सावित्रीबाई फुलेः यही से शुरु हुआ इतिहास
जन्म दिवस पर विशेष
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
किसी भी समाज के बौद्धिक स्तर का मूल्यांकन उस समाज में स्त्रियों की स्थिति को देखकर किया जा सकता है। हिन्दू समाज को जब से ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने जकड़ा तब से नारियाँ मात्र भोग विलास की सामग्री बन कर रह गयी। अंग्रेजों के शासनकाल में भारत क्रमशः आधुनिक ज्ञान.विज्ञान से परिचित हुआ।
अंग्रेजी शिक्षा के प्रचार के फलस्वरूप 19वीं शताब्दी में नवजागरण सम्भव हो सका। 19वी शताब्दी में ही अनके समाजसुधारकों का प्रादुर्भाव हुआ। महान समाजसुधारकों की कड़ी में महामना ज्योतबा फुले का नाम अविस्मणीय है। ज्योतिबा फुले की याद आते ही उनकी पत्नी सावित्रीबाई फुले का नाम स्वतः मानस पटल पर अंकित हो जाता है।
सावित्रीबाई का जन्म 3 जनवरी 1831 ई. को महाराष्ट्र के सतारा जिलान्तर्गत नायगांव में हुआ था। इनके पिता का नाम खंडोजी नेवसे पाटील था। वे अपने गाँव के मुखिया थे। अपने पिता के सानिध्य में सावित्रीबाई ने नेतृत्व का गुण पाया। नौ वर्ष की उम्र में उनकी शादी ज्योतिबा से हुई। उस समय बाल.विवाह का प्रचलन था। आमतौर पर लड़कियों की शादी छः तथा लड़कों की शादी दस वर्ष से कम आयु में ही हो जाती थी। शादी के बाद साबित्रीबाई ने ज्योतिबा से पढ़ना लिखना सीखा।
सावित्रीबाई को प्रथम भारतीय स्त्री अध्यापिका होने का दुर्लभ गौरव प्राप्तहै। 1 जनवरी 1848 का दिन भारतीय स्त्री शिक्षा के लिए स्वर्णिम दिन था। इसी दिन फुले दम्पति ने पुणे में लड़कियों के लिए विद्यालय की स्थापना की। प्रारम्भ में उन्हें काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा क्योंकि मनुस्मृति और रामचरित मानस जैसे हिन्दु समाज के धर्मग्रंथों में स्त्री शिक्षा की कड़ी मनाही है । उस समय पूरा हिन्दू समाज इन पथभ्रष्ट
धर्मग्रंथों से प्रभावित था।
जब सावित्रीबाई ने लड़कियों को शिक्षा देना शुरु किया तो हिन्दू धर्म के ठीकदारों में हड़कम्प मच गया। ब्राहाण जो विद्या को अपनी पैतृक सम्पति समझते आये थे उन्हें सावित्रीबाई का यह पावन कार्य बहुत खराब लगा। जब वे पढ़ाने के लिए घर से विद्यालय जातीं तो उनपर ईट , पत्थर , गोबर आदि फेकते , तरह -तरह की गालियाँ देते ।
एक दिन एक कट्टर सनातनी ने रास्ते आगे खड़ा होकर पढ़ाने का काम बन्द करने को कहा तथा ऐसा नहीं करने पर इज्जत पर हमला करने की धमकी दी । रास्ते में इस घटना को बहुत से लोगों ने देखा पर किसी ने डाँटा तक नहीं। सावित्रीबाई अत्यन्त निडर व बलशाली थी। उन्हें कट्टर सनातनी का दुष्टतापूर्ण आचरण असह्य लगा । उन्होंने स्वयं उसकी पिटाई कर दी। सावित्रीबाई के दो चार – थप्पड़ खाकर वह सनातनी भाग खड़ा हुआ। ।
ऐसे अनेक विपरीत परिस्थितियों के बावजूद सावित्रीबाई अपने पथ से विचलित नहीं हुई। उन्होंने स्त्री शिक्षा का जो दीप जलाया उससे क्रमशः अनेक दीप जल उठे।
उनकी प्रतिभा बहुमूखी थी। उन्होंने अस्पृश्यता उन्मूलन की दिशा में ठोस प्रयास किया तथा कई पुस्तकों की रचना की पुरुष प्रधान समाज के दोहरे चरित्र का अन्दाज इसी से लगाया जा सकता है कि एक तरफ वह विधवा – विवाह की स्वीकृति नहीं दे रहा था परन्तु दूसरी तरफ विधवाओं को गर्भ रह जाता था। सावित्रीबाई ने इस कुरीति को दूर करने का प्रयास किया। इसके लिए उन्होंने विधवा – विवाह का समर्थन किया तथा बाल हत्या प्रतिबन्धक गृह की स्थापना की जिसमें सैकड़ों विधवाओं ने बच्चों को जन्म दिया। एक ब्राहाणी विधवाए जसे गर्भ रह गया थाए आत्महत्या करने जा रही थी , उसे ज्योतिबा ने बचाया तथा उसकी सन्तान को गोद ले लिया। सावित्रीबाई ने उस बच्चे को माँ का प्यार दिया। इस कार्य से उनके मानसिक ऊँचाई का पता चलता है ।
ज्योतिबा के निधन के सात वर्षों तक उन्होंने ज्योतिबा के मिशन को आगे बढ़ाया। 1897 में महराष्ट्र में प्लेग का भंयकर प्रकोप हुआ। प्लेग रोगियों की सेवा करते करते वे स्वयं प्लेग से प्रसित हो गयीं और इसी बीमारी से 10 मार्च 1897 को उनका निधन हो गया।
सावित्रीबाईयुगीन समाज के अपेक्षाकृत आज स्त्री शिक्षा का प्रचार बढ़ा है परन्तु ऐसा नहीं है कि लक्ष्य पूरा हो गया हो। आज भी शंकराचार्य जैसे लोग नारी शिक्षा का खुल्लेआम विरोध कर रहे हैं। ऐसी परिस्थितियों में प्रगतिशील लोगों को संगठित होने की जरुरत हैं।
लगभग 170 साल पहले की बात है । एक महिला थी महाराष्ट्र की । कवयित्री थी । लड़कियों के लिए स्कूल खोलने का मन हुआ । लग गयी ।
बहुत विरोध हुआ । आज आकलन नहीं किया जा सकता । स्कूल खुला । खुद मास्टरनी थी । रोज पढ़ाने जाती । एक दिन किसी ने घर का कूड़ा सिर पर फेंका । झाड़कर निकल चली ।
अगले कई दिनों तक यह सिलसिला चला । कभी-कभी शौच भी फेंका गया । छत के ऊपर से । सीधे सिर पर । झोले में एक्स्ट्रा साड़ी लेकर चलने लगी । स्कूल में जाने के पहले साड़ी बदल लेती । किसी से कोई शिकायत नहीं । अपना काम करती रही ।
170 साल बाद वह स्त्री पूजी जाती है । सिर्फ महाराष्ट्र में नहीं । देश की सीमाओं से परे भी । पूजी जाती रहेगी । युगों -युगों तक । कूड़ा फेंकनेवाले कौन थे ? कोई नहीं जानता । कोई जानना चाहेगा भी नहीं ।
एक कल्पना कीजिये । बाजार की भीड़ में अचानक स्वर उठे- वो रहा सावित्री बाई के सर पर मैला फेंकनेवाले का परपोता । क्या बीतेगी बेचारे पर ? उसका तो दोष भी नहीं ।
हमें किसी का विरोध करना हो करें । जमकर करें । रचनात्मक रहकर । तानसेन और बैजू की तरह । दोनों में विरोध रहा । दोनों अमरत्व को हासिल हुए । बाकी का मतलब न तब था न अब है ।