श्री अरविंद स्वतंत्रता के अग्रदूत, क्रांतिकारी, कवि, लेखक, दार्शनिक, ऋषि, मंत्रद्रष्टा एवं महान योगी थे,कैसे?
जन्मदिवस पर विशेष
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
ऐतिहासिक तिथियां कृतज्ञता का अवसर देती हैं, नूतन उत्साह भरती हैं. वर्ष 1872 में 15 अगस्त को जन्मे श्री अरविंद घोष की सार्धशती यानी 150वीं जयंती है. वर्ष 1947 में इसी तिथि (15 अगस्त) को हमारा देश स्वतंत्र हुआ था. आज स्वतंत्रता के 75 वर्ष भी पूरे हुए हैं. दोनों तिथि हम भारतीयों के लिए विशेष महत्व रखती है. इसीलिए, महर्षि अरविंद की 150वीं जयंती का उत्सव मनाने के लिए प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में उच्चस्तरीय समिति का गठन किया गया है.
श्री अरविंद स्वतंत्रता के अग्रदूत, क्रांतिकारी, कवि, लेखक, दार्शनिक, ऋषि, मंत्रद्रष्टा एवं महान योगी थे. केवल सात वर्ष की उम्र में उन्हें इंग्लैंड पढ़ने के लिए भेजा गया. उन्होंने लंदन के सेंट पॉल स्कूल से विद्यालयी शिक्षा ली और छात्रवृत्ति प्राप्त कर किंग्स कॉलेज कैंब्रिज में प्रवेश लिया. उन्होंने आईसीएस परीक्षा पास की, लेकिन अवसर दिये जाने के बाद भी अंतिम बाधा, घुड़सवारी की परीक्षा पास नहीं की. क्योंकि वे तो कुछ और करने का मन बना चुके थे.
अरविंद घोष एक व्यक्ति न होकर प्रचंड आध्यात्मिक शक्ति थे. बीसवीं सदी के पहले दशक में पूर्ण स्वराज, निष्क्रिय प्रतिरोध और ग्राम स्वराज जैसे विचार देने वाले श्री अरविंद ही थे, जिनका सदी के दूसरे और तीसरे दशक में महात्मा गांधी ने अनुगमन किया. इनके लेखों और भाषणों को पंडित नेहरू और सुभाष चंद्र बोस उत्साह और गंभीरता से पढ़ते थे. ब्रिटिश राज को उनकी कलम से इतना खौफ था कि तत्कालीन वायसराय ने सचिव को पत्र में लिखा, ‘भारत में फिलहाल अरविंद घोष सबसे खतरनाक व्यक्ति है, जिससे हमें निपटना है.’
देशबंधु चित्तरंजन दास ने उन्हें देशभक्ति का कवि, राष्ट्रवाद का मसीहा और मानवता का प्रेमी कह कर संबोधित किया. श्री अरविंद ने राष्ट्र को शक्ति का स्वरूप माना और लोकमानस से राष्ट्र को ‘मां’ की तरह पूजने का आह्वान किया. राष्ट्र को सबल, संपन्न और महान बनाने के लिए भारतीय युवाओं से सच्चे भारतीय होने और आंतरिक स्वराज प्राप्त करने का आह्वान किया. उन्होंने भारत को ईश्वर द्वारा सौंपे गये दायित्व और भारतीय संस्कृति व सनातन धर्म को देखने की दृष्टि दी.
15 अगस्त, 1947 को आकाशवाणी से राष्ट्र के नाम संदेश में उन्होंने अपने पांच स्वप्नों का उल्लेख किया, जिन्हें आज के संदर्भ में भी गंभीरता से देखा जाना चाहिए. श्री अरविंद ने ‘भारतीय संस्कृति के आधार’ में लिखा- ‘भारतीय आदर्श सनातन हैं. भारतीय संस्कृति की संचालिका आध्यात्मिक अभीप्सा है. भारत में चार पुरुषार्थ- धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, चार वर्ण- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, चार आश्रम- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास, हमारी संस्कृति के विधायक तत्व रहे हैं.
भारतीय संस्कृति में किसी भी पुरुषार्थ, वर्ण व आश्रम की उपेक्षा नहीं की गयी है, वरन सभी को महत्व देकर स्वीकारा गया है.’ श्री अरविंद के अनुसार भारतीय संस्कृति उच्चतम शिखर है, जिस पर एकाएक नहीं चढ़ा जा सकता. शिखर तक पहुंचने के लिए धर्म की आवश्यकता है. धर्म मध्यस्थ है.
भारतीय संस्कृति की विशेषता है आध्यात्मिक अभीप्सा. भारतीय संस्कृति ने आध्यात्मिकता के दो मोड़ पूरे कर लिये हैं- आदिकालीन वैदिक युग एवं पौराणिक तांत्रिक युग. अब हम तीसरे मोड़ पर हैं- मानव मन से आगे अतिमानस को चरितार्थ करना होगा, तभी भारतीय संस्कृति को और समृद्ध किया जा सकेगा.
श्री अरविंद का आह्वान है कि भारत को भारतीय बनकर ही बनाया और बचाया जा सकता है. महर्षि अरविंद भारतीय युवाओं से मौलिक चिंतक बनने की पुरजोर वकालत करते हैं. वे प्रेरणा देते हैं कि वेद पढ़ें ताकि अपने युग की वेदना को आनंद के समाधान का गीत बना सकें. महाभारत प्रत्येक घर में इसलिए पढ़ा-समझा जाए ताकि भावी महाभारतों का दुर्भाग्य टाला जा सके. जो अतीत हमें वर्तमान में जीना और भविष्य की मजबूत नींव डालने में मदद नहीं कर सकता उसका प्रयोजन क्या है. वे गुजरे हुए भारत से ज्यादा आने वाले भारत को लेकर चिंतित और उत्सुक हैं.
उन्होंने लिखा, ‘हमारा संबंध अतीत की उषाओं से नहीं, भविष्य की दोपहरों से है.’ ‘दिव्य जीवन’ में श्री अरविंद स्पष्ट करते हैं- शरीर, मन और प्राण का विकास आवश्यक है, परंतु यह संपूर्ण नहीं है. बुद्धि मनुष्य की विशेषता नहीं है, यह अन्य प्राणियों में भी होती है. मनुष्य में आत्मबुद्धि होनी चाहिए. मेरी बुद्धि को वासुदेव चलाएं या वासना यह निर्णय स्वयं को करना पड़ता है. महर्षि दोनों को सत्य मानते हैं- जगत को भी और ब्रह्म को भी.
श्री अरविंद अन्नमय कोष से लेकर आनंदमय कोष तक चेतना की यात्रा कराते हैं. यह सजग साधन शैली श्री अरविंद का रूपांतर योग या सर्वांगीण योग है. इस रूपांतरण का अनुशीलन मनुष्य को चेतना के उस शिखर पर ले जा सकता है, जिसे श्री अरविंद ने अतिमानस कहा है. अतिमानस के लिए भारत में पैदा होना जरूरी नहीं, परंतु भारतीय भाव अनिवार्य होगा.
संप्रदाय सीमित हो सकता है, अध्यात्म उदार होता है. सभ्यता बाह्य रूप है, संस्कृति अंतरतम रूप है. आध्यात्मिक जीवन व्यावहारिक जीवन की जड़ है. जड़ काट दी जाए तो जीवन मृत. आत्मस्वरूप, आंतरिक स्वरूप, आत्मबोध आवश्यक है. केवल मन आधारित मनुष्य संतुष्ट और समृद्ध नहीं हो सकता. मन से आत्मा की ओर जाना होगा. व्यक्तिगत चेतना को समाहित होना होगा दिव्य चेतना से.
श्री अरविंद के दर्शन की सबसे क्रांतिकारी उद्घोषणा है, ‘मानव अंतिम नहीं है, वह केवल एक बीच की कड़ी यानी मध्यवर्ती सत्ता है. अपने जीवन को उच्चतर संकल्प और साधना की दिशा में मोड़कर वह देवपुरुष बन सकता है. मानव अभी भी धरती पर ईश्वर का सबसे उर्वर बीज है.’