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अमीरी और गरीबी के बीच बढ़ती खाई क्यों नहीं बनती राजनीतिक मुद्दा? - श्रीनारद मीडिया

अमीरी और गरीबी के बीच बढ़ती खाई क्यों नहीं बनती राजनीतिक मुद्दा?

अमीरी और गरीबी के बीच बढ़ती खाई क्यों नहीं बनती राजनीतिक मुद्दा?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

गुजरात के विधानसभा चुनाव का एक मुख्य मुद्दा अमीरी गरीबी के बढ़ते फासले एवं गरीबों की दुर्दशा का होना चाहिए था, लेकिन दुर्भाग्य से यह मुद्दा कभी भी चुनावी मुद्दा नहीं बनता। अमीर अधिक अमीर हो रहे हैं और गरीब अधिक गरीब। गौतम अडाणी एवं मुकेश अंबानी के दिन दोगुने रात चौगुने फैलते साम्राज्य पर उंगली उठाई जानी चाहिए, पर कोई भी राजनीतिक दल यह नहीं कर पा रहे हैं। विपक्ष के सामने इससे अच्छा क्या मुद्दा हो सकता है?

इस मामले में राहुल गांधी ने पहली बार अपनी भारत जोड़ो यात्रा में यह मुद्दा उठाकर अपने राजनीतिक कद को तनिक ऊंचाई दी है। उनके कारण कम से कम अमीर और गरीब के बीच बढ़ती हुई खाई का सवाल देश के मानस पटल पर दर्ज हुआ है। राहुल गांधी ने लगातार गरीबों की दुर्दशा और अमीरों की बढ़ती दौलत का सवाल उठाया है। राजनीति से इतर अर्थशास्त्रियों और विश्व की नामचीन संस्थाओं की रपटों में यह सवाल लगातार रेखांकित हो रहा है।

गरीबी-अमीरी के असंतुलन को कम करने की दिशा में काम करने वाली वैश्विक संस्था ऑक्सफैम ने अपनी आर्थिक असमानता रिपोर्ट में समृद्धि के नाम पर पनप रहे नये नजरिया, विसंगतिपूर्ण आर्थिक संरचना एवं अमीरी गरीबी के बीच बढ़ते फासले की तथ्यपरक प्रभावी प्रस्तुति देते हुए इसे घातक बताया है। आज देश एवं दुनिया की समृद्धि कुछ लोगों तक केन्द्रित हो गयी है, भारत में भी ऐसी तस्वीर दुनिया की तुलना में अधिक तीव्रता से देखने को मिल रही है। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटी के निर्देशन में बनी वर्ल्ड इनिक्वालिटी रिपोर्ट 2022 भारत की आर्थिक विषमता की तस्वीर पेश करती है।
इसके अनुसार 2021 में भारत के हर वयस्क व्यक्ति की औसत आय प्रतिमाह 17 हजार के करीब थी। लेकिन देश की निचली आधी आबादी की औसत मासिक आय 5 हजार भी नहीं थी, जबकि ऊपर के 10 प्रतिशत व्यक्तियों की औसत मासिक आय 1 लाख के करीब थी। शीर्ष पर बैठे 1 प्रतिशत की प्रति व्यक्ति मासिक आय लगभग चार लाख रुपए थी। देश में मानवीय मूल्यों और आर्थिक समानता को हाशिये पर डाल दिया गया है और येन-केन-प्रकारेण धन कमाना ही सबसे बड़ा लक्ष्य बनता जा रहा है।
आखिर ऐसा क्यों हुआ? क्या इस प्रवृत्ति के बीज हमारी परंपराओं में रहे हैं या यह बाजार के दबाव का नतीजा है? कहीं शासन-व्यवस्थाएं गरीबी दूर करने का नारा देकर अमीरों को प्रोत्साहन तो नहीं दे रही हैं? इस तरह की मानसिकता राष्ट्र को कहां ले जाएगी? ये कुछ प्रश्न अमीरी गरीबी की बढ़ती खाई और उसके तथ्यों पर मंथन को जरूरी बनाते हैं।

 

क्या देश एवं दुनिया में गैर बराबरी घट रही है या बढ़ रही है? एक वैश्विक रिपोर्ट बताती है कि नब्बे के दशक से लेकर अब तक पूरी दुनिया में गैर बराबरी बढ़ी है। भारत में अमीर और गरीब के बीच खाई और भी तेजी से बढ़ी है। कोविड महामारी का दुनिया में गैर बराबरी पर क्या असर पड़ा, इसके आंकड़े हमें वर्ल्ड बैंक द्वारा 2022 में प्रकाशित रिपोर्ट से मिलते हैं।

इस रिपोर्ट के मुताबिक महामारी से पूरी दुनिया में गरीब और अमीर के बीच खाई और ज्यादा चौड़ी हो गई। पूरी दुनिया में कोई 7 करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे धकेल दिए गए। इनमें से सबसे बड़ी संख्या भारत से थी जहां इस महामारी के चलते 5 करोड़ से अधिक परिवार गरीबी रेखा से नीचे आ गए। इस आंकड़े को लेकर खूब घमासान हुआ।

अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका ‘फोर्ब्स’ दुनिया के धनाढ्य बिलियनेयर लोगों की लिस्ट छापती है। यानी कि वो लोग जिनकी कुल सम्पत्ति एक बिलियन यानी 100 करोड़ डॉलर यानी 8000 करोड़ रुपए से भी ज्यादा है। इस पत्रिका के अनुसार इस साल अप्रैल तक भारत में 166 ऐसे व्यक्ति हैं जिनकी घोषित संपत्ति एक बिलियन डॉलर से अधिक है।

इसमें अघोषित यानी काले धन का हिसाब नहीं जोड़ा गया है। व्यक्तिगत तौर पर यह बात अब खास मायने नहीं रखती कि कौन किस नंबर पर है, क्योंकि दौलत का यह उठान एक सामूहिक ट्रेंड बन चुका है। पूंजी का बहाव भारत जैसे देशों की तरफ हो रहा है, जिनकी इकॉनमी कई लोकल और ग्लोबल वजहों से बूम कर रही है। इस लिहाज से इस दौलत का जितना रिश्ता निजी उद्यम, हौसले और अक्लमंदी का है, उतना ही उस बदलाव से भी है, जिसे हम ‘नए भारत की कहानी’ कहते हैं।

फिलहाल हम इस बहस में नहीं पड़ें कि इन उद्यमियों ने भारत को बनाया है या भारत में होना इन उद्यमियों की कामयाबी की असली वजह है। कुल मिलाकर इतना तय है कि हम इस ट्रेंड को भारत की कामयाबी के तौर पर देख सकते हैं। क्योंकि नागरिक अपने देश की नुमाइंदी ही करते हैं। जैसे बिल गेट्स की कामयाबी अमेरिका की प्रतिभा की कामयाबी है, वैसे ही रिलायंस, अडानी, इंफोसिस, विप्रो, या दूसरी कंपनियों की कामयाबी भारतीय उद्यमशीलता की कामयाबी है। लेकिन हर कामयाबी अपने साथ नाकामियों का हिसाब भी लेकर चलती है, असंतुलन को न्यौतती हैं।

जिस देश के उद्यमी दुनिया में सबसे अमीर हो, उस देश से यह अपेक्षा की जाती है कि उसमें संपदा का उछाल एक कॉमन बात होगी। बदकिस्मती से भारत में ऐसा नहीं है और यह बात दुनिया को काफी अटपटी लगेगी। मिसाल के लिए जिस शेयर मार्केट ने कुछ लोगों के लिए दौलत की ढेर लगा दिए हैं, उससे बस कुछ लोगों का ही वास्ता है। हालांकि हाल के बरसों में मिडल क्लास का विस्तार हुआ है और एक बड़े वर्ग की लाइफस्टाइल सुधरी है, लेकिन उससे कई गुना ज्यादा लोग आज भी मुफलिसी के झुटपुटे में भटक रहे हैं।

जरूरी है कि अमीरों को बसाने एवं तरक्की देने के लिये गरीबों को जमीन और रोजी-रोटी से बेदखल न किया जाए। भारत को जो शान हासिल हुई है, उसका तकाजा है कि अमीरी-गरीबी की असमानता मिटे। हम तो चाहेंगे कि ग्लोबल अमीरों की लिस्ट सिर्फ भारतीयों से भर जाए, लेकिन यह भी हो कि हर भारतीय उस चमक को देखे, सराहे और इन बिरादरों पर गर्व करे कि वो अमीरी की ओर बढ़ते हुए गरीबी भी दूर कर रहे हैं।

हम केवल गौतम अडाणी की संपत्ति का हिसाब लगाएं तो आज उनकी कुल दौलत कोई 14 लाख करोड़ रुपए के करीब है। यहां गौरतलब है कि जब देश में कोविड और लॉकडाउन शुरू हुआ था उस वक्त उनकी कुल सम्पत्ति 66000 करोड़ थी। यानी पिछले अढ़ाई साल में उनकी संपत्ति में 20 गुना इजाफा हुआ है। भारत के भाल पर एक बड़ा सवाल है कि क्या भारत में गैर बराबरी घट रही है या बढ़ रही है? वर्ल्ड इनिक्वालिटी रिपोर्ट बताती है कि नब्बे के दशक से लेकर अब तक पूरी दुनिया में गैर बराबरी बढ़ी है।

भारत में अमीर और गरीब के बीच खाई और भी तेजी से बढ़ी है। कोविड महामारी का दुनिया में गैर बराबरी पर क्या असर पड़ा, इसके आंकड़े हमें वर्ल्ड बैंक द्वारा 2022 में प्रकाशित रिपोर्ट से मिलते हैं। इस रिपोर्ट के मुताबिक महामारी से पूरी दुनिया में गरीब और अमीर के बीच खाई और ज्यादा चौड़ी हो गई। पूरी दुनिया में कोई 7 करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे धकेल दिए गए। इनमें से सबसे बड़ी संख्या भारत से थी जहां इस महामारी के चलते 5 करोड़ से अधिक परिवार गरीबी रेखा से नीचे आ गए। इस आंकड़े को लेकर खूब घमासान हुआ। सरकारी और सरकारों से पोषित अर्थशास्त्रियों ने इसे झूठा साबित करने की असफल कोशिश की।

हमारे देश में जरूरत यह नहीं है कि चंद लोगों के हाथों में ही बहुत सारी पूंजी इकट्ठी हो जाये, पूंजी का वितरण ऐसा होना चाहिए कि विशाल देश के लाखों गांवों को आसानी से उपलब्ध हो सके। लेकिन क्या कारण है कि महात्मा गांधी को पूजने वाले सत्ताशीर्ष का नेतृत्व उनके ट्रस्टीशीप के सिद्धान्त को बड़ी चतुराई से किनारे कर रखा है। यही कारण है कि एक ओर अमीरों की ऊंची अट्टालिकाएं हैं तो दूसरी ओर फुटपाथों पर रेंगती गरीबी।

एक ओर वैभव ने व्यक्ति को विलासिता दी और विलासिता ने व्यक्ति के भीतर क्रूरता जगाई, तो दूसरी ओर गरीबी तथा अभावों की त्रासदी ने उसके भीतर विद्रोह की आग जला दी। वह प्रतिशोध में तपने लगा, अनेक बुराइयां बिन बुलाए घर आ गईं। अर्थ की अंधी दौड़ ने व्यक्ति को संग्रह, सुविधा, सुख, विलास और स्वार्थ से जोड़ दिया। नई आर्थिक प्रक्रिया को आजादी के बाद दो अर्थों में और बल मिला। एक तो हमारे राष्ट्र का लक्ष्य समग्र मानवीय विकास के स्थान पर आर्थिक विकास रह गया। दूसरा सारे देश में उपभोग का एक ऊंचा स्तर प्राप्त करने की दौड़ शुरू हो गई है। इस प्रक्रिया में सारा समाज ही अर्थ प्रधान हो गया है।

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