सब्र और समर्पण का अनोखा पर्व “छठ पूजा”
नारी ही ईश्वर हैं, शक्तिरूपा हैं, सेवा संचयनी है,
संस्कृति हैं, सुदृढ़ आकृति हैं, सप्रेम मृग नयनी हैं।
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
भावनाएं जब अपनी सीमा का अतिक्रमण करने लगती हैं तो शब्द मौन हो जाते हैं।शब्दों की भी एक सामर्थ्य-सीमा होती है।कभी-कभी हु-ब-हू अपनी भावनाओं को ऊकेर देना शब्दों के बस की बात नहीं होती क्योंकि भावना एक अनुभूति है और शब्द उसकी प्रस्तुति।मगर जब एक ऐसी सामाजिक और धार्मिक भावना को प्रस्तुत करने की बात हो जो हजारों सालों की सामाजिक समरसता, धार्मिक भावना और शुद्धता के साथ त्याग को अपने आप में समेटे हुए है तो शब्दों की लाचारी स्वाभाविक है।छठ की भावना को हु-ब-हू ऊकेरने के लिए मा सरस्वती से शब्दों की भीख मांगनी पडेगी।कदाचित वह न भी दे।इसलिए मैं भी लाचार हूँ।
छठ और सूर्योपासना!
किवदन्तियो के अनुसार सूर्य और षष्ठी भाई-बहन हैं।पौराणिक कथाएं कहती हैं कि सबसे पहले सूर्य ने हीं अपनी बहन षष्ठी को “मातृशक्ति” मानकर उनका पूजन किया था।यहीं “षष्ठी” कालान्तर में “छठी” हो ग ई और बाद में शायद उसी का अपभ्रंश रूप “छठ” हो गया। शायद इसीलिए सूर्य के साथ-साथ “छठी” की भी पुजा होती है।मार्कण्डेय पुराण के अनुसार प्रकृति ने अपनी शक्तियों को कई अंशों में विभाजित कर रखा है।प्रकृति के छठे अंश को “देवसेना” कहा गया है।प्रकृति का छठा अंश होने के कारण भी इनका एक नाम “षष्ठी” है और छठ पुजा में प्राकृतिक चीजों का ही महत्व है।इनका एक नाम “कात्यायनी” भी है जिनकी पुजा दुर्गा-पूजा में षष्ठी तिथि को होती है।
एक दुसरे कथानुसार एक राजा हुए-“प्रियंवद”।निसंतान थे।भगवान सूर्य के आदेशानुसार उन्होंने “षष्ठी” की पुजा की तब उन्हें पुत्र हुआ।सूर्य ने अपनी बहन को सामाजिक मान्यता दिलाने के लिए राजा को पुत्र के जन्म के छठें दिन छठी करने को कहा जिसे हम आजतक “छठियार” के रूप में मनाते आ रहे हैं।इसी कथा से प्रेरित होकर निसंतान दम्पति भी छठ-व्रत करते हैं।सूर्य की सात किरणों में से छठी किरण आरोग्य और भक्ति की प्रणेता है।
सामाजिक पहलू–यहीं एकमात्र ऐसा त्योहार है जो चार दिन चलता है मगर कहीं कोई दंगा-फसाद नहीं,internet connection नहीं काटा जाता,किसी शान्ति-समिति की बैठक नहीं होती,चंदे के नाम पर कोई गुंडा-गर्दी नहीं,शराब की दुकान बंद कराने के लिए कोई नोटिस नहीं चिपकाना पडता,मिलावटी मिठाई की कोई गुंजाइश नहीं,ऊच-नीच का भेद नहीं,किसी व्यक्ति या किसी धर्म विशेष का कोई जयकारा नहीं,राजा-रंक सब कतार में,समझ से परे रहने वाला कोई मंत्र नहीं,दान-दक्षिणा का कोई रिवाज नहीं।पर सबसे अद्भुत बात यह कि इसके लिए किसी भी तरह के भौकाली “जागरूकता-अभियान” भी नहीं।सब कुछ स्वतः।अपने आप।
छठ दुनिया की एक ऐसी अद्भुत पुजा है जिसमें किसी भी पंडित-पुजारी की कोई जरूरत नहीं होती,कोई पुरोहितवाद नहीं। जिसमें देवता सामने हैं।जिसमें डुबते सूर्य को भी पुजते हैं।जिसमें व्रतियो में कोई जातिवाद नहीं।सारे पकवान घर में बनते हैं।बाजार से कुछ भी नहीं।अमीर-गरीब सब श्रद्धा से प्रसाद लेते हैं।कोई ऊच-नीच नहीं।
आज के अहंकारी और अर्थ-प्रधान युग में छठ हीं एक ऐसा पर्व है जिसमें भीख मागकर व्रत करने वालों को ज्यादा बडाई मिलती है चाहे वह धन्नासेठ हीं क्यों न हो?सब कुछ स्वतः स्फूर्त।समभाव से।
निष्कर्ष यह कि जो समभाव,बराबरी, भक्ति,और शुद्धता छठ में हमें देखने को मिलती है तो यह क्यों नहीं मानें कि असली “समाजवाद” छठ में ही प्रतिबिम्बित होता है? मतलब छठ ही “समाजवाद का कारखाना” है।
छठी मैया सबका कल्याण करें।
जय छठी मैया!
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