चेहल्लुम : इमाम हुसैन की शहादत को याद कर आंखें हुईं नम
चेहलुम: असत्य पर सत्य की जीत का पर्व
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
‘कत्ल-ए-हुसैन अस्ल में मरग-ए-यज़ीद है।
इस्लाम ज़िंदा होता है हर करबला के बाद॥
–मौलाना मुहम्मद अली
मैदाने कर्बला में शहीद हुए इमाम हुसैन और उनके 71 साथियों की शहादत के चालीसवें दिन चेहल्लुम मनाया गया। इमाम हुसैन मोहर्रम की दसवीं तारीख को शहीद हुए थे।
इस्लामिक तहजीब अपने मजहब के उसूलों की पाबंद होनी चाहिए। ये वही उसूल हैं, जिन्होंने मारकाट से भरी इस दुनिया में अमन का पैगाम दिया और इंसान को मुहब्बत से लबरेज किया। लेकिन वक्त के साथ-साथ इसमें भी लहरें आती हैं और जाती भी हैं। इन लहरों से जो विचलित हो जाते हैं, उन्हें अपने दिलों में झांककर पता करना होगा कि आखिर वह कौन सी वजह थी कि वे उसूलों से डिग गए। ऐसे ही एक रवायत थी, कि नवासा-ए-रसूल हजरत इमाम हुसैन के चेहल्लुम ‘चालीसवां’ में सार्वजनिक नौहाख्वानी होती थी, मातम होते थे, नज्र-ओ-नियाज होती थी। यह नज्र-ओ-नियाज (प्रार्थना) भी अब महज घरों तक सिमट कर रह गया है। अब हजरत की याद में न सार्वजनिक तौर पर नौहाख्वानी है, न मातम और न ही नज्र-ओ-नियाज।
इसका आयोजन निस्संदेह इस्लाम धर्म के लिए हज़रत मुहम्मद के निवासे इमाम हुसैन की सेवाओं और उनके बलिदानों को स्वीकार करना है। इमाम हुसैन का व्यक्तित्व हमेशा से बलिदान का आदर्श रहा है। उससे बड़ा बलिदान इस नश्वर संसार में विरले ही मिलेगा।
इमाम हुसैन का युग इस्लामी इतिहास में ऐसा युग था, जिसमें इस्लाम के विरुद्ध ऐसी शक्तियां उठ खड़ी हुई थीं, जो सीधे-साधे मुसलमानों को अपना निशाना बनाती थीं। ऐसे में हज़रत हुसैन ने इस्लाम की खोई हुई गरिमा को वापिस लाने और उसे सुदृढ़ करने का भरसक प्रयास किया, यहां तक कि इस पथ पर चलते हुए उन्होंने अपने जान की भी परवाह नहीं की।
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