क्या जी-7 में भारत की भूमिका अहम होगी?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
जी-7 की बैठक ऐसे समय में हो रही है, जब विश्व के समक्ष कोरोना महामारी का असर, वैश्विक मुद्रास्फीति, आपूर्ति शृंखला की बाधाएं, रूस-यूक्रेन युद्ध, अन्य भू-राजनीतिक संकट, खाद्य संकट, ऊर्जा सुरक्षा, जलवायु परिवर्तन जैसी अनेक गंभीर चुनौतियां हैं. उल्लेखनीय है कि जर्मनी के नेतृत्व ने पहले इस सम्मेलन में जलवायु के मुद्दे को प्राथमिकता देने का निर्णय किया था, किंतु यूक्रेन पर रूस के हमले ने यूरोप और विश्व के लिए तात्कालिक समस्याएं पैदा कर दीं.
इस दो दिवसीय बैठक का एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि इसमें वैश्विक दक्षिण के अनेक लोकतंत्रों के नेता भाग ले रहे हैं. जर्मनी ने भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अलावा अर्जेंटीना, इंडोनेशिया, सेनेगल और दक्षिण अफ्रीका के नेताओं को भी सम्मेलन में आमंत्रित किया है. स्वाभाविक रूप से इस सम्मेलन का प्रमुख विषय यूक्रेन पर रूसी हमले से उत्पन्न खाद्य एवं ऊर्जा सुरक्षा है. भारत को आमंत्रित करने से यह स्पष्ट संकेत मिलता है कि दुनिया के सबसे धनी और विकसित सात देशों के इस समूह ने समझा है कि अंतरराष्ट्रीय संबंधों में जो भावी परिवर्तन होंगे, उनके संदर्भ में भारत को विश्वास में लेना और उसकी सकारात्मक भागीदारी सुनिश्चित करना आवश्यक है.
रूस-यूक्रेन मसले पर भारत का जो रूख रहा है, उसको लेकर कहा जा रहा था कि विकसित देश भारत पर दबाव बनाने की कोशिश करेंगे, लेकिन जी-7 के शिखर सम्मेलन में भारत को आमंत्रित करना यह दर्शाता है कि भारत के ऊपर किसी भी तरह का दबाव नहीं है. भारत ने हमेशा यह कहा है कि इस मुद्दे पर वह तटस्थ है और इसके पीछे मुख्य वजह हमारे राष्ट्रीय हित हैं.
इस आयाम को विकसित देशों और शेष विश्व को भी समझना होगा. भारत ने कभी भी हमले को उचित नहीं ठहराया है और परस्पर संवाद एवं शांतिपूर्ण तरीके से विवाद को सुलझाने का आह्वान करता रहा है. प्रधानमंत्री मोदी को इस सम्मेलन में बुलाने से यह इंगित होता है कि पश्चिम ने भी भारत के रुख को समझा है. इससे यह भी संकेत मिलता है कि समूह के देश इस वास्तविकता को भी बखूबी समझ रहे हैं कि भविष्य में जो भी पुनर्निर्माण होना है या खाद्य संकट का समाधान निकालना है, इसमें भारत की भूमिका बहुत अहम है.
समूह इस वास्तविकता से भी अवबत है कि आनेवाले समय जो चुनौतियां विकसित देशों के सामने आ सकती हैं, खासकर रूस के रवैये के बाद, उनका सामना करने में भी भारत के सहयोग की आवश्यकता होगी. यह भी जगजाहिर हो चुका है कि चीन भी अपने वैश्विक वर्चस्व के विस्तार में जुटा हुआ है. चीन पर पश्चिमी देशों का जो भरोसा रहा था, वह टूट चुका है. इस पहलू को देखा जाए, तो पश्चिम को भारत के साथ की जरूरत है.
जिस गति से वैश्विक राजनीतिक परिदृश्य में बदलाव हो रहा है, उसमें विकसित देश भारत को अनदेखा कर अपनी स्थिति को मजबूती नहीं दे सकते हैं. पिछले कुछ समय से भारत की कूटनीतिक सक्रियता में, चाहे वह अंतरराष्ट्रीय संदर्भ में हो या क्षेत्रीय संदर्भ में, बड़ी तेजी आयी है. विश्व पटल पर भारत को इसी तरह से बिना किसी दबाव में आए हुए अपनी कूटनीतिक स्थिति को विस्तार देना चाहिए. इसे अन्य देश भी रेखांकित कर रहे हैं और जी-7 का आमंत्रण उसकी पुष्टि करता है.
निश्चित रूप से अनेक मुद्दों पर सहमति-असहमति का सिलसिला चलता रहता है. कुछ समय पहले जब भारत ने गेहूं के निर्यात पर प्रतिबंध लगाया था, तो जर्मनी और पश्चिम के कुछ अन्य देशों ने भारत को इस पर पुनर्विचार का आग्रह किया था. उनका कहना था कि इससे वैश्विक खाद्य संकट और बढ़ जायेगा. संभव है कि इस बैठक में प्रधानमंत्री मोदी को निर्यात प्रतिबंध हटाने या उसमें कुछ ढील देने का आग्रह पश्चिमी देशों की ओर से किया जाए.
वैसे भी भारत ने कहा है कि अगर किसी सरकार की ओर से गेहूं आयात करने का अनुरोध आता है, उस पर सकारात्मक ढंग से विचार किया जायेगा. यह निर्णय भारत ने अपनी खाद्य सुरक्षा को देखते हुए लिया है, क्योंकि अनाज के कम पैदावार की आशंका जतायी जा रही है और मुद्रास्फीति भी बढ़ी हुई है. हमारे पास समुचित मात्रा में अनाज उपलब्ध है और कोई खाद्य संकट नहीं है. ऐसे में भारत वैश्विक संकट के समाधान में मदद करने की स्थिति में है. वैसे भी निर्यात पर रोक कोई स्थायी निर्णय नहीं है.
जी-7 की इस बैठक से ठीक पहले क्वाड और ब्रिक्स समूहों के शिखर सम्मेलन हुए हैं. भारतीय नेतृत्व की भागीदारी इन तीनों आयोजनों में रही है. जैसा कि ऊपर उल्लिखित किया गया है, भारत ने विभिन्न मंचों पर संतुलित, सकारात्मक और सक्रिय भूमिका निभायी है तथा स्वतंत्र विदेश नीति पर अग्रसर होने का प्रयास किया है.
रूस-यूक्रेन संकट के प्रारंभिक दिनों में पश्चिमी देशों ने भारत को अपने पाले में लाने की बड़ी कोशिश की थी और एक प्रकार से दबाव बनाने का भी प्रयास हुआ था, पर भारत दुनिया को यह समझा पाने में सफल रहा है कि उसके लिए उसके रणनीतिक, आर्थिक और राजनीतिक हित प्राथमिक हैं.
क्वाड बैठक में जो बड़ी आर्थिक पहल हुई है, उसमें भारत पूरी तरह से समूह के अन्य देशों के साथ खड़ा है. क्षेत्रीय व्यापार गठबंधन के माध्यम से चीन अपने व्यावसायिक वर्चस्व को जिस तरह बढ़ाने में लगा हुआ है, उसके बरक्स क्वाड की आर्थिक पहल महत्वपूर्ण हो जाती है, जिसके तहत हिंद-प्रशांत क्षेत्र में बड़े पैमाने पर इंफ्रास्ट्रक्चर विकसित करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है.
भारत की सक्रियता आक्रामक नहीं है. चीन के विरुद्ध भी भारत का रवैया आक्रामक नहीं रहा है. चीन ने ही सीमा विवाद को लेकर उन्मादी व्यवहार किया है. भारत सोची-समझी नीति के तहत क्वाड में भी उतनी ही दिलचस्पी ले रहा है, जितनी ब्रिक्स में. क्षेत्रीय स्तर पर भारत सक्रिय है. मालदीव, श्रीलंका, नेपाल आदि पड़ोसी देशों के मामलों में यह देखा जा सकता है.
कुछ समय पहले बिमस्टेक समूह की भी बैठक हुई थी, जिसमें प्रधानमंत्री मोदी भी शामिल हुए थे. विदेश मंत्री एस जयशंकर कई देशों की यात्रा कर चुके हैं और भारत की स्थिति को उन्होंने सफलतापूर्वक सामने रखा है. विकसित देश भारत की सक्रियताओं और स्वतंत्र कूटनीति के महत्व को समझ रहे हैं तथा भारत के सहयोग की आवश्यकता से भी वे आगाह हैं. भारत भी सभी देशों के साथ सहकार की भावना से संबंध स्थापित करना चाह रहा है.
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