एक किताब ने कैसे रुश्दी के पूरे जीवन को खतरों से भर दिया?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
भारत आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है। लेकिन जिस साल भारत को आजादी मिली, उसी साल भारत में जन्में अमेरिकी नागरिक और लेखक सलमान रुश्दी पर जानलेवा हमले से एक बार फिर से ये संदेश देने की कोशिश की है कि आतंकवाद हर कोने में अब भी जिंदा है। एक लेखक को कलम चलाने की क्या सजा दी जा सकती है, इसका नजरा दुनिया ने देखा। इस घटना से पैदा हुए खौफजदा माहौल को खत्म कर पाना अमेरिका समते दुनिया के विभिन्न मुल्कों के लिए परेशानी का सबसे बड़ा सबब बनता प्रतीत हो रहा है।
भारतीय मूल के अमेरिकी लेखक सलमान रुश्दी पर 12 जुलाई को जानलेवा हमला हुआ। घटना के वक्त वो एक लाइव प्रोग्राम में इंटरव्यू दे रहे थे। न्यूयार्क स्टेट पुलिस के मुताबिक हमलावर तेजी से मंच की ओर दौड़ा और सलमान रुश्दी पर चाकू से हमला कर दिया। चाकू रुश्दी के गर्दन पर लगा। न्यूयॉर्क की गवर्नर ने जानकारी देते हुए बताया कि सलमान रुश्दी जिंदा हैं और उन्हें एक लोकल अस्पताल में भर्ती करवा दिया गया है। वहीं हमलावर भी गिरफ्तार हो गया है। जिसकी पहचान फादी मतर के रूप में हुई है, जिसकी उम्र 24 साल है।
इस्लाम की आलोचना और सलमान रुश्दी इन दोनों को एक दूसरे से अलग देखना बेहद मुश्किल है। अमेरिका के न्यूयॉर्क में मशहूर लेखक सलमान रुश्दी पर चाकू से जानलेवा हमला हुआ। हमले वाली जगह पर खून इस बात की गवाही देते दिखे। हमलावर के मन में रुश्दी के लिए कितनी नफरत थी इसे इस बात से समझा जा सकता है कि 75 साल की उम्र के सलमान रुश्दी पर चाकू से कई वार किए गए। लेकिन सलमान रुश्दी के प्रति नफरत का ये सिलसिला 1988 से शुरू होता है। रुश्दी की किताब द सैटेनिक वर्सेज की वजह से वो लगातार मुस्लिमों के निशाने पर रहे।
सलमान रुश्दी का साहित्य की दुनिया में बड़ा नाम है। मुंबई के एक कश्मीरी मुस्लिम परिवार में 19 जनवरी 1947 को उनका जन्म हुआ। 15 अगस्त 1947 की आधी रात अविभाजित हिंदुस्तान में जो बच्चे पैदा हुए। उन पर उन्होंने मिडनाइट चिल्ड्रेन नामक नॉवेल लिखा। किताब इतनी बेहतरीन निकली की बुकर प्राइज जीत लिया।
फतवा और जान से मारने की धमकी
सितंबर 1988 में द सैटेनिक वर्सेज के प्रकाशन के बाद से अपने मिडनाइट्स चिल्ड्रन (1981) के लिए बुकर पुरस्कार जीतने वाले ब्रिटिश-भारतीय लेखक को अपने जीवन के लिए असंख्य खतरों का सामना करना पड़ा है। 14 फरवरी, 1989 को ईरान के धार्मिक नेता अयातुल्ला खुमैनी ने अपने उपन्यास के साथ “इस्लाम का अपमान” करने के लिए रुश्दी पर एक फतवा घोषित जारी किया।
इसके दुष्परिणाम आने वाले दशकों तक महसूस किए जाते रहे। यहां तक कि जब फतवे के बाद भी रुश्दी की किताब छप गई। किताबों पर प्रतिबंध, किताबों को जलाना, फायरबॉम्बिंग और मौत की धमकियां आने वाले वर्षों तक बेरोकटोक जारी रहीं। इससे दुनिया भर की कलाओं में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बारे में महत्वपूर्ण सवाल उठे।
द सैटेनिक वर्सेज को लेकर विवाद
1989 में चैनल 4 को दिए एक साक्षात्कार में द सैटेनिक वर्सेज के प्रकाशन के तुरंत बाद, रुश्दी ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर पुस्तक की बढ़ती आलोचना का जवाब दिया था। उन्होंने कहा था कि यदि आप एक किताब नहीं पढ़ना चाहते हैं, तो आपको इसे पढ़ने की ज़रूरत नहीं है। द सैटेनिक वर्सेज से नाराज होना बहुत मुश्किल है – इसके लिए गहन पढ़ने की लंबी अवधि की आवश्यकता होती है। यह सवा लाख शब्दों का है। रुश्दी शुरू से ही ऐतिहासिक कल्पना, यथार्थवाद को अपनाते हुए उपन्यास लिखते रहे हैं।
उनके उपन्यास और अन्य रचनाओं में प्रमुख विषय-वस्तु, पूर्वी और पश्चिमी दुनिया के बीच कई रिश्तों के जुड़ने, अलग होने और देशांतरणों की कहानी रही है। उपन्यास में कुछ कुरान की आयतों को लिखा जो पैगंबर के जीवन में एक ऐसे समय के बारे में थे जो मुसलमानों के लिए अपमानजनक था। इस किताब का शीर्षक एक विवादित मुस्लिम परंपरा के बारे में है। इस परंपरा के बारे में रुश्दी ने अपनी किताब में खुल कर लिखा।
अपनी इस किताब में रुश्दी ने पैगंबर मुहम्मद को झूठा, पाखंडी कहा है, जबकि उनकी 12 बीवियों के लिए भी आपत्तिजनक शब्द इस्तेमाल किए हैं। इसके विमोचन पर, पुस्तक को पश्चिम में अनुकूल समीक्षा मिली, वर्ष के उपन्यास के लिए 1988 का व्हिटब्रेड पुरस्कार जीता और 1988 का बुकर पुरस्कार फाइनलिस्ट बन गया।
राजीव गांधी सरकार ने लगाया बैन
भारत में हालांकि इसके प्रकाशन के नौ दिन बाद धार्मिक भावनाओं को आहत करने के लिए राजीव गांधी सरकार द्वारा पुस्तक पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। ब्रिटेन में भी विरोध प्रदर्शनों ने आकार लिया। वर्ष के अंत तक पुस्तक को बांग्लादेश, दक्षिण अफ्रीका, सूडान, केन्या सहित कई देशों में प्रतिबंधित कर दिया गया था। हालाँकि, ईरान, शुरू में, पुस्तक का विरोध करने वाले देशों में से नहीं था। लेकिन जैसे-जैसे किताब और रुश्दी के खिलाफ विरोध के स्वर तेज होते गए। मौलवियों के एक समूह ने खुमैनी को किताब के कुछ हिस्सों को पढ़ाया, जिसमें निर्वासन में एक इमाम का एक हिस्सा भी शामिल था, जो संदेहास्पद रूप से उनके कैरिकेचर जैसा था। बाकी, जैसा कि यह जाता है, इतिहास था।
छुप-छुप कर जीवन जीना पड़ा
यहां तक कि लेखक की हत्या के लिए 3 मिलियन डॉलर से अधिक के इनाम की पेशकश की गई थी। अगले नौ वर्षों तक, रुश्दी छिपकर रहना पड़ा। एक स्थान से दूसरे स्थान पर अंगरक्षकों और सुरक्षा सेवाओं के भारी पहरे के बीच। ईरान से मिली धमकी कोई मामूली धमकी नहीं थी। कारण कि रुश्दी को मारनेवाले के लिए 30 लाख डॉलर का इनाम घोषित कर दिया गया। 2012 में उन्हें एक बार फिर जान से मारने की धमकी दी गई। ईरान के ही एक धार्मिक संगठन ने उनकी हत्या के लिए ईनाम की राशि 30 लाख डॉलर से बढ़ा कर 33 लाख डॉलर कर दिया।
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