मोटे अनाजों का दौर लौटता दिख रहा है,कैसे?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

कभी गरीबों का अनाज कहकर थाली से बाहर कर दिए गए मोटे अनाज अब फिर चर्चा में हैं। इन अनाजों में बाजरा, रागी, ज्वार, सावां, कोदो और कुटकी आदि शामिल हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपने संबोधन में मोटे अनाजों के लिए पोषक अनाज शब्द का इस्तेमाल करते हैं। असल में यही इनकी पहचान है। पोषण के मामले में ये अनाज गेहूं और धान से बहुत आगे हैं। यह खुशी की बात है कि देर से ही सही, लेकिन लोगों को इनकी अहमियत का अंदाजा होने लगा है।

बात पोषण की ही नहीं है, उत्पादन के लिहाज से भी ये अनाज कई खूबियों से लैस हैं। सही मायने में ये किसान की हितैषी फसलें हैं। इनकी खूबियां देखकर कहा जाता है कि इन्हें प्रकृति ने स्वयं चुना है। ये अनाज विषम परिस्थितियों मसलन पानी की कमी, बीमारी इत्यादि से जूझने की खूबी लिए होते हैं। यानी इनकी खेती सस्ती और कम चिंता वाली होती है। इन अनाजों का भंडारण आसान है और ये लंबे समय तक सही बने रहते हैं।

इसलिए खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने में भी इनकी भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है। लौह व जिंक तत्व इनमें भरपूर मात्रा में पाया जाता है। भोजन में नियमित रूप से इन्हें शामिल किया जाए, तो स्वास्थ्य संबंधी कई बड़ी परेशानियों से बचना संभव हो सकता है। एक समय भारतीय थाली में इन्हें विशेष स्थान मिलता था। धान व गेहूं के प्रचलन के बाद हमारी थाली से पोषक तत्वों से भरपूर ये अनाज दूर होते चले गए।

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अब भारत सरकार ने इन पोषक अनाजों को थाली में स्थान दिलाने को लेकर बहुस्तरीय प्रयास शुरू किया है। प्रधानमंत्री मोदी के प्रयासों का ही परिणाम है कि 2023 को इंटरनेशनल मिलेट्स ईयर (अंतरराष्ट्रीय मोटा अनाज वर्ष) घोषित किया गया है। यह मात्र कागजी एलान नहीं है। इसके कई फायदे होंगे। सबसे बड़ा फायदा यह है कि लोगों में इन पोषक अनाजों के प्रति जागरूकता बढ़ेगी। साथ ही इन अनाजों का एक अंतरराष्ट्रीय बाजार भी विकसित हो सकेगा।

यह प्रश्न भी है कि ये प्रयास इन अनाजों की उपज बढ़ाने में कितने सहायक हो सकते हैं। असल में इसका उत्तर जानने के लिए हमें मांग एवं आपूर्ति के सिद्धांत के बारे में सोचना होगा। अर्थव्यवस्था का बहुत सीधा सा नियम है कि बाजार में जब किसी वस्तु की मांग बढ़ती है, तो उसकी आपूर्ति बढ़ाने के लिए उत्पादन भी बढ़ने लगता है।

इस मामले में भी ऐसा ही है। सरकारों के प्रयास से जब लोगों में मोटे अनाज को लेकर जागरूकता बढ़ेगी, तो बाजार से मांग निकलेगी। स्वत: इस मांग को पूरा करने के लिए किसान इनकी खेती के प्रति प्रोत्साहित होने लगेंगे। हमें भूलना नहीं चाहिए कि कभी हमारे कुल अनाज उत्पादन में मोटे अनाजों की हिस्सेदारी 40 प्रतिशत तक होती थी। इस दिशा में शोध संस्थानों और विज्ञानियों की भूमिका भी अहम है।

भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, पूसा इन पोषक अनाजों पर लगातार कार्य कर रहा है। यहां बाजरा पर विशेष कार्य किया गया है। कई लोग बाजरे का आटा इसलिए इस्तेमाल नहीं करते थे, क्योंकि उनकी शिकायत थी कि इसका आटा जल्दी खराब हो जाता है। इसमें कड़वापन आने लगता था। इस कारण से लोग मल्टीग्रेन आटे में भी बाजरे का आटा नहीं मिलाते थे। संस्थान के विज्ञानियों ने इस समस्या को दूर कर दिया है।

इसके लिए हाइड्रो थर्मल विधि अपनाई गई। इस तकनीक के तहत बाजरे को पहले गर्म पानी में उबाला गया। फिर इसे धूप में सुखाया गया। पूरी तरह सूखने के बाद तैयार आटे में ये दोनों दिक्कतें नहीं देखी गईं। बाजरे के वैल्यू एडिशन पर भी काम किया जा रहा है। बाजरे की 13 बायोफोर्टिफाइड किस्में विकसित की गई हैं। अन्य अनाजों को लेकर भी इसी तरह के प्रयास बड़े पैमाने पर किए जाने की आवश्यकता है। इन अनाजों को लोकप्रिय बनाने के लिए इनसे नूडल्स, कुरकुरे आदि बनाने की दिशा में भी काम होना चाहिए। जितना ज्यादा बाजार बढ़ेगा, किसान इनकी खेती के लिए उतना ही ज्यादा प्रोत्साहित होंगे।

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