क्या आरक्षण सामाजिक न्याय की स्थापना कर सकी हैं ?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

सामाजिक न्याय की स्थापना के लिए आरक्षण एक प्रयोग है। संविधान ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए लोकसभा और विधानसभाओं में 10 वर्ष के लिए आरक्षण की व्यवस्था की थी, जिसे हमेशा अगले 10 वर्ष के लिए बढ़ा दिया जाता है। नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में भी शुरुआत से ही आरक्षण दिया गया। 1991 में वीपी सिंह सरकार ने मंडल आयोग प्रतिवेदन के आधार पर अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में 27 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की।

मनमोहन सिंह सरकार ने 2006 में मेजर सिन्हो आयोग का गठन किया, जिसे सामान्य वर्ग में आर्थिक पिछड़ेपन का अध्ययन करने का दायित्व सौंपा गया था। इसी को आधार बना मोदी सरकार ने 2019 में संविधान में 103वें संशोधन द्वारा सामान्य वर्ग के गरीबों को 10 प्रतिशत आरक्षण प्रदान किया। इसे सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई है।

सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष विचारार्थ कई मुद्दे हैं, (1) क्या आर्थिक आधार पर आरक्षण संवैधानिक है? (2) क्या आर्थिक आधार पर दिया गया आरक्षण इंदिरा साहनी मुकदमे (1999) में आरक्षण की निर्धारित अधिकतम सीमा 50 प्रतिशत का उल्लंघन करता है? (3) क्या 50 प्रतिशत आरक्षण संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा है? इनसे इतर कुछ प्रश्न हैं, जिनका उत्तर न्यायपालिका को नहीं, समाज को देना होगा।

क्या हम संतुष्ट हैं कि सामाजिक न्याय की स्थापना के लिए आरक्षण अपरिहार्य है? क्या आरक्षण की वर्तमान व्यवस्थाएं पिछले सात दशक में सामाजिक न्याय की स्थापना कर सकी हैं? क्या समाज के गरीब तबके को उसका लाभ मिल सका है? क्या दलितों और पिछड़ों में एक अभिजन वर्ग प्रकट हो गया है, जो अपने ही वर्ग के गरीबों को आगे नहीं आने देना चाहता? भले ही सर्वोच्च- न्यायालय ने पिछड़ों में क्रीमी लेयर का प्रविधान किया है, लेकिन पिछड़ों में अति पिछड़े व गरीब तो अभी भी वहीं खड़े हैं? यही हाल दलितों का भी है। गैर जाटव अति दलितों की स्थिति बदली है क्या? तो क्या आरक्षण का कोई विकल्प है जो सामाजिक न्याय की बेहतर स्थापना कर सके?

पिछले 75 वर्षों में सामाजिक स्तर पर बहुत कुछ बदला है। दलित और पिछड़ा वर्ग के असंख्य सदस्य उच्च पदों पर आसीन, आर्थिक संपन्नता सहित समाज में प्रतिष्ठा से रह रहे हैं। वहीं गरीब वर्ग है, जिसमें सामान्य, पिछड़ा, दलित और मुस्लिम सभी तबके के लोग आते हैं। दलितों और अन्य पिछड़े वर्ग के गरीबों की यह कहकर उपेक्षा नहीं की जा सकती कि उनको तो जातिगत आरक्षण प्राप्त है ही। प्रश्न है कि आरक्षण प्राप्त होने के बावज़ूद उनको क्या वाकई उसका लाभ मिल पा रहा है? काका कालेलकर आयोग ने जातियों को सामाजिक और शैक्षणिक

पिछड़ेपन का आधार बनाया, लेकिन आर्थिक को भी एक संबद्ध कारक के रूप में मान्यता दी थी। आज जब जाति से अधिक आर्थिक पहलू महत्वपूर्ण हो गया है तब आवश्यकता इस बात की है कि सामाजिक-शैक्षणिक पिछड़ेपन को आर्थिक स्थिति से जोड़ा जाए।

सरकारी आंकड़ों के अनुसार देश में 21.95 प्रतिशत लोग गरीबी की रेखा से नीचे रह रहे हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में यह प्रतिशत ज्यादा है। संविधान की यह मंशा कदापि नहीं हो सकती कि किसी भी गरीब की इस आधार पर उपेक्षा कर दी जाए कि वह किसी जाति विशेष में जन्मा। हां, यह सुनिश्चित करना आवश्यक होगा कि गरीबी को आधार बना समर्थ और धनी लोग कहीं आरक्षण का लाभ न लेने लगें। कभी समाज में जातिगत सुरक्षा पहली प्राथमिकता हुआ करती थी

आज आर्थिक सुरक्षा प्रथम प्राथमिकता है। अत: समाज, राजनीतिक दलों और संसद को आगे आकर सामाजिक-शैक्षणिक पिछड़ेपन को केवल जाति के आधार पर नहीं, वरन आर्थिक आधार पर भी परिभाषित करना चाहिए, जिससे संविधान के अनुच्छेद 15(4) और अनुच्छेद 16(4) के अंतर्गत सामाजिक और शैक्षणिक आधार पर पिछड़ों के आरक्षण का लाभ समाज के प्रत्येक वर्ग के गरीबों को मिल सके और सच्चे अर्थों में सामाजिक न्याय की स्थापना हो सके।

सदियों के उत्पीड़न और भेदभाव के कारण पिछड़े वर्गों का समाज में प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए अतिरिक्त प्रविधान की आवश्यकता का अनुभव आजादी से पहले ही होने लगा था। समय-समय पर इस दिशा में कुछ कदम भी उठाए गए थे, जिनसे आजादी के बाद आरक्षण व्यवस्था की नींव पड़ी।

  • 1882 भारत में शिक्षा क्षेत्र में सुधार के लिए हंटर आयोग का गठन हुआ था। उसी दौरान महात्मा ज्योतिबा फुले ने गरीब एवं वंचित तबके के लिए अनिवार्य एवं मुफ्त शिक्षा की वकालत करते हुए सरकारी नौकरियों में आनुपातिक प्रतिनिधित्व की मांग की थी।
  • 1891 त्रावणकोर रियासत में सिविल नौकरियों में स्थानीय के बजाय बाहरी लोगों को मौका देने के विरुद्ध आरक्षण की मांग को लेकर आवाज उठाई गई थी।
  • 1901-02 कोल्हापुर रियासत के छत्रपति साहूजी महाराज (यशवंतराव) को आरक्षण व्यवस्था का जनक माना जाता है। उन्होंने वंचित तबके के लिए आरक्षण की व्यवस्था की थी। सभी को समान अवसर देने के लिए विशेष प्रविधान किए गए। वर्गविहीन समाज की वकालत करते हुए छुआछूत को खत्म करने पर उनका जोर रहा। 1902 में कोल्हापुर रियासत में अधिसूचना जारी करते हुए पिछड़े/वंचित समुदाय के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की गई। वंचित समुदाय के आरक्षण के लिए इसे देश में आधिकारिक रूप से पहला राजकीय आदेश माना जाता है। 1908 प्रशासन में कम हिस्सेदारी वाली जातियों की भागीदारी बढ़ाने के लिए अंग्रेजों ने भी 1908 में प्रविधान किया था।
  • स्वतंत्रता मिलने के बाद संविधान निर्माताओं ने अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों को प्रतिनिधित्व का समान अवसर देने के लिए आरक्षण का प्रविधान किया था। 10 वर्ष में इसकी समीक्षा की बात कही गई थी, लेकिन तब से इसे लगातार बढ़ाया जाता रहा है।

    मंडल कमीशन ने बदली तस्वीर

    मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी सरकार ने सांसद बंदेश्वरी प्रसाद मंडल के नेतृत्व में 1979 में आयोग का गठन किया था। आयोग ने 1930 की जनगणना को आधार मानते हुए 1,257 समुदायों को पिछड़ा माना और उनकी आबादी 52 प्रतिशत बताई। 1980 में कमीशन ने अपनी रिपोर्ट सौंपी, जिसमें आरक्षण को 22 से बढ़ाकर 49.5 प्रतिशत करने का सुझाव दिया गया, जिसमें 27 प्रतिशत आरक्षण अन्य पिछड़ा वर्गों (ओबीसी) के लिए था। 1990 में वीपी सिंह सरकार ने मंडल की सिफारिशों को लागू किया। इसके विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट में याचिका दी गई, लेकिन शीर्ष न्यायालय ने इसे वैधानिक मानते हुए व्यवस्था दी कि आरक्षण 50 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए।

    संवैधानिक प्रविधान

    • संविधान के भाग तीन में समानता के अधिकार की भावना निहित है। इसके तहत अनुच्छेद 15 में प्रविधान है कि जाति, प्रजातिर्, ंलग, धर्म या जन्मस्थान के आधार पर किसी व्यक्ति से भेदभाव नहीं किया जाएगा। 15 (4) के तहत राज्य को सामाजिक व आर्थिक रूप से पिछड़े या अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के लिए आवश्यकता के अनुसार विशेष प्रविधान की शक्ति दी गई है।
    • अनुच्छेद 16 में अवसरों की समानता की बात है। 16 (4) के अनुसार यदि राज्य को लगता है कि सरकारी सेवाओं में पिछड़े वर्गों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है, तो उनके लिए पद आरक्षित हो सकते है।
    • अनुच्छेद 330 के तहत संसद एवं 332 के तहत राज्य विधानसभाओं में अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के लिए सीटें आरक्षित की गई हैं।

    आर्थिक आधार पर आरक्षण की बात

    आरक्षण नीति की समीक्षा: एक अप्रैल, 2012 को हरियाणा से कांग्रेस नेता अजय सिंह यादव ने जाट आरक्षण को लेकर चल रहे गतिरोध के बीच कहा था कि अब वक्त आ गया है कि सरकार आरक्षण नीति की समीक्षा करे। सामाजिक न्याय देने के लिए आदर्श स्थिति यह हो सकती है कि भविष्य में आरक्षण का लाभ आर्थिक आधार पर ओबीसी के साथ ऊंची जातियों को भी मिले।

    अहम है केरल हाई कोर्ट का फैसला

    केरल में राज्य सरकार ने ऊंची जातियों के गरीब छात्रों के लिए सितंबर, 2008 में सरकारी कालेजों में 10 प्रतिशत और विश्वविद्यालय स्तर पर 7.5 प्रतिशत सीटें आरक्षित कीं। इस फैसले की संवैधानिकता पर सवाल खड़े करते हुए मुस्लिम जमात ने केरल हाई कोर्ट में याचिका दायर की। 2010 में कोर्ट ने राज्य सरकार के फैसले को सही ठहराते हुए आर्थिक आधार पर की गई व्यवस्था को उचित ठहराया।

  • अदालत ने कहा कि अब समय आ गया है कि धीरे-धीरे धर्म और जाति आधारित आरक्षण के तंत्र से निकलते हुए योग्यता आधारित प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा या जाए। अगड़ी जातियों के प्रतिभाशाली गरीब छात्रों को भी उचित मौका मिलना चाहिए। प्रतिकूल आर्थिक स्थिति के कारण उन्हें परेशानी नहीं होनी चाहिए। कोर्ट ने कहा कि गरीबी और आर्थिक पिछड़ापन सबसे बड़ी सामाजिक बुराइयां हैं। अब मुक्त प्रतिस्पर्धा का समय है। पिछड़ी जातियों को भी विचार करना होगा कि सरकारी सुविधाओं के भरोसे रहने से उनका ही विकास बाधित होगा

आजादी के बाद किया गया संविधान में प्रविधान

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