क्या दुनिया व भारत मंदी की ओर बढ़ रहा है?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

जर्मनी की अध्यक्षता में आयोजित जी-7 की बैठक में भारत को इंडोनेशिया, अर्जेंटीना, सेनेगल और दक्षिण अफ्रीका के साथ आमंत्रित किया गया था. इस सम्मेलन में अनेक मुद्दे, जैसे खाद्य सुरक्षा, स्वास्थ्य, जलवायु परिवर्तन, आतंकवाद, लैंगिक समानता आदि थे. यहां तक कि लोकतंत्र भी एक मसला था. परंतु सभी के जेहन में जो चिंता सबसे ऊपर रही, वह यूक्रेन में युद्ध और इसका वैश्विक अर्थव्यवस्था पर प्रभाव था.

सम्मेलन में हिस्सा लेने के लिए जर्मनी जाने से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्वीट कर कहा था कि वे विश्व नेताओं से मिलेंगे, पर उन्होंने अर्थव्यवस्था को लेकर अंतरराष्ट्रीय सोच का भी जायजा जरूर लिया होगा. भारत की स्थिति ऊर्जा स्रोतों के लिए आयात पर निर्भर होने के नाते अतिसंवेदनशील है. तेल की कीमतें लगातार उच्च स्तर पर बनी हुई हैं. भारत तेल खरीद पर रूस द्वारा दी जा रही भारी छूट का लाभ उठाने का इच्छुक है. ऐसा करने पर जी-7 के सदस्य देश नाराज होंगे, जो रूस का संपूर्ण बहिष्कार चाहते हैं ताकि उसके ऊपर यूक्रेन से पीछे हटने के लिए आर्थिक दबाव बनाया जा सके.

लेकिन जर्मनी समेत यूरोप यह अहसास कर रहे हैं कि रूस पर उनकी ऊर्जा निर्भरता कितनी अधिक है. कोयला उत्पादित ऊर्जा का विकल्प अपनाना आसान भी नहीं है और यह वांछनीय भी नहीं है. इस अजीब भू-राजनीतिक स्थिति में कुछ लोग जर्मनी की पूर्व चांसलर और सम्मानित नेता एंगेला मर्केल की समझदारी पर सवाल उठा रहे हैं, जिनके लंबे कार्यकाल में रूस से जर्मनी का ऊर्जा जुड़ाव बहुत सघन हुआ था.

अब जर्मनी में गैस की आपूर्ति सीमित कर दी गयी है, जिससे मुश्किलें बढ़ रही हैं. यूक्रेन संघर्ष की वजह से ऊर्जा के अलावा खाद्य वस्तुओं के मूल्य भी बहुत अधिक हो गये हैं. मुद्रास्फीति अन्य उपभोक्ता वस्तुओं और निर्माताओं की लागत को भी प्रभावित कर रही है. मुद्रास्फीति का एक अतिरिक्त कारण चीन के लॉकडाउन भी हैं. जीरो-कोविड नीति के तहत लगी कड़ी पाबंदियों की वजह से चीनी बंदरगाहों पर पश्चिम में आपूर्ति करनेवाले जहाजों का अंबार लग गया.

इसका नतीजा यह हुआ कि पश्चिमी अर्थव्यवस्थाओं में मुद्रास्फीति और सामानों की कमी के लिए अलग-अलग कारणों से चीन और रूस को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है. दोनों देशों के राष्ट्रपतियों को जी-7 में आमंत्रित नहीं किया गया. समूह की बैठक ने रूस और चीन के रवैये के बरक्स सभी लोकतंत्रों के एकजुट होने का संदेश देने का भी प्रयास किया है. लेकिन यह आसान नहीं है. भारत रूस से सस्ती दरों पर तेल आयात की आजादी चाहता है और वह किसी बहिष्कार में शामिल नहीं होगा.

रूस कई दशकों से सैन्य साजो-सामान और तकनीक की आपूर्ति में भरोसेमंद सहयोगी रहा है. गलवान घाटी में हुई झड़प और मौतों के बाद सीमा विवाद के समाधान के लिए चीन से भी भारत की लगातार उच्चस्तरीय बातचीत का सिलसिला (अब तक 15 ऐसी बैठकें हो चुकी हैं) चल रहा है. भारत में चीन के आयात में बढ़ोतरी के साथ लगातार द्विपक्षीय व्यापार के मजबूती से बढ़ने के आसार हैं.

वैश्विक अर्थव्यवस्था को लेकर चिंताएं बढ़ती जा रही हैं. विश्व बैंक ने इस वर्ष वैश्विक आर्थिक वृद्धि के अनुमान को 4.1 प्रतिशत से घटाकर 2.9 प्रतिशत कर दिया है. इस कमी का अर्थ यह है कि आमदनी में लाखों करोड़ों डॉलर की कमी आयेगी. अमेरिका और यूरोप के मंदी की स्थिति में जाने की आशंका है यानी लगातार दो तिमाहियों में सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) में गिरावट आयेगी.

कई अर्थशास्त्रियों ने भारत की आर्थिक वृद्धि के अनुमानों में एक से दो प्रतिशत की कमी की है. इसका मतलब यह होगा कि राष्ट्रीय आमदनी में तीन से चार लाख करोड़ की कमी होगी तथा 50 से 80 लाख रोजगार के अवसर घटेंगे. भारत को अगले साल भी निर्यात में बड़ी बढ़त की अपेक्षा है. वस्तुओं के निर्यात को 500 अरब डॉलर के करीब ले जाने की उम्मीद की जा रही है. लेकिन ऐसा होने के लिए यह जरूरी है कि दुनिया की अर्थव्यवस्था आशंकाओं से कहीं ज्यादा बेहतर हालत में हो.

चूंकि, अमेरिका, ब्रिटेन और भारत समेत अधिकतर अर्थव्यवस्थाएं उच्च मुद्रास्फीति की चुनौती का सामना कर रही हैं, अधिकतर केंद्रीय बैंक ब्याज दरें बढ़ा रहे हैं और मुद्रा की आपूर्ति को नियंत्रित कर रहे हैं. इस कदम की वजह से निवेशक (विशेषकर शेयर बाजार के), स्टार्ट अप कंपनियों को वित्त मुहैया कराने वाले, कोष प्रबंधक आदि जोखिम उठाने से बचने लगे हैं.

बीते छह माह में विदेशी निवेशकों ने भारत से 40 अरब डॉलर निकाल लिया है. ऐसे में अचरज की बात नहीं कि शेयर बाजार में गिरावट आ गयी है. जोर-शोर से जारी हुए जीवन बीमा निगम के शेयरों के दाम घटे हैं और इसके बाजार मूल्य में करीब 1.2 लाख करोड़ रुपये की कमी आयी है. इसका मुख्य कारण विदेशी निवेशकों का रुख है. घरेलू खुदरा निवेशक भी भागीदारी घटा रहे हैं. नियमित निवेश योजनाओं में इनके योगदान से शेयर बाजार में हर माह हजारों करोड़ रुपये आते थे.

विश्व मुद्रास्फीतिजनित मंदी की ओर बढ़ रहा है और भारत इसके प्रभाव से अछूता नहीं रह सकता है. इससे घरेलू मांग और वित्तीय सहयोग के आधार पर आगे बढ़ना होगा. मुद्रा की आपूर्ति अभी तो नियंत्रित की जा रही है, पर अगर इससे मुद्रास्फीति कम होती है, तो कुछ राहत मिल सकती है. अच्छे मानसून की बहुत जरूरत है. सामान्य मानसून के हिसाब से जून में एक-चौथाई बारिश ही हुई है.

ऐसी स्थिति में महाराष्ट्र जैसे बड़े औद्योगिक राज्य की राजनीतिक अस्थिरता भी चिंताजनक है. अस्थिरता का अर्थ है निष्क्रियता या निर्णय प्रक्रिया का लकवाग्रस्त होना क्योंकि नीति निर्माता राजनीतिक स्थिति को संभालने में व्यस्त हैं. नये संयंत्रों, कारोबारों, या परियोजनाओं के निजी निवेशक भी अभी शायद रुकना पसंद करें. ये सभी कारक धीमी वृद्धि का माहौल बनाते हैं.

हालांकि मंदी के दौर में प्रवेश कर रहे पश्चिमी अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में भारत में सकारात्मक वृद्धि होगी, पर यह शायद उतना अधिक नहीं होगा, जितने की जरूरत है. यह एक विकासशील अर्थव्यवस्था के लिए राहत की बात है क्योंकि रोजगार और वृद्धि आवश्यक है. नीति निर्माताओं के लिए आगामी छह से 12 महीने कठिन होंगे.

 

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