सिविल सेवा परीक्षा में अंग्रेजी भाषा के प्रभुत्व एवं जकडऩ को खत्म करना क्यों जरूरी है?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

देश की आजादी के 75 वर्षों के लंबे दौर में वह शुभ घटना पहली बार घटी, जिसमें ‘स्वतंत्रता’ शब्द के आत्मा तक पहुंचने की ललक और ऊर्जा, दोनों का अनुभव हो रहा है। यह घटना है-राजद्रोह कानून पर सुप्रीम कोर्ट के समक्ष सरकार की ओर से पेश किया गया एक नीतिगत बयान। केंद्रीय गृह मंत्रालय ने लिखित रूप से कहा कि ‘प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का यह मानना है कि अब जब देश आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है तो हमें सभी औपनिवेशिक कानूनों को समाप्त करने की कोशिश करनी चाहिए।’ इस सराहनीय पहल के बाद मोदी सरकार का ध्यान देश के लिए सर्वोच्च नौकरशाहों की भर्ती करने वाले संघ लोकसेवा आयोग द्वारा आयोजित सिविल सेवा परीक्षा में एक औपनिवेशिक भाषा के प्रभुत्व एवं जकडऩ की ओर जाना चाहिए। जाहिर है यह भाषा अंग्रेजी है, जिसने भारत की प्रतिभा और अभिव्यक्ति को लकवाग्रस्त कर दिया है।

हालांकि 1979 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने सिविल सेवा परीक्षा के दरवाजे अंग्रेजी के अतिरिक्त कई भारतीय भाषाओं के लिए खोल दिए थे, लेकिन पूरी तरह नहीं। उस समय से लेकर अभी तक परीक्षार्थियों को अंग्रेजी भाषा के अनिवार्य प्रश्नपत्र में क्वालीफाई करना पड़ता है। यदि आप कभी इस प्रश्नपत्र को देख सकें तो आपको यह समझने में जरा भी समय नहीं लगेगा कि गैरअंग्रेजी भाषियों के लिए इस वैतरणी को पार करना आसान नहीं है।

इसके साथ ही यदि परीक्षा के अन्य प्रश्नपत्रों के ङ्क्षहदी अनुवाद को भी देखें, जो मूलत: अंगे्रजी में तैयार होते हैं तो ङ्क्षहदी के साथ किए जा रहे अन्याय को देखकर निश्चित रूप से आपको धक्का लगेगा। यह अनुवाद बेहद क्लिष्ट होता है और उसे समझना किसी के लिए भी टेढ़ी खीर है। सिविल सेवा परीक्षा में प्रश्नपत्र केवल दो ही भाषाओं-अंग्रेजी और ङ्क्षहदी में आते हैं।

स्पष्ट है कि यदि गैरअंग्रेजी भाषी युवाओं को ङ्क्षहदी या अंग्रेजी आ रही होती तो वे इन्हें ही अपना माध्यम चुनते, लेकिन जब वे अन्य किसी भाषा को माध्यम के रूप में लेते हैं तो उन्हें प्रश्नपत्र की ङ्क्षहदी ही समझ में नहीं आती। ऐसे में बाजी अपनेआप ही अंग्रेजी वालों के हाथों में चली जाती है। इसी के साथ कुछ लोगों को यह कहने का अवसर मिल जाता है कि गैरअंग्रेजी भाषी युवाओं का स्तर निम्न है।

लोग इस गलत निष्कर्ष पर विश्वास भी कर लेते हैं, क्योंकि वे इस परीक्षा में व्याप्त भाषाई अन्याय की अंदरूनी जटिलताओं से अपरिचित हैं। इसी जटिलता के कारण सिविल सेवा परीक्षा में औसतन एक हजार में से 50 छात्र ही ङ्क्षहदी माध्यम में परीक्षा देना पसंद करते हैैं और उनमें बहुत कम परीक्षा पास कर पाते हैैं। ङ्क्षहदी माध्यम से सिविल सेवा परीक्षा देने वाले परीक्षार्थी लगातार कम होते जा रहे हैं। इस वर्ष इस परीक्षा में ङ्क्षहदी माध्यम से परीक्षा देने वाले केवल दो छात्र ही प्रथम 25 में अपना स्थान बना सके हैैं। इनमें एक की रैैंकिंग 18वीं है और दूसरे की 22वीं।

पिछले लगभग आठ वर्षों से मोदी सरकार की नीतियों के चलते देश की भाषाओं को गर्व से सिर उठाकर संवाद करने का अवसर मिला है। ङ्क्षहदी भाषा के प्रचार के लिए मोदी सरकार ने संयुक्त राष्ट्र को आठ लाख डालर देने की घोषणा की है। इसी तरह इस सरकार ने अपने ईमेल में इंडिया के स्थान पर ‘भारत’ शब्द रखने का निर्णय लिया है।

इसके अलावा ‘वोकल फार लोकल’ का नारा देकर ग्रामीण उत्पादों को वैश्विक पहचान दिलाने की ऐतिहासिक पहल हुई है। आखिर ऐसे में अंग्रेजी को वैश्विक भाषा के नाम पर लोगों पर थोपने का का काम क्यों किया जा रहा है? यदि अंग्रेजी इतनी ही जरूरी है तो इसे सिविल सेवा परीक्षा में चयनित युवाओं को ट्रेनिंग के दौरान सिखाया भी तो जा सकता है, जैसे कि कैडर मिलने पर उस अधिकारी को उस राज्य की भाषा सिखाई जाती है। यहां तक कि जब भारतीय विदेश सेवा में आने वाले अधिकारियों को विदेशी भाषा सिखाई जा सकती है तो फिर भला सिविल सेवा में आने वालों को बाद में अंग्रेजी क्यों नहीं सिखाई जा सकती?

वैसे भी आज आधुनिक तकनीक ने भाषाई अनुवाद के काम को तो एकदम ही सरल एवं प्रयासहीन बना दिया है। कुछ दिनों पहले ही गूगल ने संस्कृत और भोजपुरी भाषाओं तक में अनुवाद की सुविधा उपलब्ध कराई है। इसने विश्व स्तर पर भाषा की दीवारों को ध्वस्त कर दिया है। आखिर हमारे यहां यह दीवार क्यों अभी तक इतनी मजबूत बनी हुई है?

एक अत्यंत महत्वपूर्ण तथ्य और। अभी उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों एवं मुख्यमंत्रियों के संयुक्त सम्मेलन में प्रधान न्यायाधीश एनवी रमणा ने न्याय के भारतीयकरण का विचार रखा। इस अवसर पर प्रधानमंत्री ने भी स्थानीय भाषा में न्याय देने की बात कही। ये जो विचार कानून की भाषा के बारे में रखे गए, वे प्रशासन के मामले में तो और अधिक गंभीरता से रखे जाने चाहिए, क्योंकि प्रशासक तो प्रत्यक्ष रूप से जन-जन से जुड़े रहते हैं। वास्तव में भारतीय प्रशासन के भी भारतीयकरण की बहुत जरूरत है। इसकी पूर्ति तभी होगी, जब भाषा संबंधी औपनिवेशिक मायाजाल को भी काटकर फेंका जाएगा।

मोरारजी देसाई ने हमें ‘भाषाई डोमिनियन’ दिलाया था। अब आजादी के इस अमृतकाल में सभी गैरअंग्रेजी भाषियों को भाषा संबंधी पूर्ण स्वतंत्रता देने की आवश्यकता है। हालांकि नौकरशाही इसमें बाधा पैदा करने की कोशिश करेगी, क्योंकि वर्तमान भाषाई व्यवस्था कुछ लोगों को एक अप्रत्यक्ष विशेषाधिकार देती है। जो सरकार अनुच्छेद 370 को समाप्त करने का साहस कर सकती है, वही अंग्रेजी भाषा की प्रभुता को भी खत्म कर सकती है।

 

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