बापू हमारा यह छोटा सा खिलौना ‘सिनेमा’ इतना भी अनुपयोगी नहीं है -ख्वाजा अहमद अब्बास
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
गांधीजी के नाम फ़िल्मकार और लेखक ख्वाजा अहमद अब्बास का यह पत्र फिल्म इण्डिया पत्रिका के अक्टूबर 1939 अंक में प्रकाशित हुआ था।
मेरे प्रिय बापू,
आपके 71वें जन्मदिवस के खुशनुमा अवसर पर सादर शुभकामनाएं. ऐसे समय में जब आपका पूरा ध्यान युद्ध और शांति के मसले पर केन्द्रित है, मैं इसमें खलल डालने के लिए माफी चाहता हूं. लेकिन, युद्ध हो या न हो, जीवन की अबाध धारा अपने विविध रूपों में बहती रहनी चाहिए. गोलाबारी के दरम्यान भी लोगों को प्यार करना और प्यार पाना चाहिए, दोस्त बनाने चाहिए और साथी खोजना चाहिए, हंसना और हंसाना चाहिए, मनोरंजन पाना और मनोरंजन करना चाहिए.
और, हमेशा की तरह, बच्चों को अपनी समस्याएं और मुश्किलें लेकर अपने पिताओं की ओर दौड़ना चाहिए. हम, हिन्दुस्तान की संतानें, सांत्वना और सलाह के लिए आपके अलावा- जिन्हें हम पिता की तरह प्यार और सम्मान देते हैं- और कहां जायेंगे? आज मैं आपके सामने विचार और स्वीकृति के लिए एक नया खिलौना- सिनेमा- को रख रहा हूं जिसके साथ हमारी पीढ़ी ने खेलना सीखा है.
आपके हाल के दो बयानों को देखकर मुझे आश्चर्य और दुःख हुआ है जिनमें आपने सिनेमा को थोड़ा हिकारत के भाव से देखा है (जैसा मुझे प्रतीत हुआ).
इंडियन मोशन पिक्चर कांग्रेस के अवसर पर सन्देश के लिए एक बॉम्बे जर्नल की महिला संपादक के निवेदन के जवाब में आपने संक्षिप्त उत्तर दिया कि आपने कभी फिल्में नहीं देखी हैं. एक हाल के बयान में आपने सिनेमा को जुआ, सट्टा, घुड़-दौड़ आदि जैसी बुराइयों के साथ रखा है, जिससे आप ‘जाति-बहिष्कृत’ होने के डर से दूर रहते हैं.
ये बयान अगर किसी और ने दिए होते तो इनसे चिंतित होने कि जरूरत नहीं थी. आखिर अपनी-अपनी पसंद का मामला है. खुद मेरे पिता फिल्में नहीं देखते और उन्हें पश्चिम से आयातित बुराई समझते हैं. मैं उनके इस विचार को न मानते हुए भी इसका सम्मान करता हूं. लेकिन आपकी बात अलग है. इस देश में- मैं कह सकता हूं, दुनिया में- जो आपका बड़ा मुकाम है, उसे देखते हुए आपके द्वारा थोड़ा कहा जाना भी करोड़ों लोगों के लिए बहुत अहमियत रखता है.
मुझे कोई संदेह नहीं है कि सिनेमा के बारे में रुढ़िवादी और दकियानूस लोगों की बड़ी संख्या के विचारों की आपके बयान से पुष्टि हुई होगी. वे कहेंगे कि सिनेमा बड़ी बुरी चीज है, तभी महात्मा से उसे स्वीकृति नहीं मिली. फलस्वरूप दुनिया के सबसे उपयोगी अविष्कारों में से एक को छोड़ दिया जायेगा या अनैतिक लोगों के द्वारा लांछन झेलने के लिए अकेले छोड़ दिया जायेगा (जो कि और बुरी स्थिति होगी).
मुझे नहीं पता है कि सिनेमा के बारे में इतने बुरे विचार आपके कैसे बने. मुझे यह भी नहीं पता कि आपने कोई फिल्म देखने की कोशिश भी की या नहीं. मैं अनुमान लगा सकता हूं कि एक राजनीतिक सभा से दूसरे सभा में जाने के दरम्यान आपकी नज़र कुछ बुरे फिल्मी पोस्टरों पर पड़ी होगी जिन्होंने शहर की दीवारों को गन्दा कर दिया है और आप इस नतीजे पर पहुंच गए होंगे कि फिल्में बुरी होती हैं और सिनेमा बुराई की रंगशाला-भर है.
मैं यह साफ तौर पर स्वीकार करता हूं कि बहुत-सी फिल्में नैतिक और कलात्मक दृष्टिकोण से बुरी हैं. उनके निर्माता पैसा कमाने के लिए आदमी की घटिया मनोवृतियों का दोहन करते हैं.
मैं यह भी स्वीकार करता हूं कि आप और आपकी पीढ़ी के अधिकांश लोग उस खिलंदड़ रोमांस को पसंद नहीं करेंगे जिसका आनंद हमारी पीढ़ी फिल्मों में लेती है. यहां मैं इस पर बात नहीं करना चाहता हूं. कोई भी दो पीढ़ियां सामाजिक दृष्टिकोण को लेकर एकमत नहीं हुई हैं और न ही आगे होंगी. नैतिकता की अवधारणा समय-समय पर बदलती रहती है. पचास साल पहले एक औरत का किसी आदमी से बात करते देखा जाना अनैतिक था. आज यह सब बदल गया है.
विपरीत लिंगी के प्रति आकर्षण जीवन का बुनियादी तथ्य है. आदम और हव्वा के जमाने से आदमी और औरत एक-दूसरे से प्रेम करते रहे हैं. और, मेरा भरोसा करें, शारीरिक आकर्षण और आत्मिक प्रेम के बीच के सूक्ष्म अंतर को समझ पाना आम आदमी के बूते से बाहर है.
खैर, यहां मैं रोमांटिक फिल्मों का पक्ष नहीं ले रहा हूं. मैं आपसे यह नहीं उम्मीद करता हूं कि आप उन्हें देखें और स्वीकृति दें. मैं सिर्फ यह कहना चाहता हूं कि सिनेमा एक कला है, अभिव्यक्ति का एक माध्यम है, और इसीलिए कुछ (या अधिकांश) फिल्मों के आपत्तिजनक होने के कारण इसकी निंदा करना उचित नहीं है. आखिरकार, किताबों की निंदा इसलिए नहीं की जा सकती कि उनमें पोर्नोग्राफी के ग्रन्थ शामिल भी हैं.
वायरलेस का शानदार अविष्कार (जिसने हाल में हुए कांग्रेस वर्किंग कमेटी की ऐतिहासिक बैठक के बारे में पूरी ख़बर दुनिया को दी) को सिर्फ इसलिए निन्दित नहीं किया जा सकता है कि ऑल इण्डिया रेडियो अक्सर प्यार और रोमांस के गाने प्रसारित करता रहता है. उसी रेडियो पर लोग भगवद गीता और पवित्र कुरआन के पाठ भी सुनते हैं.
हवाई जहाज जिसने दुनिया के यातायात में क्रान्तिकारी परिवर्तन लाया है और जिसके द्वारा अक्सर चिकित्सकीय मदद भेजी जाती है, उसे इस वजह से नहीं खत्म कर दिया जाना चाहिए क्योंकि हिटलर ने उनका इस्तेमाल निर्दोष लोगों पर बमबारी के लिए किया था. ये आविष्कार बुरे नहीं हैं, भले ही कुछ बुरे लोग इनका इस्तेमाल अपने अपने स्वार्थ के लिए कर लेते हैं. लेकिन बुरे लोगों ने धर्म और देशभक्ति जैसी उत्तम संस्थाओं का भी बेजा और स्वार्थपूर्ण इस्तेमाल किया है! धर्म इसलिए बुरा नहीं हो जाता कि इसके नाम पर करोड़ों लोगों को मारा गया है और देशभक्ति अब भी एक सद्गुण है, भले ही युद्धोन्मादियों ने देशभक्ति के तथाकथित उद्देश्यों के नाम पर साम्राज्यवादी जंगे छेड़ी हैं.
और क्या आप जानते हैं, महात्मा जी, कुछ देशभक्त आपके प्रेरणादायक जीवन पर फिल्म बनाने की कोशिश में लगे हैं.
आप शायद भरोसा न करें लेकिन आपके नेतृत्व में चल रहे राष्ट्रीय आन्दोलन ने हिन्दुस्तानी सिनेमा को स्वच्छ बनाने और पुनर्जागृत करने में परोक्ष रूप से बहुत योगदान दिया है. हमारे राष्ट्रीय स्वाभिमान को हमें वापस देकर आपने शानदार सांस्कृतिक लहर पैदा की है और राष्ट्रीय कला को नवजीवन दिया है जिसका स्वाभाविक प्रतिबिम्ब बेहतर और सामाजिक रूप से अधिक उपयोगी फिल्मों में दिखता है.
इसीलिए मैं समझता हूं कि सिनेमा में आपको ‘देश का नेतृत्व करने वाला’ दिखाना कोई अक्षम्य धृष्टता नहीं है.
ऐसी फिल्में बना इसलिए संभव हो सका है कि थोड़े लेकिन ईमानदार और सामाजिक रूप से सचेत लोग फिल्मों में रुचि लेने लगे हैं. दस साल पहले ऐसी फिल्में नहीं बनती थीं क्योंकि शिक्षित और ‘सम्माननीय’ लोग सिनेमा को बुरी और घृणास्पद चीज समझकर हिकारत की दृष्टि से देखते थे.
आज ये पूर्वाग्रह बदल रहे हैं. हिन्दुस्तानी फिल्मों की ‘मार्जन’ की प्रक्रिया ईमानदार और जिम्मेदार लोगों के आने की गति के समानुपातिक होगा जो यहां वर्षों से काबिज मूर्ख मुनाफाखोरों की जगह लेंगे.
हम चाहते हैं कि भले लोग इस उद्योग में अधिक रुचि लें, ताकि यह तमाशा की जगह सामाजिक भलाई का औजार बन सके. लेकिन आप और आप जैसे अन्य महान लोग सिनेमा को जुआखोरी और शराबखोरी जैसी बुराईयों के साथ रखते रहेंगे तो अच्छे लोग हतोत्साहित होंगे और इससे दूर रहेंगे.
बापू, आप एक महान आत्मा हैं. आपके हृदय में पूर्वाग्रहों के लिए कोई जगह नहीं है. हमारे इस छोटे-से खिलौने, सिनेमा, पर, जो इतना अनुपयोगी नहीं है जितना दिखता है, थोड़ा ध्यान दें और उदारतापूर्ण मुस्कान के साथ इसे अपना आशीर्वाद दें.
आदर और प्रेम सहित आपका,
ख्वाजा अहमद अब्बास
फिल्म इण्डिया, अक्टूबर, 1939
- यह भी पढ़े…….
- गाँधी जी की प्रतिमा के समक्ष बड़ी संख्या में मोतिहारी वासी मौन सभा में शामिल हुए,क्यों?
- डेंगू ज्वर आजकल एक विकराल समस्या के रूप में उभर रहा है- डॉ अनुपम आदित्य
- पुस्तक ‘फेर ना भेटाई ऊ पचरूखिया’ 1960-70 के दशक का दस्तावेज है
- बिहार के अस्पताल में मरीज की बहन से बनाया अवैध संबंध