फूले फूले चुनि लियै, काल्हि हमारी बार…पुरुषोत्तम अग्रवाल
शत-शत नमन ,निधन से साहित्य जगत में शोक
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
गंभीर, विचारोत्तेजक मार्क्सवादी धारा के आलोचनात्मक लेखन के लिए जाने जाते रहे मैनेजर पाण्डेय के निधन से साहित्य जगत में संवेदनाओं की लहर है। बड़ी संख्या में लेखक, पत्रकार, संपादक, भाषा-साहित्य के अकादमिक जगत, साहित्यिक संगठनों और प्रकाशन संस्थानों से जुड़े लोगों ने निधन पर शोक जताया है।
मैनेजर पाण्डेय पिछले साढ़े तीन दशकों से हिंदी साहित्य के सक्षक्त स्तंभ थे. अपने साहित्यिक करियर के दौरान उन्होंने कई पुस्तकें प्रकाशित की. उन्होंने भक्ति आंदोलन और सूरदास का काव्य, आलोचना में सहमति-असहमति, हिंदी कविता का अतीत और वर्तमान जैसे तमाम विषयों पर लिखा. मैनेजर पाण्डेय को उनके लेखन के लिए तमाम पुरस्कारों से नवाजा गया. इनमें दिल्ली की हिंदी अकादमी द्वारा दिया गया शलाका सम्मान, राष्ट्रीय दिनकर सम्मान, रामचंद्र शुक्ल शोध संस्थान द्वारा दिया गया वाराणसी का गोकुल चन्द्र शुक्ल पुरस्कार और दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा का सुब्रह्मण्य भारती सम्मान शामिल हैं.
वे भक्तिकाल और सूर साहित्यके विशेषज्ञ थे । साहित्य और इतिहासदृष्टि तथासाहित्य में समाजशास्त्र भूमिका एवम शब्द और कर्म पुस्तक से उनको ख्याति मिली थी।मुगल बादशाहों की हिंदी कविता उनकी चर्चित कृति थी।वे जनसंस्कृति मंच के अध्यक्ष भी थे।
हिंदी के प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह ने श्री पांडेय कीप्रतिभा को पहचान कर उन्हें 1977 में जवाहर लाल नेहरू विश्विद्यालय में हिंदी विभाग में लाये थे।
छोटे गांव से साहित्य के शीर्ष तक अकादमिक सफर
मैनेजर पाण्डेय का जन्म बिहार के गोपालगंज जिले के लोहटी में 23 सितंबर, 1941 को हुआ था। हिंदी भाषा और साहित्य में अपनी अलग पहचान बनाने वाले भोजपुरी भाषी मैनेजर पांडेय की उच्च शिक्षा (एमए और पीएचडी) काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हुई थी। शुरुआत में उन्होंने बरेली कॉलेज, बरेली और जोधपुर विश्वविद्यालय में अध्यापन किया। इसके बाद जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में हिंदी के प्रोफेसर और भारतीय भाषा केन्द्र के अध्यक्ष भी रहे। अपने अध्यापन के पेशे में भी उन्होंने लंबी लकीर खींच दी।
तुलसीदास से प्रेरित और प्रभावित रहे मैनेजर पांडेय
लोक जीवन से गहरे जुड़े आलोचक मैनेजर पांडेय खुद को तुलसीदास से अधिक प्रेरित और प्रभावित मानते और बताते थे। वहीं उन्होंने भक्त कवि सूरदास पर अपनी महत्वपूर्ण पुस्तक “भक्ति आंदोलन और सूरदास का काव्य” लिखी। उनका कहना था कि तुलसीदास के ‘संग्रह-त्याग न बिनु पहिचाने’ से उन्होंने अपना आलोचनात्मक विवेक बनाया था। इसके अलावा वह विरोध करने की प्रवृत्ति को लोकतंत्र की आत्मा मानते थे। इसका वह साहित्य के क्षेत्र में खुद भी पालन करते थे।
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