माट साहब के नहीं रहने के बाद सभी उनके होने का मतलब समझ रहे हैं-संजय सिंह

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

मोती माट साहब की पुण्यतिथि है । उन्हें गये एक साल हो गये। उनके पैतृक निवास पर स्मृति सभा आयोजित की गयी थी। मुझे भी रहना था किन्तु अनुकूल स्थिति नहीं रही।

रोज सूरज निकलता रहे, रोशनी देता रहे तो एक अंतराल के बाद लोग उसके महत्व से उदासीन होने लगते हैं। एक दिन, दो दिन न निकले तो प्रलय की संभावना दिखाई देने लगती है।

माट साहब के नहीं रहने के बाद सभी उनके होने का मतलब समझ रहे हैं।

अपने विद्यार्थी जीवन में 30 किलोमीटर तक दौड़ कर पढ़ने के लिए जाना (रोज नहीं -हफ्ते में एकाध दिन ही सही ) पढ़ने के लिए पागलपन का एक नया चित्र गढ़ता है। माट साहब ने ऐसा किया। एक दो दिन नहीं – दो तीन सालों तक।

नाटक जैसे धमनियों में खून बनकर बहता था उनके। महीनों पहले उनके दिमाग में स्पष्ट हो चुका होता, इस बार किसको कौन सा रोल देना है। अपनी भूमिका भी तय कर चुके होते। नाटक सिर्फ मनोरंजन नहीं, सामाजिक बदलाव का टूल था उनके लिए।

मैं विद्यार्थी रहा था उनका। विद्यार्थियों में प्रिय वहीं होता जो पढ़ाई के साथ खेलता… नाटक करता…. भाषण देता…. गीत गाता……उनकी नजर में विद्यार्थी होने का मतलब था – हरफनमौला होना। जैसे वे स्वयं थे। शायद इसीलिए जीवन की अंतिम सांस तक उन्होंने अपना उपनाम विद्यार्थी रखा । मोहन प्रसाद विद्यार्थी।

मेरे जीवन को गढ़ने में जिन शिल्पकारों की भूमिका रही है, माट साहब उनमें से एक हैं।

आपके नहीं रहने से हमने एक अभिभावक और मार्गदर्शक खो दिया है गुरुदेव! एक शिष्य के रूप में हम अभी तक आपके ऋण से उऋण नहीं हो सके हैं। इसकी शुरुआत उस दिन होगी जिस दिन आपका अधूरा सपना पूर्ण होगा। हमें अपना आशीर्वाद और सम्बल प्रदान करते रहिएगा।

सादर नमन

 

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