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इंटरनेट से उत्पन्न भविष्य की चिंताओं की पड़ताल करती पुस्तक ” इंटरनेट की बदनाम दुनिया “

इंटरनेट से उत्पन्न भविष्य की चिंताओं की पड़ताल करती पुस्तक ” इंटरनेट की बदनाम दुनिया “

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प्रतीक्षा खत्म हुई, मेरी दूसरी पुस्तक ‘इंटरनेट की बदनाम दुनिया’ छप कर आ गई-राकेश प्रवीर

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

” इंटरनेट ” अग्नि की वो लौ है जिससे यदि हम अपने घर-आंगन को ज्ञान की दुनिया से रोशन कर सकते हैं तो फिर हमें अपने भविष्य की संभावनाओं को जला कर नष्ट करने का भी समान अवसर है। हालांकि यह तय करना 21वीं सदी के तीसरे दशक के मुहाने पर खड़े तथाकथित सभ्य समाज के सुविधा भोगी संपन्न लोगों के हाथ में है।

वरीय पत्रकार राकेश प्रवीर की नई पुस्तक “इंटरनेट की बदनाम दुनिया” इसी सच से साक्षात्कार कराती है। तकनीक मानव को संचालित करेगा? या फिर मानव तकनीक को? अब लोग इस सवाल से जुझने लगे हैं।
डिजिटल तकनीक आधारित कंप्यूटर और मोबाइल समाज, संस्कृति व अर्थव्यवस्था के साथ- साथ जीवन शैली को भी अपनी चपेट में ले रहा है। इस बदलाव से आम और खास सभी प्रभावित हैं।

इंटरनेट से जुड़ा हर व्यक्ति अब मीडिया की ताकत से लैस है लोगों को अपनी बात कहने के लिए अब न तो किसी अखबार की ज़रूरत है और न किसी टेलीविजन चैनल के रिपोर्टर की।

आठ अध्यायों ( 1. इंटरनेट की बदनाम दुनिया 2. डिजिटल स्ट्राइक 3. साइबर हमला, हैकिंग और जासूसी 4. साइबर क्राइम 5. डिजिटल इंडिया प्रोग्राम 6. इंटरनेट शाटडाउन 7. ऑनलाइन गेमिंग – मौत का खेल 8. मनोरंजन का नया अवतार ) में विभक्त इंटरनेट की विस्तृत दुनिया को समेटती यह पुस्तक अंतरजाल की मकड़जाल से उत्पन्न भविष्य की चिंताओं की कदम दर कदम पड़ताल करती हुई भविष्य की राह भी तलाशती है।

चूंकि राकेश प्रवीर स्वयं एक संवेदनशील, सृजनात्मक और अनुभवी पत्रकार हैं और इनके पास लगभग तीन दशकों से अधिक के प्रिंट और 2 वर्षों तक इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में कार्य करने के साथ-साथ लगभग डेढ़ दशक तक मीडिया अध्यापन का अच्छा-खासा अनुभव है। 1980 के दशक के मध्य से मीडिया के विभिन्न उपादानों को बहुत नजदीक से देखने, समझने और उन्हें जीने का इन्हें तजुर्बा है।
गत वर्ष प्रकाशित इनकी पुस्तक ” मीडिया का वर्तमान परिदृश्य ” मीडिया-जगत को जानने-समझने का समेकित अवसर प्रदान करती है। अब जमाना मीडिया का नहीं सोशल मीडिया का है। ” कुछ भी कर और सोशल मीडिया में डाल” के इस दौर में यह स्वीकार करना ही होगा कि मीडिया जन-माध्यमों को एक मूल्यगत विश्लेषण की जरूरत है जिससे यह स्पष्ट हो सके कि मीडिया आज भी एक स्वतंत्र रचनात्मक भूमिका निभाने वाला स्तंभ है या फिर कुछ ? जिसे हर कोई अपने तरीके से भुनाने और उपयोग में लाने में जी-जान से जुटा है।

” इंटरनेट की बदनाम दुनिया ” के बहाने राकेश प्रवीर ने व्यक्ति की निजता, स्वायत्तता के हनन के साथ-साथ राष्ट्रों पर नित गहराते संकट, साइबर क्राइम, जासूसी, असुरक्षा आदि की गहरी पड़ताल की है।
यह सही है कि इंटरनेट जनक सुविधाओं ने व्यक्ति और समाज की राह को बहुत आसान बनाया है। एक ओर जहां सूचनाओं के प्रवाह और ज्ञान के विस्तार के अनेक द्वार खुले हैं तो दूसरी ओर हमारे इर्द-गिर्द अनेक तरह खतरे और संकट भी उत्पन्न हुए हैं।

दरअसल राकेश प्रवीर उन लोगों से इत्तेफाक रखते हैं, जिनका मानना है कि इंटरनेट पर ज्यादातर सेवाएं इस तरह से डिजाइन की जाती है कि वह अपने उपभोक्ताओं को अपने बारे में हर जानकारी देने के लिए बहला-फुसला सके और यहीं से शुरू होता है संकट का दौर। दुनिया तेजी से बदल रही है और रोज तेजी से बदल रही इस दुनिया में इंटरनेट के कारण रफ्तार पकड़ती मानव की जीवन शैली को आखिर भविष्य में कौन नियंत्रित करेगा ?

वेब एडिक्शन से पीड़ित लोग, समाज और राष्ट्र का भविष्य किस ठौर जाकर थमेगा ? थमेगा भी या नयी राह पकड़ेगा ? राकेश प्रवीर अपनी इस नई पुस्तक के जरिए ऐसे कुछ भविष्यगत सवालों के हल ढूंढ़ने की कोशिश करते प्रतीत होते हैं। निश्चित तौर पर यह पुस्तक आधुनिक दौर के मीडिया परिदृश्य को समझने में सहायक है। यह पुस्तक मीडियो के छात्रों के साथ साथ मीडिया में कार्यरत पत्रकारों, राजनीतिज्ञों और बुद्धिजीवियों के लिए भी उपयोगी ग्रंथ साबित होगी। ऐसी पुस्तकें भविष्य की राह तलाशने में सहायक होती हैं। तथ्यात्मक विवरणों और विश्लेषण आधारित भविष्य की राह तलाशती यह पुस्तक सभी वर्ग के पाठक समूह द्वारा सराही जायेंगी, मुझे यकीन है।

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