समस्याओं के शाश्वत समाधान बताते हैं गोस्‍वामी तुलसीदास

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गोस्वामी तुलसीदास की जयंती पर विशेष आलेख

✍️गणेश दत्त पाठक, श्रीनारद मीडिया, सेंट्रल डेस्‍क:

गोस्वामी तुलसीदास ने मानस की रचना के माध्यम से केवल भारतीय संस्कृति के मूलभूत सनातनी सिद्धांतों को ही सामने नहीं लाया। अपितु भारतीय समाज की समस्याओं पर भी उनकी नजर रही। लेकिन वे आम साहित्यकारों की भांति केवल समस्या और यथार्थ को बताते नहीं अपितु समस्याओं के शाश्वत समाधान की सीख देते भी नजर आते है।

सभ्यता की शुरुआत से लेकर आज तक। समय का दौर बदला, मूल्यों के आयाम बदले, तकनीकी कलेवर में परिवर्तन आता गया, लेकिन समस्याएं मौजूद पहले भी थीं, समस्याएं मौजूद आज भी है। समस्याओं से पीड़ित रहना मानवता की बड़ी चुनौती भी रही है। साहित्य समाज का दर्पण रहता आया है। साहित्यकार समाज की समस्याओं पर लेखनी चलाते रहे हैं। लेकिन तुलसी उन विरल साहित्यकारों की श्रेणी में आते हैं जो सिर्फ समस्या पर नहीं समाधान पर भी विशेष ध्यान देते हैं। इस संदर्भ में तुलसीदास का सृजनात्मक संसार एक शानदार संदेश हो जाता है।

सामान्य तौर पर तुलसीदास भगवान राम के संदर्भ में ही ध्यान में आते हैं। मानस के सनातनी तरंग में उनकी प्रभु श्रीराम में अद्भुत श्रद्धा भावविभोर कर देती है। लेकिन तुलसी अपने राम को भी मर्यादा पुरुषोत्तम के ही कसौटी पर रखते हैं। अखंड कोटि ब्रह्माण्ड नायक श्री हरि को भी मर्यादा के आभूषण से सुशोभित करते तुलसी मर्यादा के भाव को विशेष तौर पर सुप्रतिष्ठित कर समाज को एक शाश्वत संदेश देते दिखते हैं। मर्यादा ही वह भाव हैं जो मानवीय भावनाओं और आकांक्षाओं पर नैतिक नियंत्रण स्थापित करती है। यदि हम इच्छाओं पर नियंत्रण पा लें और मर्यादा में रहने का तुलसी की सीख का पालन करें तो फिर काफी समस्याओं और चुनौतियों का सामना हम सफलतापूर्वक कर सकते हैं।

‘ जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी,
सोई नृप अवसि नरक अधिकारी।’
अर्थात् जिस राजा के राज्य में प्रजा दुखी है, परेशान है और अभावग्रस्त जीवन यापन कर रही है, वह राजा निश्चय ही नरक का अधिकारी है। तुलसी की ये पंक्तियाँ आज के शासक वर्ग को एक बड़ा संदेश देती दिखती है। यह सही है कि तुलसी दास ने जिस समय रामचरित मानस की रचना की उस समय भारत की दशा अत्यंत दयनीय थी, विदेशी शासकों द्वारा निर्दोष जनता पर अत्याचार किये जा रहे थे और भारत की भूमि आक्रमणकारियों के दमन से त्रस्त थी। तुलसी ने इस विषम परिस्थिति में रामचरित मानस लिखकर इस प्रकार की ज्योति फैलाई कि न केवल अपने समय में बल्कि बाद के सालों में आज भी वह भारतीय संस्कृति का संरक्षक बना है।

गोस्वामी तुलसीदास ने समाज, रिश्तों, दायित्यों, कर्तव्यों के आदर्श स्वरूप का निरूपण किया। आदर्श वैसे तो आदर्श ही रहता है लेकिन व्यवहारिक धरातल पर आदर्श कम से कम एक स्तरीय मानदंड का काम तो अवश्य करता है। दैहिक दैविक भौतिक तापा रामराज्य न कहियु व्यापा कहने के साथ राज्य के आदर्श स्वरूप रामराज्य की संकल्पना पर बात करते तुलसी दिखते हैं। यदि लोककल्याणकारी राज्य के संदर्भ में शासक मानस में शासन के आदर्श मानदंडों के संदर्भ में सीमित स्तर पर भी प्रयास कर तो जनता का बहुत कल्याण हो सकता है। परिवार के मामले में संबंधों की मर्यादा के जिस भाव को तुलसी मानस में बताते हैं। उसे मानदंड बनाकर कुछ ही प्रयास कर लिया जाए तो परिवार सुखद हो सकता है। सुखद परिवार से सुखद समाज बन सकता है और सुखद समाज ही सुखद राष्ट्र का आधार भी बनता है। इसलिए तुलसी का आदर्श एक सुव्यवस्थित मानदंड के आधार पर ही प्रतिष्ठित दिखता है।

गोस्वामी तुलसीदास का समन्वय का संदेश तो सार्व कालिक और सार्वभौमिक है ही। आज के दौर में समाज में जितनी समस्याएं और चुनौतियां दिख रहीं है अगर उनके संदर्भ में समन्वय और सामंजस्य पर ध्यान दिया जाए तो वे सारी समस्याएं दूर हो सकती हैं और मानवता का अधिकतम कल्याण सुनिश्चित हो सकता है। हर काल, हर स्थान पर समन्वय की विशिष्ट महता होती है। मानस सहित तुलसीदास की अनेक रचनाएं समन्वय की महता को प्रतिपादित करती दिखती है।
कभी कभी लोग गोस्वामी तुलसीदास को सिर्फ आध्यात्मिक जगत की बातों तक ही सीमित रखने का प्रयास करते दिखाई देते हैं। लेकिन गोस्वामी जी की कवितावली में पेट की आवश्यकता और दरिद्रता के दर्द पर भी प्रकाश डाला गया है। यहां तुलसीदास के सोच का व्यवहारिक अंदाज सामने आता है। भूख और गरीबी आज के मानवाधिकारवादी युग में भी अपना अस्तित्व बनाए हुए है तो इसका समाधान भी तुलसी लोककल्याणकारी शासन पद्धति में देते दिखते हैं।

अभी कुछ दिनों में हम डिजिटल क्रांति के सफर पर 5 जी के दौर में प्रवेश करनेवाले हैं। तकनीक हमारे जीवनशैली को बदलता दिख रहा है लेकिन जीवन के आधारभूत तथ्यों में परिवर्तन दिखाई नहीं दे रहा है। सारी सुविधाएं मौजूद रहने पर भी सुकून नहीं। सारे सुख उपलब्ध रहने पर भी तनाव का आलम पसरा रहता है। जीवन संबंधी सभी समस्याओं के समाधान में भी तुलसी मानस में शाश्वत संदेशों के एक सिलसिले का अविरल प्रवाह बहाते दिखते हैं।

आवश्यकता गोस्वामी जी के संदेशों को समझने और उसे अपने जीवन में अंगीकार करने की है। भारतीय सनातन संस्कृति के आत्मा को तुलसीदास ने शब्दों में संजोया। भावनाओं से सहेजा। बस अगर तुलसीदास के शाश्वत संदेशों को अगर हम समग्रता से समझ सकें तो जीवन सार्थक और मंगलमय हो सकता है।

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