मातृभाषा में शिक्षा को किस तरह प्रोत्साहित किया जाए ?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

स्वाधीनता की 75वीं वर्षगांठ पर यह विचार करने की जरूरत है कि छात्रों को देश के विभिन्न क्षेत्रों की सामाजिक एवं सांस्कृतिक विविधताओं और जीवन-मूल्यों का बोध कराने के साथ-साथ मातृभाषा में तकनीकी विषयों की शिक्षा को किस तरह प्रोत्साहित किया जाए…

उम्मीदों और संभावनाओं का दूसरा नाम है -भारत। यह एक ऐसा देश है, जिसने युगों-युगों तक दुनिया को ज्ञान की मशाल से रास्ता दिखाया। हमारे वेद, उपनिषद हजारों वर्षों बाद भी आज प्रासंगिक बने हुए हैं। जब दुनिया न्याय-अन्याय, यश-अपयश में उलझी हुई थी, तब हमारे देश में नालंदा और तक्षशिला जैसे विख्यात विश्वविद्यालयों में लोग दूर-दूर से शिक्षा ग्रहण करने आते थे। ज्ञान के क्षेत्र में हमारी प्राचीन विरासत महान रही है। बाहरी आक्रमणकारियों के बाद हमारी यह परंपरा क्षतिग्रस्त हुई। फिर अंग्रेजों ने भारत में शिक्षा को साम्राज्यवाद के लिए इस्तेमाल किया।

आज भारतवर्ष अपनी आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है। देश को स्वतंत्र हुए 75 साल होने जा रहे हैं। यह दिन उस प्रतिज्ञा को याद दिलाता है, जो हमने एकजुट होकर गुलामी का प्रतिकार करने के लिए ली थी। आजादी के 75 साल पूरे होने के बीच हमारे देश के लिए यह एक विडंबना ही है कि हम शिक्षा के माध्यम से भारतीय जनमानस के अंत:करण में स्वाभिमान व सांस्कृतिक धरोहर का बोध मजबूत करने में असफल रहे हैं।

स्वतंत्रता के पश्चात शिक्षा व्यवस्था को व्यावहारिक, प्रासंगिक तथा विकास की आवश्यकताओं के अनुरूप ढालने के प्रयास तो हुए हैं, लेकिन कुछ सफलताओं को छोड़ दें तो वर्तमान शिक्षा प्रणाली आज भी औपनिवेशिक मानसिकता से ग्रस्त है। पठन-पाठन की प्रक्रिया एकतरफा बनी हुई है, जिससे सक्रिय सहभागिता, आपसी सहयोग तथा क्रियाशील तत्परता के स्थान पर श्रुति और स्मृति का बोलबाला हो गया है। इस परिवेश में छात्रों द्वारा कार्य नियोजन, उच्च स्तरीय चिंतन, नवाचार तथा क्रियात्मक गतिविधियों का नितांत अभाव हो गया है।

औपनिवेशिक शिक्षा पद्धति और अंग्रेजी की अनिवार्यता के चलते शिक्षण संस्थान महज डिग्रीधारी नकलचियों की फौज खड़ी करने में लगे हुए हैं। शिक्षण संस्थान रोबोट और क्लोन बनाने की दक्षता को ही श्रेष्ठता का पर्याय मान रहे हैं, क्योंकि रोबोट विरोध नहीं करते और क्लोन से विकसित प्राणी प्रकृति प्रदत्त विलक्षणता खो देते हैं, अतएव उनकी मौलिक सृजनशीलता बचपन में ही कुंठित हो जाती है। केवल करियर बनाना और पैसा कमाना इनका मुख्य ध्येय रह गया है। ऐसे में हम अपने प्राचीन ज्ञान की परंपरा खोते जा रहे हैं। इससे समाज नैतिक रूप से क्षीण होता जा रहा है।

आज हमें अपनी शिक्षा पद्धति के तहत छात्रों को न सिर्फ देश के विभिन्न क्षेत्रों की सामाजिक व सांस्कृतिक विविधताओं का बोध कराया जाना जरूरी है बल्कि हिंदी और अंग्रेजी के अतिरिक्त एक संपर्क भाषा को भी प्रोत्साहित किया जाना जरूरी है। एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद करने की योजना व बहुभाषी शब्दकोश व शब्दावलियां तैयार की जाएं। इस प्रकार भाषा अलगाव का नहीं, बल्कि परस्पर जोड़ने का साधन बन सकेगी।

युवा वर्ग अपनी दृष्टि व अपने विचारों के अनुसार देश की संस्कृति का इतिहास खोजने के लिए प्रोत्साहित हो सकेंगे। तकनीकी विषयों को मातृभाषाओं में कैसे पढ़ाया जाए? इस चुनौती का भी सामना हम सभी को करना होगा। क्या मेडिकल और इंजीनियरिंग की पढ़ाई वर्नाक्यूलर भाषाओं में हो सकती है? एक शिक्षण संस्थान के प्रमुख होने के नाते मैं गंभीरतापूर्वक प्रयास करूंगा कि आगामी वर्षों में तकनीकी विषयों को मातृभाषा के दायरे में लाया जा सके।

नये भारत की रचना में शिक्षण संस्थान भी अहम भूमिका निभा सकते हैं। शिक्षण संस्थान ऐसा स्थान होता है, जहां छात्र सामाजिक संबंधों की रचना करना सीखता है। मनुष्य का व्यक्तित्व दूसरों के साथ उसके संबंधों के माध्यम से ही विकसित और परिपक्व होता है। इसलिए शिक्षण परिसरों के लिए यह अति आवश्यक है कि इन संबंधों का आधार धन-दौलत व अन्य भौतिक संपदा ना हो। शिक्षण संस्थानों की यह भूमिका होनी चाहिए कि वे शिक्षा के प्रारंभिक स्तर से ही विद्यार्थियों में ईमानदारी, आपसी सहयोग तथा परिश्रम जैसे मूल्यों के प्रति आदर-भाव उत्पन्न करें। तभी विद्यार्थी समर्पण तथा प्रतिबद्धता की भावना से काम करेंगे तथा विशिष्टता प्राप्त कर सकेंगे।

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