क्या तिरंगे के लिए आरएसएस ने बलिदान दिया है?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

एक भ्रम है कि संघ के स्वयंसेवक राष्ट्रध्वज को मान नहीं देते हैं और तिरंगा नहीं फहराते हैं। इसी भ्रम में पड़कर कांग्रेस को भी संघ के दर्शन हो गए। वर्ष 2016 में जेएनयू में देशविरोधी नारे लगने के बाद यह बात निकलकर आई कि युवा पीढ़ी में देशभक्ति का भाव जगाने के लिए सभी शिक्षा संस्थानों में राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा लगाया जाना चाहिए।

यह आग्रह कुछ लोगों को इतना चुभ गया कि वे आरएसएस और तिरंगे के संबंधों पर मिथ्याप्रचार करने लगे। इस मिथ्याप्रचार में फंसकर कांग्रेस ने 22 फरवरी, 2016 को मध्य प्रदेश के संघ कार्यालयों पर तिरंगा फहराने की योजना बनाई थी। कांग्रेस ने सोचा होगा कि संघ के कार्यकर्ता कार्यालय पर तिरंगा फहराने का विरोध करेंगे। तिरंगा फहराना था शिक्षा संस्थानों में लेकिन कांग्रेस निकल पड़ी संघ कार्यालयों की ओर।

वर्ष 1962 में भारत-चीन युद्ध में जिस प्रकार का अदम्य साहस दिखाकर संघ के कार्यकर्ताओं ने सेना और सरकार का सहयोग किया, उससे तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की धारणा भी बदल गई। चीन के आक्रमण के समय नेहरूजी को कम्युनिस्टों से धोखा मिला, जिनका पंडितजी समर्थन करते थे। वहीं, जिस आरएसएस के प्रति नेहरूजी के भाव कटु थे, आपात स्थिति में उसी संगठन का भरपूर सहयोग शासन को मिला।

संघ की देशभक्ति से प्रभावित होकर प्रधानमंत्री नेहरूजी ने आरएसएस को गणतंत्र दिवस की राष्ट्रीय परेड में हिस्सा लेने के लिए आमंत्रित किया। 1963 की राष्ट्रीय परेड में संघ के स्वयसेवकों ने तिरंगे के सामने ही कदम-से-कदम मिलकर परेड की। स्मरण रखें कि जब चीनी सेना नेफा (अब अरुणाचल प्रदेश) में आगे बढ़ रही थी, तेजपुर (असम) से कमिश्नर सहित सारा सरकारी तंत्र तथा जनसाधारण भयभीत होकर भाग गए थे। तब आयुक्त मुख्यालय पर तिरंगा फहराए रखने के लिए 16 स्वयंसेवक पूरा समय वहां डटे रहे।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं ने प्रतिकूल परिस्थितियों में भी राष्ट्र ध्वज का मान बढ़ाने का कार्य किया है। 1947 में जब देश का विभाजन हो गया और जम्मू-कश्मीर में विवाद प्रारंभ हो गया तब 14 अगस्त को श्रीनगर की कई इमारतों पर पाकिस्तानी झंडे फहरा दिए गए थे। ऐसी स्थिति में स्वयंसेवकों ने कुछ ही समय में तीन हजार से अधिक राष्ट्रीय ध्वज सिलवाकर श्रीनगर को तिरंगे से पाटकर स्पष्ट सन्देश दिया कि जम्मू-कश्मीर भारत का हिस्सा है,

यहाँ सिर्फ तिरंगा लहराएगा। जम्मू-कश्मीर में जब कांग्रेस ने ‘दो निशान-दो विधान-दो प्रधान’ की व्यवस्था को स्वीकार कर लिया था तब भारत के तिरंगे, संविधान और संप्रभुता के लिए संघ के लोगों ने ‘एक निशान-एक विधान-एक प्रधान’ का नारा देते हुए आन्दोलन चलाया। 1952 में जम्मू संभाग में आयोजित ‘तिरंगा सत्याग्रह’ में संघ के 15 स्वयंसेवक बलिदान हुए। शेख अब्दुल्ला के इशारे पर पुलिस ने छम्ब, सुंदरवनी, हीरानगर और रामवन में ‘तिरंगा सत्याग्रहियों’ पर गोलियां चलायीं, जिसमें मेलाराम, कृष्णलाल, बिहारी और शिवा सहित 15 स्वयंसेवक मारे गए थे।

जम्मू-कश्मीर में राष्ट्र ध्वज के लिए संघ ने बलिदान दिया है, कम्युनिस्टों और कांग्रेसियों ने नहीं। स्वतंत्र भारत में तिरंगा फहराने और उसकी प्रतिष्ठा के लिए संघ और भाजपा के कार्यकर्ताओं के अलावा किसका बलिदान हुआ है? संघ कार्यालयों पर तिरंगा फहराने की बहादुरी दिखानेवालों में से किसने श्रीनगर के लाल चौक पर तिरंगा फहराने का साहस दिखाया है? यहाँ भी आतंकवादी हमले के खतरे के बाद भी जनसंघ/भारतीय जनता पार्टी के नेता राष्ट्रीय ध्वज फहराते रहे हैं। आज जम्मू-कश्मीर में शान से तिरंगा लहराता है तो इसका सारा श्रेय संघ के कार्यकर्ताओं को जाता है।

इसमें किसी को संदेह नहीं होना चाहिए कि संघ ने आन्दोलन नहीं किया होता तो लम्बे समय तक वहां राष्ट्र ध्वज के बरक्स एक ओर झंडा फहरा रहा होगा। आखिर विभाजनकारी एवं अस्थायी अनुच्छेद-370 और 35ए को भी अब जाकर 2019 में निष्प्रभावी किया गया, यह कार्य भी भाजपा सरकार ने किया।

दादर नगर हवेली और गोवा के भारत विलय में भी संघ द्वारा निर्णायक भूमिका का निर्वहन किया गया। 21 जुलाई, 1954 को पुर्तगालियों के कब्जे से दादर को मुक्त कराया गया। 28 जुलाई को नरोली और फिपारिया मुक्त कराये गए। पुणे के संघचालक विनायक राव आपटे के नेतृत्व में 2 अगस्त, 1954 को संघ के 100 से अधिक कार्यकर्ताओं ने सिलवासा (दादरा और नगर हवेली का मुख्यालय) में घुसकर वहां से पुर्तगाली झण्डा उखाड़कर तिरंगा फहराया था।

इसी प्रकार 1955 में संघ के स्वयंसेवकों ने गोवा मुक्ति आन्दोलन में प्रभावी भूमिका का निर्वहन किया। देशभर से संघ के कार्यकर्ता राष्ट्रीय ध्वज के साथ गोवा पहुंचे थे। कर्नाटक से जगन्नाथ राव जोशी सैकड़ों कार्यकर्ताओं के साथ पणजी पहुंचे। इस आन्दोलन में सहभागिता के कारण उन्हें लगभग दो वर्ष जेल में बिताने पड़े। मध्यप्रदेश के देवास से उज्जैन के नारायण बलवंत उपाख्य ‘राजाभाऊ महाकाल’ कार्यकर्ताओं की टोली के साथ गोवा मुक्ति आन्दोलन में शामिल हुए।

राजाभाऊ महाकाल तिरंगा झंडा लेकर जत्थे में सबसे आगे चल रहे थे। पुर्तगाली सैनिकों ने गोलीबारी शुरू कर दी लेकिन स्वयंसेवकों की यह टोली आगे बढ़ती रही। सबसे पहले बसंत राव ओक के पैर में गोली लगी, उसके बाद पंजाब के हरनाम सिंह के सीने पर गोली लगी। इसके बाद भी जत्था आगे बढ़ता रहा। पुर्तगाली सैनिक ने राजाभाऊ महाकाल के सिर में निशाना लगाया। गोली लगते ही राजाभाऊ महाकाल गिर पड़े लेकिन तिरंगा ज़मीन पर गिरता उससे पहले उन्होंने अपने साथी कार्यकर्ता को तिरंगा थमा दिया।

चिकित्सालय में 15 अगस्त, 1955 को उनका निधन हुआ। इसी आन्दोलन के अंतर्गत पणजी सचिवालय पर तिरंगा फहराने के कारण मोहन रानाडे नाम के स्वयंसेवक को पुर्तगाली पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। तिरंगा फहराने के लिए उन्हें 17 वर्ष पुर्तगाल की लिस्बन जेल में काटने पड़े थे, जबकि गोवा 1961 में पुर्तगाल के कब्जे से मुक्त हो गया था। लेकिन सरकार ने गोवा मुक्ति आन्दोलन के स्वतंत्रता सेनानियों एवं बलिदानियों की सुध ही नहीं ली।

ऐसे अनेक प्रसंग हैं, जिनका वर्णन यहाँ किया जा सकता है। प्रत्येक प्रसंग यह सिद्ध करता है कि राष्ट्रीय प्रतीकों के प्रति राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की निष्ठा, समर्पण, श्रद्धा सर्वोपरि है। जिस तरह भारत का सामान्य देशभक्त नागरिक देश के गौरव प्रतीकों के प्रति आदर और समर्पण का भाव रखता है, ठीक उसी तरह संघ का प्रत्येक स्वयंसेवक का भाव है।

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