विभाजन से सिंधी समाज के लोगों ने जो पीड़ा सही वह अकल्पनीय है
जलता चूल्हा छोड़ कर भारत आए
घंटाघर में स्वतंत्रता सेनानियों को दी जाती थी फांसी
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
गोरखपुर के कल्याणपुर मोहल्ले में रहने वाला मृगवानी परिवार आज भले ही सम्पन्न दिखता है लेकिन यह सम्पन्नता उन्होंने विभाजन का दंश झेलने के बाद लंबे संघर्ष से पायी है। मूल रूप से पाकिस्तान के सिंध प्रांत के शखर जिले के फर्कपुर गांव के रहने वाले इस परिवार को भारत-पाक विभाजन के दौरान अपने पैतृक स्थान छोड़ना पड़ा था। रिफ्यूजी कैंप में रहना पड़ा था। ठेले पर टाफी-रेवड़ी तक बेचनी पड़ी थी। दो दशक के संघर्ष के बाद यह परिवार खुद को विभाजन की विभीषिका से उबार सका था और गोरखपुर में अपने पांव जमा सका था।
दो दशक के कड़े संघर्ष के बाद शहर में जम सके पांव, मिला पुराना मुकाम
परिवार के मुखिया केशव दास मृगवानी अपने परिवार के संघर्ष की कहानी सुनाते हुए भावुक हो जाते हैं। बताते हैं कि अपनी जान बचाने के लिए उनके पिता झम्मट मल को जलता चूल्हा और बनता भोजन छोड़कर अपने परिवार के साथ पैतृक गांव से निकलना पड़ा था। बात नवंबर 1947 की है। पूरा परिवार कराची से पानी के जहाज के जरिये महाराष्ट्र के गोंडिया पहुंचा था, जहां उसे कुछ दिन रिफ्यूजी कैंप में गुजारने पड़े थे। पाकिस्तान से भारत आने वाले परिवार में झम्मट मल जी के साथ पत्नी, दो भाइयों का परिवार और बहन-बहनोई शामिल थे।
रिफ्यूजी कैंप में भी रहे
कुछ दिन बाद एक रिश्तेदार के बुलावे पर वह लोग रिफ्यूजी कैंप से गोरखपुर तो पहुंच गए लेकिन अपने गांव में चलती-फिरती किराने की दुकान चलाने वाले झम्मट मल्ल और उनके परिवार के सामने जीविकोपार्जन का संकट था। केशव दास बताते हैं पिता और उनके भाइयों ने हार नहीं मानी। कोतवाली के पास एक खाली मकान में रहकर टाफी और रेवड़ी बनाकर बेचने का काम शुरू किया। सभी भाई सुबह ठेले पर रेवड़ी-टाफी लेकर निकलते तो शाम को ही लौटते। कोई इसके लिए इमामबाड़े का रास्ता पकड़ता तो कोई कचहरी का। कोई स्कूलों के गेट पर खड़ा हो जाता। शाम को लौटते तो फिर अगले दिन के व्यवसाय की तैयारी में जुट जाते। टाफी व रेवड़ी तैयार करने में पुरुषों के साथ महिलाएं भी जुटतीं।
असित सेन के परिवार ने दी जमीन और गोरखनाथ मंदिर से मिला घर
बकौल केशव दास तीन वर्ष तक कोतवाली के पास वाले मकान में रहने के बाद जब फिल्म अभिनेता असित सेन के परिवार ने घोष कंपनी चौराहे पर व्यवसाय के लिए जमीन दे दी और गोरक्षपीठ के तत्कालीन महंत दिग्विजयनाथ ने रिफ्यूजी क्वार्टर में रहने की जगह दे दी तब वह लोग व्यापार का काम घोष कंपनी से करने लगे और रहने का स्थान गोरखनाथ क्षेत्र हो गया। संघर्ष का यह क्रम दो-चार वर्ष नहीं बल्कि दो दशक तक चला, तब जाकर गोरखपुर में मृगवानी परिवार के स्थायित्व की जमीन तैयार हो सकी। 71 वर्षीय केशव दास बताते हैं कि पिता और परिवार के लंबे संघर्ष के वह न केवल साक्षी रहे हैं बल्कि खुद शामिल भी रहे हैं। अपने पैतृक आवास के छूटने का दुख उन्हें आज भी है।
घंटाघर में स्वतंत्रता सेनानियों को दी जाती थी फांसी
गोरखपुर शहर के व्यस्ततम बाजारों में से एक हिंदी बाजार के तिराहे पर खड़ी मीनार केवल उस बाजार की ही नहीं बल्कि समूचे पूर्वांचल की पहचान है। ऐसा इसलिए कि यह अपने-आप में तमाम क्रांतिकारियों के बलिदान की गौरव-गाथा समेटे हुए हैं। यही वह स्थान है, जहां स्वाधीनता के लिए बिगुल फूंकने वाले दर्जनों सेनानियों को अंग्रेजों ने फांसी के फंदे पर लटका दिया था।
1930 से पहले घंटाघर की जगह उस स्थान पर था पाकड़ का पेड़
इस स्थल के मशहूर होने के इतिहास में जाएं तो आज जहां घंटाघर है, वहां 1930 से पहले एक विशाल पाकड़ का पेड़ हुआ करता था। यह वह पेड़ था, जिसका इस्तेमाल अंग्रेजों ने 1857 की क्रांति के दौरान देशभक्तों को फांसी देने के लिए किया था। अली हसन जैसे देशभक्त, जिसने गोरखपुर में अंग्रेजों की सत्ता को ही चुनौती दे दी थी, उन्हें इसी पाकड़ के पेड़ से लटका कर फांसी दी गई थी।
पेड़ पर दी गई थी 1857 की क्रांति के दौरान सेनानियों को फांसी
1930 में इसी स्थान पर रायगंज के सेठ राम खेलावन और सेठ ठाकुर प्रसाद ने अपने पिता सेठ चिगान साहू की याद में मीनार की तरह एक ऊंचे भवन का निर्माण कराया, जो उन बलिदानियों को समर्पित था, जिन्हें स्वाधीनता के पहले संग्राम के दौरान वहां फांसी दी गई थी। सेठ चिगान के नाम पर बनने की वजह से मीनार को बहुत दिनों तक चिगान टावर के नाम से जाना जाता रहा। बाद में उस पर घंटे वाली घड़ी लगा दी गई, जिसकी वजह से समय के साथ वह घंटाघर के नाम से मशहूर हो गया। घंटाघर निर्माण की कहानी आज भी उसकी दीवारों पर हिंदी और उर्दू भाषा में अंकित है।
बिस्मिल से भी जुड़ता है घंटाघर का इतिहास
घंटाघर की दीवार पर लगी अमर बलिदानी पं. राम प्रसाद बिस्मिल की तस्वीर भवन और बिस्मिल के संबंध के बारे में जानने का कौतूहल पैदा करती है। इसलिए यहां इस विषय में चर्चा भी जरूरी है। 19 दिसंबर 1927 में जब जिला कारागार में पं. बिस्मिल को फांसी दी गई तो अंतिम संस्कार के लिए शहर में निकली उनकी शवयात्रा का एक महत्वपूर्ण पड़ाव घंटाघर भी था। वहां कुछ देर के लिए उनका शव रखा गया था। बिस्मिल की मां ने देशभक्तों के लिए वहां एक प्रेरणादायी भाषण भी दिया था।
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