दूसरा पक्ष है धार्मिक असहमतियों से उपजे नैतिक प्रश्न। वस्तुत: भारत में परस्पर विरोधी सांस्कृतिक मूल्यों के कारण पैदा हुई नैतिक असहमतियों का राजनीतिक हल खोजने की कभी कोशिश नहीं हुई। विविधता के नष्ट हो जाने के डर या बहुसंख्यक संस्कृति के हावी हो जाने के भय से यहां सामाजिक एकीकरण पर बहुत ध्यान नहीं दिया गया तथा सार्वभौम नागरिक निर्माण की परियोजना अधूरी ही रह गई।

इसके अलावा वैविध्य बनाए रखने के लिए जो प्रयास हुए उसका एक संदेश यह भी गया कि जानबूझकर बहुसंख्यक के धार्मिक पहचान को बेअसर करने की कोशिश हुई और अल्पसंख्यक को अपनी पहचान धार्मिक रूप से गढ़ने के लिए न केवल छूट दी गई, बल्कि प्रोत्साहित भी किया गया। यही स्थिति विभाजन के समय भी थी कि जब सेकुलर घोषणाएं की जा रही थीं, तब सार्वजनिक जीवन में धार्मिक पहचान को व्यक्त करने की गति और बढ़ गई। यही स्थिति अब भी है। यह अनायास नहीं है कि ‘धार्मिक जुलूस विवाद’ और ‘गोरक्षा’ जैसे प्रश्न तस के तस हैं। तो इस संदर्भ में इतिहास का सबक यही कहता है कि कुछ नए समाधान तलाशने होंगे।

वस्तुत: इतिहास की ध्वनियों को सुनना होगा और कुछ नए और कठिन समाधान तलाशने ही होंगे। वर्तमान के शोर में उस ध्वनि को अनसुना करने से कोई हल नहीं निकलेगा। दोनों समुदायों की चिंताओं और विवेक पर भरोसा करना पड़ेगा। विवाद के विषयों पर संवाद करना होगा। ऐसा करना बहुत मुश्किल नहीं है, क्योंकि जब देश आजाद हुआ और एक नए किस्म का राष्ट्र बना तो जाहिर तौर पर उसके सभी हितधारकों ने कुछ हासिल किया तो कुछ खोया भी।

उदाहरण के लिए मुस्लिम समुदाय ने अत्यधिक ध्रुवीकृत समय में अल्पसंख्यक की हैसियत के साथ एक नए राष्ट्र को स्वीकारने का साहस किया तो हिंदू समुदाय ने धर्म के आधार पर नए राष्ट्र बन जाने के बावजूद सेकुलर राज्य की निर्मिति के प्रति अपनी सहमति थी। अब समय वहां से आगे बढ़ने का है। इसमें इतिहास मदद करेगी। और इसलिए ही विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस जैसे प्रयोग आवश्यक हैं।