अमेरिका के बहनो और भाइयो!–स्वामी विवेकानंद, 11 सितंबर, 1893, शिकागो, अमेरिका
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
आपके इस भव्य और स्नेहपूर्ण स्वागत से मेरा हृदय अपार हर्ष से भर गया है और मैं आपको दुनिया की प्राचीनतम संत परंपरा की तरफ से धन्यवाद देता हूँ। मैं आपको सभी धर्मों की जननी की तरफ से धन्यवाद देता हूँ और सभी जातियों, संप्रदायों के लाखों, करोड़ों हिंदुओं की तरफ से आपका आभार व्यक्त करता हूँ।
मेरा धन्यवाद कुछ उन वक्ताओं को भी है, जिन्होंने इस मंच से यह कहा कि दुनिया में सहनशीलता का विचार सुदूर पूरब के देशों से फैला है। मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूँ, जिसने दुनिया को सहनशीलता और सार्वभौमिक स्वीकृति का पाठ पढ़ाया। हम सिर्फ सार्वभौमिक सहनशीलता में ही विश्वास नहीं रखते, बल्कि हम विश्व के सभी धर्मों को सत्य के रूप में स्वीकार करते हैं।
मुझे गर्व है कि मैं उस देश से हूँ जिसने सभी धर्मों और सभी देशों के सताये गये लोगों को अपने यहाँ शरण दी। मुझे गर्व है कि हमने अपने दिल में इसराइल की वो पवित्र यादें सँजो रखी हैं जिनमें उनके धर्मस्थलों को रोमन हमलावरों ने तहस-नहस कर दिया था और फिर उन्होंने दक्षिण भारत में शरण ली। मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूँ जिसने पारसी धर्म के लोगों को शरण दी और लगातार अब भी उनकी मदद कर रहा है।
भाइयो! मैं आपको एक श्लोक की कुछ पंक्तियाँ सुनाना चाहूँगा, जिन्हें मैंने बचपन से स्मरण किया और दोहराया है और जो रोज करोड़ों लोगों द्वारा हर दिन दोहराया जाता है – ‘रुचिनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम। नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव।।’ इसका अर्थ है – जिस तरह अलग-अलग स्रोतों से निकली विभिन्न नदियाँ अंत में समुद्र में जाकर मिल जाती हैं, उसी तरह मनुष्य अपनी इच्छा के अनुरूप अलग-अलग मार्ग चुनता है, जो देखने में भले ही सीधे या टेढ़े-मेढ़े लगें, परंतु सभी ईश्वर तक ही जाते हैं।
सांप्रदायिकताएँ, कट्टरताएँ और इनकी भयानक वंशज हठधर्मिता लंबे समय से पृथ्वी को अपने शिकंजों में जकड़े हुए हैं। इन्होंने पृथ्वी को हिंसा से भर दिया है। कितनी ही बार यह धरती खून से लाल हुई है, कितनी ही सभ्यताओं का विनाश हुआ है और न जाने कितने देश नष्ट हुए हैं। अगर ये भयानक राक्षस न होते, तो आज मानव समाज कहीं ज्यादा उन्नत होता, लेकिन अब उनका समय पूरा हो चुका है।
मुझे पूरी उम्मीद है कि आज इस सम्मेलन का शंखनाद सभी हठधर्मिताओं, हर तरह के क्लेश, चाहे वे तलवार से हों या कलम से, और सभी मनुष्यों के बीच की दुर्भावनाओं का विनाश करेगा।
भाषण इतना शानदार रहा था कि लोगों ने तालियां बजानी शुरू की, तो रुक ही नहीं रहे थे. इसका अंदाजा खुद विवेकानंद को भी नहीं था. लेकिन क्या आप जानते हैं कि इस सुखद अनुभव से पहले स्वामीजी को अमेरिका में परेशानियां और दुश्वारियां भी झेलनी पड़ी थी? विवेकानंद ने इसके बारे में खुद लिखा है कि सम्मेलन से पहले एकबारगी तो उनका मन ऐसा हुआ कि सब कुछ छोड़ कर भारत वापस लौट जाएं.
जमशेदजी टाटा से भेंट
आज अगर देश के पास इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ साइंस जैसी संस्था है तो इसका श्रेय विवेकानंद को जाता है। जब विवेकानंद शिकागो भाषण देने जा रहे थे तो जहाज के सफर में उनकी भेंट जमशेदजी टाटा से हुई। दोनों की बातचीत कई मुद्दों को लेकर हुई और विवेकानंद को पता चला कि जमशेदजी कुछ नए बिजनस आइडिया के लिए अमेरिका जा रहे हैं।
विवेकानंद ने जमशेदजी टाटा को भारत में एक अनुसंधान और शैक्षिक संस्थान खोलने के अलावा एक स्टील फैक्ट्री की स्थापना की सलाह दी। उन्होंने कहा कि इससे देश के युवाओं का विकास होगा और उनको रोजगार का अवसर मिलेगा। जमशेदजी टाटा का इस पर काफी असर हुआ और उन्होंने इन दोनों मोर्चों पर काम करने की ठान ली। उस पर अमल करते हुए उन्होंने इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ साइंस की स्थापना की और स्टील फैक्ट्री भी खोली।
बोस्टन की यात्रा और जॉन हेनरी राइट से भेंट
शिकागो जाने के बाद विवेकानंद को पता चला कि धर्म संसद में हिस्सा लेने के लिए आधिकारिक अनुमति नहीं मिली है और सितंबर के पहले हफ्ते के बाद ही धर्म संसद शुरू होगी। उन्होंने बीच की अवधि के लिए बोस्टन जाने का फैसला किया। बोस्टन में उनकी मुलाकात हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के प्रफेसर जॉन हेनरी राइट से हुई।
राइट ने विवेकानंद को यूनिवर्सिटी में भाषण देने के लिए आमंत्रित किया और भाषण से वह काफी प्रभावित हुए। जब राइट को पता चला कि विवेकानंद के पास धर्म संसद में शामिल होने के लिए आधिकारिक अनुमति नहीं है और कोई परिचय पत्र भी नहीं है तो उन्होंने कहा, ‘आपका परिचय मांगना ठीक उसी तरह है जैसे सूर्य से स्वर्ग में चमकने के लिए उसके अधिकार का सबूत मांगना है।’
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