जाति आधारित गणना से क्या लाभ होगा?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

बिहार में लगभग नौ दशक बाद सभी जातियों की गिनती होने जा रही है। इसमें यह बताया जाएगा कि कौन किस जाति का है। किस जाति की कितनी संख्या है। किस जाति के लोग कितने संपन्न हैं और किस जाति के लोग कितने विपन्न। पिछली बार वर्ष 1931 की जनगणना के साथ विभिन्न जातियों की जनसंख्या का सर्वे किया गया था। उसके बाद कभी इसकी जरूरत नहीं समझी गई। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देश में जब फिर से जनगणना शुरू हुई तो उसमें से जाति का बिंदु ही हटा दिया गया।

मगर राजनीतिक दलों की पहल से बिहार में जातीय समाजशास्त्र के पन्ने फिर से पलटे जा रहे हैं। कबीर दास की उस कविता का भावार्थ पलटने जा रहा है, जिसमें उन्होंने करीब पांच सौ वर्ष पहले कहा था- जात न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान। संबंधित राजनीतिक दलों के मकसद पर सवाल खड़े हो सकते हैं, लेकिन परिणति पर कोई संशय नहीं रह गया है।

जनगणना का आरंभ : आगे बढ़ने से पहले वर्ष 1931 की जनगणना के जाति आधारित आंकड़ों पर गौर करना आवश्यक है। अपने देश में जनगणना की शुरुआत ब्रिटिश काल में वर्ष 1861 में हुई थी। इसमें विभिन्न जातियों के लोगों की संख्या भी गिनी जाती थी। तबसे लेकर वर्ष 1931 तक कुल आठ बार जनगणना हुई और इस दौरान हर बार राष्ट्रीय स्तर पर जातियों की संख्या भी गिनी गई। इसका उद्देश्य यह पता करना होता था कि किस जाति के लोगों की संख्या कितनी है। बाद में अफवाह उड़ा दी गई कि अंग्रेजी हुकूमत इसी के आधार पर लोगों से व्यवहार करेगी।

कुलीन लोगों को शासन में उच्च स्थान प्राप्त होगा और निचले तबके के लोगों को उपेक्षित या कमतर मान लिया जाएगा। इसका असर यह हुआ कि कई जाति समुदाय स्वयं को उच्च वर्ग का बताने लगे। तब आज की तरह पिछड़े तबके के लोगों को नौकरियों में विशेष संरक्षण या आरक्षण देने की बात नहीं थी। इसलिए कई जातियों में स्वयं को उच्च वर्ग में शामिल कराने की होड़ सी चल निकली। वे अपनी जाति को दूसरी जातियों से श्रेष्ठ बताने लगे। यह वही दौर था जब संयुक्त बिहार के झारखंड क्षेत्र में निवास करने वाली कुड़मी (कुर्मी से अलग) जाति की गिनती जनजाति समुदाय में होती थी।

श्रेष्ठता जताने के प्रयास में कुड़मी ने अपनी जातीय स्थिति में परिवर्तन की लड़ाई लड़ी। आल इंडिया कुर्मी क्षत्रिय महासभा ने 1922 में ब्रिटिश हुकूमत से देश के सभी कुर्मियों (कुड़मी समेत) के लिए क्षत्रिय स्टेटस की मांग की। इस महासभा ने वर्ष 1931 की जनगणना के पहले केंद्र सरकार को ज्ञापन भी दिया।

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परिणामस्वरूप स्वतंत्रता के बाद 1951 में जब जनगणना हुई तो झारखंड क्षेत्र में इसे अनुसूचित जनजाति की सूची से बाहर कर दिया गया। हालांकि अब वही कुड़मी समुदाय स्वयं को फिर से जनजाति समूह में शामिल करने के लिए आंदोलन कर रहा है। बिहार में भी लोहार समेत कई अन्य जातियां ऐसी ही मांग कर रही हैं। यह इसलिए हो रहा है कि आजादी के बाद संविधान में सामाजिक रूप से दबे-पिछड़े वर्ग के लोगों को विशेष संरक्षण देने की व्यवस्था की गई है।

कभी जाति पर हावी थी राष्ट्रीयता : ब्रिटिश राज में आखिरी जनगणना वर्ष 1931 में हुई थी, जिसमें सभी जातियों की आबादी के आंकड़े भी पूर्ववत निकाले गए थे। उस समय बिहार में कुल 24 जातियों की ही आबादी बताई गई थी। वर्ष 1941 में द्वितीय विश्वयुद्ध के कारण जनगणना नहीं हो सकी। आजादी के बाद 1951 की जनगणना में जाति के बिंदु को विलोपित कर दिया गया।

इसके पीछे माना जाता है कि हमारे संविधान निर्माताओं के सामने जाति से बड़ा राष्ट्रीयता का मुद्दा था। संविधान निर्माण सभा के सदस्यों ने देश की तरक्की के लिए जात-पात की भावना से ऊपर उठकर काम करना जरूरी बताया था। जाहिर है, जाति के ब्योरे की जानकारी का आज भी एकमात्र स्रोत 1931 की जनगणना ही है, जिसके आंकड़े अब प्रासंगिक नहीं हो सकते हैं, क्योंकि तब ओडिशा के साथ-साथ झारखंड भी बिहार में था।

ऐसे में राजद समेत बिहार के तमाम राजनीतिक दलों की दलील है कि विकास की योजनाएं बनाने के लिए जातियों के नए आंकड़ों की जरूरत है। राज्य सरकार की भी ऐसी ही राय है कि नौ दशक पुराने आंकड़ों से विकास की नई योजनाएं बनानी पड़ रही हैं, जिसके चलते विसंगतियां आती हैं।

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार एवं लालू प्रसाद का मानना है कि जाति आधारित गणना के जरिए वैसे लोगों का पता लगाया जाएगा, जो विकास से वंचित हैं। फिर उन्हें भी उस स्तर तक विकसित करने का प्रयास किया जाएगा, जितना ऊंची जातियों के लोग विकसित हैं। जातियों की संख्या जानकर समाज कल्याण की योजनाएं बनाई जाएंगी। पिछड़े वर्ग को संख्या के अनुपात में आरक्षण दिया जाएगा। गणना प्रत्येक दस वर्ष पर होगी, जिससे देखा जाएगा कि किस जाति के लोगों ने कितनी तरक्की की और आरक्षण की दरकार किसे है और किसे नहीं। इसीलिए सरकार का जोर प्रत्येक जाति-धर्म के लोगों का पूरा ब्योरा जुटाने पर है। इतना साफ है कि नीतीश कुमार की नीति और नीयत पर सवाल नहीं उठाया जा सकता है, लेकिन इसके परिणाम से जुड़े साइड इफेक्ट को भी खारिज नहीं किया जा सकता।

युवा भावना को समझना जरूरी : इसमें कोई दो राय नहीं कि हमारे नौजवानों ने जाति का ककहरा नहीं पढ़ा है। एक सर्वे रिपोर्ट के मुताबिक बिहार के लगभग 10 प्रतिशत युवा अंतरजातीय विवाह के पक्षधर हैं। हाल के वर्षो में ऐसे लोगों की संख्या तेजी से बढ़ी भी है, जो जाति-धर्म की परवाह किए बिना दूसरे समुदाय में अपनी पसंद से शादी कर रहे हैं। जातिवाद ने बिहार को काफी नुकसान पहुंचाया है।

ऐसे में राजनीतिक दलों को समझना होगा कि युवा पीढ़ी क्या चाहती है और वे उन्हें क्या देना चाह रहे हैं। युवाओं को रोजगार चाहिए। उद्योग-धंधे के लिए उन्हें अपने आसपास ही मौके चाहिए। बेहतर स्कूल-कालेज और उनमें नियमित सत्र चाहिए। भ्रष्टाचार मुक्त पारदर्शी प्रतियोगी परीक्षाएं और समदर्शी सरकार चाहिए, लेकिन मिलने क्या जा रहा है? राज्य सरकार को इसके लिए रोडमैप बनाना होगा। केवल जाति गिनने से विकास नहीं हो जाएगा। युवाओं को जाति के दलदल से दूर रखने के लिए पूरी तरह से सजग रहना होगा, ताकि अगली संततियां दकियानुसी विचारों से दूर रहें। जातिवाद ने बिहार का पहले ही बहुत अहित कर दिया है।

नया बिहार नई पीढ़ी के हाथ में आने वाला है। लोग जागरूक हो रहे हैं और जाति व्यवस्था को खत्म करने की आवश्यकता महसूस कर रहे हैं। ऐसे में अगर हम पिछली सदी में लौट गए तो विकास के सूचकांक में बिहार पीछे छूट जाएगा। जाति जानकर कितना होगा विकास : विकास के मुद्दे पर विचार अलग-अलग हो सकते हैं। फामरूला भी भिन्न हो सकता है, लेकिन हैरत की बात है कि बिहार के लगभग सभी राजनीतिक दलों का मानना है कि विकास के लिए जातियों की संख्या जानना जरूरी है।

भारतीय संविधान के शिल्पकार भीमराव आंबेडकर का विचार अलग था। उन्होंने कहा था कि भारत को अगर अग्रणी राष्ट्रों के समूह में शामिल करना है तो सबसे पहले जाति व्यवस्था को खत्म करना होगा। जेपी यानी जयप्रकाश नारायण का भी ऐसा ही विचार था। तभी तो उन्होंने संपूर्ण क्रांति के साथ जाति व्यवस्था खत्म करने का नारा दिया था।

जाति आधारित गणना के पक्षधर दलों के तर्को के आगे आंबेडकर और जेपी के विचार अप्रासंगिक दिख रहे हैं। किंतु ऐसे तर्को को पूरी तरह सच नहीं ठहराया जा सकता है, क्योंकि आजादी के बाद भी प्रत्येक दस वर्षो के अंतराल पर होने वाली जनगणना में हम लगभग एक तिहाई आबादी की जातियां गिनते आए हैं। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार बिहार में मुस्लिमों की 16.87 प्रतिशत, अनुसूचित जाति की 15.70 प्रतिशत एवं अनुसूचित जनजाति की लगभग एक प्रतिशत आबादी है। जो लोग जाति आधारित जनगणना के पक्ष में नहीं हैं, उनका सीधा सवाल राजनीतिक दलों से है कि जिन जातियों और समूहों की संख्या प्रत्येक दस वर्ष पर गिनी जाती रही है, उनका अब तक कितना भला हो पाया है? उनके लिए कौन-कौन सी और कितनी योजनाएं बनाई गईं? उनसे उनका कितना विकास हो पाया। सच यह है कि बिहार में जिन तबकों की गिनती होती रही है, वे आज भी उन जातियों के मुकाबले ज्यादा पिछड़े हैं, जिनकी गिनती नहीं हो पाती है।

बिहार में जातियों एवं उपजातियों का घालमेल है। हिंदुओं के साथ-साथ मुस्लिमों की जातियां भी गिनी जानी है, जो इतना आसान भी नहीं होगा। जाति आधारित गणना की पहल पर भाजपा भले ही राज्य सरकार के साथ खड़ी दिख रही है, किंतु पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष डा. संजय जायसवाल ने जो सवाल उठाए हैं, उसकी अनदेखी भी नहीं की जा सकती है। उनकी चिंताओं में तीन प्रमुख बिंदु शामिल हैं, जिन पर गणना के दौरान सतर्क रहने की जरूरत होगी। रोहिंग्या एवं बांग्लादेशी निवासियों के नाम अगर गणना में शामिल हो गए तो बाद में इसी आधार पर नागरिकता का दावा भी कर सकते हैं। बिहार के कई इलाकों में राज्य सरकार ने ब्राह्मणों की कई उपजातियों को भी पिछड़ा एवं अति पिछड़ा वर्ग में शामिल कर रखा है। इसमें भट्ट एवं गोस्वामी ब्राह्मण का उदाहरण लिया जा सकता है।

नई गिनती में उन्हें किस श्रेणी में रखा जाएगा, यह भी एक अहम सवाल है। ऐसी जातियों की श्रेणी बदलने का खतरा बरकरार रहेगा। इसी तरह सीमांचल में मुस्लिम समाज में भी कई ऐसी जातियां हैं, जिन्हें लेकर भ्रांतियां बनी रहती हैं। शेख एवं सैयद जाति के लोग अगड़े की श्रेणी में गिने जाते हैं, लेकिन ऐसी शिकायतें भी आती रहती हैं कि सरकारी सुविधाओं का लाभ लेने के लिए कुछ लोग शेखोरा और कुल्हरिया जाति में शामिल हो जाते हैं।

ऐसा होने पर पिछड़े वर्ग की मुस्लिम जातियों के साथ अन्याय होगा। स्पष्ट है कि गिनती में लगे कर्मचारियों के सामने बड़ी चुनौती उप-जातियों की संख्या को लेकर आने वाली है। बिहार सरकार ने कह रखा है कि सभी धर्मो की उप-जातियां भी गिनी जाएंगी। केंद्र सरकार के आंकड़ों के अनुसार देश में कुल 3747 जातियां हैं, लेकिन वर्ष 2011 के सर्वे के अनुसार लगभग 4.28 लाख से ज्यादा जातियों एवं उपजातियों का ब्योरा सामने आया है। जाहिर है, बिहार में भी जातियों और उप-जातियों की संख्या बढ़ सकती है। उन्हें क्षेत्र के हिसाब से कहां किस श्रेणी में रखना है, यह कम चुनौतीपूर्ण नहीं होगा

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