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क्या आज अनेक ‘राष्ट्रीय समस्याएं’ विभाजन की देन हैं?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

प्रत्येक बड़ी घटना या उपलब्धि का एक स्याह पक्ष होता है जिसे सामान्यत: हम या तो याद नहीं रखना चाहते या उससे बचने का प्रयास करते हैं। हमेशा अच्छी यादों को संजो कर रखने की सहज मानवीय प्रवृत्ति का ही परिणाम है कि हम प्रत्येक वर्ष आजादी की वर्षगांठ तो धूमधाम से मनाते हैं, किंतु विभाजन जैसी त्रसदी, जिसने हमेशा के लिए भारत का भाग्य और भूगोल बदल दिया, उसके प्रति उदासीन रवैया अपनाते हैं। समस्या से बचने का यह शुतुरमुर्गी तरीका है जो रेत में अपनी गर्दन छुपा कर यह सोचता है कि समस्या टल गई है। जबकि किसी समस्या का समाधान करने के लिए पहले उसे स्वीकार करना पड़ता है फिर उसका सामना करना पड़ता है।

इसलिए न केवल इसे याद रखना जरूरी है, बल्कि वर्तमान और आने वाली पीढ़ियों को इससे परिचित करवाना भी आवश्यक है, ताकि देशवासी इस मर्म को महसूस कर सकें कि देश को स्वाधीनता किस कीमत पर मिली है। इस त्रसदी को लेकर एक विवेकपूर्ण नागरिकबोध उत्पन्न होना चाहिए ताकि राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया और मजबूत हो सके।

आखिर इस बात को समझे बिना कि आज भारत राष्ट्र का जो भूगोल है वह विभाजन के पहले कैसा था, एक परिपक्व राष्ट्रीय चेतना का विकास कैसे हो सकता है? और इस भूगोल को बदलने की राजनीति को समझे बिना राष्ट्र भविष्य की एक स्पष्ट तस्वीर कैसे बना सकता है? इसलिए जब बीते वर्ष प्रधानमंत्री द्वारा ‘विभाजन विभीषिका दिवस’ मनाने की बात कही गई तो यह एक अच्छा अवसर बन गया कि इतिहास के सहारे वर्तमान और भविष्य की तस्वीर बेहतर की जा सके। तो अब सवाल है कि विभाजन में देश ने ऐसा क्या खोया जिसके लिए ‘विभीषिका’ विशेषण का प्रयोग किया जाना चाहिए?

दिलचस्प यह भी है कि विभाजन का प्रत्यक्ष दंश देश के कुछ खास हिस्सों ने ही ङोला और बाकी हिस्सों में यह महज एक घटना बनकर रह गई। इसलिए यह हिस्सा आज भी उस जटिलता को महसूस करने में असमर्थ है। आज इस विडंबना को समझना आवश्यक है कि कैसे रेडक्लिफ द्वारा खींची गई रेखा ने दो समुदायों को दो अलग राष्ट्र का निवासी बना दिया। और इस प्रक्रिया में लगभग पांच लाख लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी। नव-स्वतंत्र देश की धरती शरणार्थी शिविारों से भरी जाने लगी।

जिस एक सीमा के लोग साथ रहने का दावा कर रहे थे वहां आज तीन देश हैं। यह कोई मामूली बात नहीं। समुदाय, अस्मिता और राष्ट्र जैसी संकल्पना पर विचार करने वालों के लिए यह एक मानीखेज परिघटना है। साथ ही भारत राष्ट्र की बुनावट को समझने के लिए विभाजन एक विभाजक रेखा की तरह है। इसलिए नई आशाओं पर कुठाराघात की विवेकपूर्ण स्मृति जनमानस में रहे, यह उचित ही है। क्या यह सच नहीं है कि आज भी अनेक ‘राष्ट्रीय समस्याएं’ विभाजन की ही विरासत हैं?

हालांकि ऐसा भी नहीं है कि विभाजन का इतिहास केवल हिंसा के उदाहरणों और पीड़ाओं से पटा पड़ा है। अगर एक तरफ दरिंदगी की सारी हदों को पार कर इंसानियत को शर्मसार करने वाले लोग थे तो दूसरी तरफ इनसानियत और सौहार्द को अपने हृदय में समेटे हुए लोगों का एक विशाल समूह भी था। ऐसी अनगिनत कहानियां हाल के दिनों में भी उजागर हुई हैं जिसमें यह देखा गया कि किस तरह बहुत सारे लोग अपने मजहब और अन्य पहचानों को परे रखकर बंटवारे के वक्त भी एक-दूसरे की मदद कर रहे थे। राष्ट्र ऐसे ही तैयार होता है। समझे सुख-दुख के साथ।

 

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