लिया जाए, इसके बाद जिस दल को बहुमत मिलेगी वह सरकार चलाएंगे। ऐसे में संभव है कि सुबे में एक बार चुनाव करा ली जाय।

एक इंटरनल सर्वे की मानें तो जदयू, राजद और कांग्रेस के कई ऐसे विधायक हैं, जो दोबारा चुनाव में जाने की स्थिति में नहीं है। इन दलों के कई विधायक और नेता तमाम तरह के मुश्किलों का सामना कर रहे हैं, ऐसे में कई विधायकों और नेताओं की पसंद भाजपा हो सकती है।

बताते चलें कि वीआईपी के विधायकों को भाजपा में विलय कराने के पीछे की मंशा यह है कि अगर भविष्य में कभी राजनीतिक उठापटक होती है, तो कानूनी रूप से सबसे बड़े दल को सरकार बनाने का मौका मिलेगा। वीआईपी के विधायकों के भाजपा में शामिल होने से पूर्व राजद बिहार विधानसभा में सबसे बड़ा दल था, लेकिन वीआईपी के विधायकों केभाजपा में शामिल होते ही अब भाजपा विधानसभा में सबसे बड़े दल के रूप में है।

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