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नीतीश ने सियासी शतरंज में भाजपा को मात दे दी है,कैसे?

नीतीश ने सियासी शतरंज में भाजपा को मात दे दी है,कैसे?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

इफ्तार पार्टियों के ईद-गिर्द उभरा बिहार के दो बड़े सियासी बदलावों का प्रतिबिंब यादगार रहेगा। दोनों दावतों में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपने आवास से पैदल ही पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी के आवास पर गए और लौटे। 23 जून, 2017 को पैदल जाते और लौटते समय उनका अंदाज बेहद खास था। उनकी चाल-ढाल में उस दिन बुलंदी का संदेश था। वह दौर तत्कालीन महागठबंधन सरकार के उप-मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव पर भाजपा नेता सुशील कुमार मोदी द्वारा लगाए जा रहे भ्रष्टाचार के आरोपों से गरमाया हुआ था।

जद-यू तेजस्वी यादव को इन आरोपों पर जनता के समक्ष अपना पक्ष रखने की सलाह दे रहा था। इफ्तार पार्टी से लौटते समय मीडिया से बातचीत में नीतीश कुमार ने जो कुछ कहा, उससे बहुत कुछ साफ हो गया था। इसके एक महीने तीन दिन बाद ही यानी 26 जुलाई, 2017 को उन्होंने इस्तीफा दे दिया और भाजपा के साथ नई सरकार बनाई।

इसके पांच साल बाद 22 अप्रैल, 2022 को नीतीश कुमार इफ्तार पार्टी में शामिल होने फिर पैदल ही राबड़ी देवी के आवास पर गए। वहां तेजस्वी यादव ने गर्मजोशी से उनका स्वागत किया। उसी समय से बिहार में सियासी तस्वीर बदलने के कयास लगाए जाने लगे थे। हालांकि, इस बार सत्ता के नए गठबंधन को आकार लेने में एक की जगह चार महीने लगे।

नीतीश कुमार पांच साल बाद दूसरी बार एनडीए से खुद बाहर हो गए हैं। 2013 में तल्खी बढ़ने पर उन्होंने भाजपा से नाता तोड़कर उसके कोटे के मंत्रियों को बर्खास्त कर दिया था। इसके बाद राजद और कांग्रेस के समर्थन से उनकी सरकार बनी। इसी समर्थन ने आगे चलकर बिहार में जद-यू, राजद और कांग्रेस के महागठबंधन की राह प्रशस्त की। 2015 में इन दलों के महागठबंधन ने विशाल बहुमत से बिहार में सरकार बनाई थी। दोनों बार नीतीश के एनडीए से बाहर होने की पृष्ठभूमि एक जैसी है।

साल 2013 में महाराजगंज लोकसभा सीट के उपचुनाव में जद-यू को पराजय का मुंह देखना पड़ा था। जद-यू को भाजपा का पूरा साथ नहीं मिल पाया। दोनों दलों में तल्खी इतनी बढ़ गई कि नीतीश ने अलग होने का फैसला ले लिया। इस बार विधानसभा चुनावों में चिराग पासवान के नए सियासी अवतार ने दोनों दलों में भ्रम की स्थिति पैदा की। जद-यू को सीटों का नुकसान हुआ। नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बनने को तैयार नहीं थे, पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हस्तक्षेप के बाद वह राजी हुए।

सरकार का शपथ ग्रहण तो हो गया, लेकिन पहले दिन से अविश्वास की स्थिति बनी रही। जद-यू को चुनाव में चिराग से हुए नुकसान का मलाल बना रहा। चुनाव परिणाम आने के 48 घंटे बाद ही नीतीश ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में भाजपा से दो टूक कहा था कि वह चिराग पर कार्रवाई करे। अब जद-यू आरसीपी सिंह को भाजपा प्रायोजित दूसरे चिराग के रूप देख रहा था। आरसीपी सिंह भाजपा की पसंद पर जद-यू कोटे से केंद्र में मंत्री बने थे। भाजपा से उनकी निकटता बढ़ती जा रही थी। इस बार सरकार बनने के बाद एक भी ऐसा मौका नहीं आया, जब जद-यू और भाजपा के रिश्तों में गर्मजोशी दिखी हो, बल्कि बीते छह माह में अपेक्षाकृत तल्खी अधिक दिखी। वार-पलटवार के दौर भी चले।

इन सब कारणों से दोनों दलों के बीच संवादहीनता बढ़ती गई। नीतीश ने भाजपा के बिहार प्रभारी भूपेंद्र यादव से मिलना बंद कर दिया। इसके बाद धर्मेंद्र प्रधान को उनसे बातचीत के लिए भेजा गया। नीतीश ने धर्मेंद्र से साफ-साफ कहा था कि भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष व विधानसभा अध्यक्ष उनका अपमान कर रहे हैं। उनके पास विकल्प है। मुख्यमंत्री बने रहने की भी कोई लालसा नहीं है। भाजपा अपना देख ले।

इसके बाद धर्मेंद्र प्रधान ने न केवल प्रदेश भाजपा नेताओं को बयानबाजी पर लगाम लगाने की हिदायत दी, बल्कि मीडिया से बातचीत में उन्होंने कहा कि बिहार में नीतीश कुमार एनडीए के नेता हैं और 2024 और 2025 के चुनाव राज्य में उन्हीं के नेतृत्व में लड़े जाएंगे, पर अविश्वास की खाई गहरी हो चुकी थी। केंद्र सरकार के आमंत्रण पर नीतीश 17 जुलाई से 7 अगस्त तक दिल्ली में आयोजित चार कार्यक्रमों में शामिल नहीं हुए। मंगलवार को उन्होंने अपने सांसदों, विधायकों से कहा कि भाजपा 2013 से ही धोखा दे रही थी। मुझे अपमानित किया जा रहा था।

वैसे नीतीश के भाजपा से अलग होने के फैसले की वजह रिश्तों में खटास तक सीमित मानना वाजिब नहीं होगा, बल्कि इसके गर्भ में देश की आगामी सियासत की पृष्ठभूमि भी पल रही है। राजद, कांग्रेस और वाम दलों ने नीतीश के समर्थन में जो गर्मजोशी दिखाई है, उसके निहितार्थ गहरे हैं। कांग्रेस और वाम दलों ने तो दो कदम आगे बढ़कर एक दिन पहले ही बिना शर्त समर्थन का एलान कर दिया।

बिहार में जद-यू की धरातल कुर्मी, कोइरी, महादलित और अति-पिछड़ी जातियों का समीकरण है, तो राजद का एमवाई यानी मुस्लिम, यादव। कांग्रेस और वाम दलों का सीमित ही सही अपना-अपना जनाधार है। यह गठबंधन बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड में भाजपा के सामने बड़ी चुनौती खड़ी कर सकता है। झारखंड में कुर्मी जाति की आबादी 15 और कोइरी छह प्रतिशत है। उत्तर प्रदेश में कुर्मी छह फीसदी हैं। बिहार, यूपी और झारखंड में यादव, मुस्लिम, महादलित, कोइरी-कुर्मी और अति-पिछड़ी जातियों को गोलबंद करने की कोशिश हो सकती है।

बिहार में नए समीकरण के आकार लेने की चर्चा के साथ ही यह कयास भी लगने लगे हैं कि नीतीश कुमार राष्ट्रीय राजनीति में विपक्षी राजनीति के एक बड़े किरदार बनकर सामने आएंगे। 30 जुलाई को पटना में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे पी नड्डा ने बयान दिया था कि देश में अन्य राष्ट्रीय पार्टियों का वजूद खत्म हो चुका है, क्षेत्रीय पार्टियां भी समाप्त हो जाएंगी, सिर्फ बचेगी भाजपा। इस बयान को आधार बनाकर विपक्षी दल एकजुट होने की पहल कर सकते हैं।

नीतीश कुमार की सबसे बड़ी ताकत उनकी स्वीकार्यता और बेदाग छवि है। परस्पर विरोधी दलों के नेताओं से उनके रिश्ते आमतौर पर अच्छे रहे हैं।
नीतीश और तेजस्वी की जोड़ी ने बिहार के सियासी शतरंज में भाजपा को मात दे दी है, लेकिन भाजपा इस झटके को आसानी से पचा लेगी, यह सोचना भी नादानी होगी। देखना दिलचस्प होगा कि शह-मात के इस सियासी खेल में भविष्य की तस्वीर कैसी होगी?

 

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