स्वामी विवेकानंद: बड़े नहीं छोटे कर्मों से निर्धारित होता है चरित्र
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
12 जनवरी के दिन स्वामी विवेकानंद जी का जन्मदिन राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है। स्वामी जी ने अपने जीवन काल कई महत्वपूर्ण विषयों को आम-जन तक पहुंचाने का कार्य किया था। अपनी पुस्तक कर्मयोग में कर्म की महत्ता को बताते हुए स्वामी विवेकानंद ने कहा है। यह मानना पूरी तरह भ्रामक है कि, मनुष्य के जीवन का अंतिम लक्ष्य सुख प्राप्त करना है।
उनके अनुसार मनुष्य जीवन का उद्देश्य है, ज्ञान को प्राप्त करना। क्योंकि सुख और धन दोनों ही नाशवान है। जबकि ज्ञान हमेशा उसके साथ रहता है। इसी लिए मनुष्य को निरंतर ऐसे कर्म करने चाहिए जो उसके ज्ञान में वृद्धि करते हैं। वह यह भी कहते हैं कि ज्ञान कहीं बाहर से नहीं आता, बल्कि हमारे अपने अंदर होता है।
बड़े नहीं छोटे कर्मों से निर्धारित होता है चरित्र
स्वामी विवेकानंद का मानना है, कि किसी व्यक्ति की बहुत बड़ी उपलब्धि को उसकी योग्यता और चरित्र का प्रमाण नहीं समझना चाहिए। जिस तरह कई छोटी-छोटी लहरों से बनने वाले बड़े स्वर को हम समुद्र की विशाल ध्वनि समझ लेते हैं, और उस ध्वनि को समुद्र की विशालता का प्रतीक मान लेते हैं। जो कि सही नहीं है। मुख्य कार्य तो छोटी-छोटी लहरें कर रही हैं। उसी प्रकार हमारे छोटे-छोटे कार्य हमारे चरित्र का निर्माण करते हैं।
स्वामी जी के अनुसार किसी विशेष समय पर, विशेष परिस्थिति में एक बड़ा कार्य तो कभी-कभी कोई मूर्ख भी कर लेता है। इससे वह श्रेष्ठ नहीं बन जाता। वास्तव में श्रेष्ठता की परख किसी व्यक्ति द्वारा निरंतर किए जा रहे छोटे-छोटे कामों से होती है। और वही उसके चरित्र का निर्माण करते हैं।
स्वामी विवेकानंद ने रामकृष्ण परमहंस की शिक्षाओं में गहरी आस्था रखने वाले साधु-संन्यासियों को संगठित करने के लिए 1 मई, 1897 में बेलूर मठ स्थापना की थी। यह पश्चिम बंगाल के कोलकाता में है। बेलूर मठ से स्वामी विवेकानंद का गहरा संबंध रहा, उन्होंने इसके ज़रिए रामकृष्ण परमहंस के उपदेशों को आम लोगों तक पहुंचाया।
1. स्वामी विवेकानंद का जन्म कलकत्ता के एक कायस्थ परिवार में हुआ था। नरेंद्र नाथ दत्त ने महज 25 साल की उम्र में घर छोड़ दिया था और वे एक साधारण संन्यासी बन गए थे। संन्यास लेने के बाद उनका नाम स्वामी विवेकानंद पड़ गया था।
2. विवेकानंद जी के पिता का नाम विश्वनाथ दत्त था, वे कलकत्ता हाईकोर्ट में वकील थे। जबकि उनकी मां भुवनेश्वरी देवी धार्मिक विचारों वाली महिला थीं। स्वामी जी का झुकाव बचपन से ही अपनी मां की तरह आध्यात्मिकता की ओर ज़्यादा रहा।
3. साल 1879 में उन्होंने प्रेसीडेंसी कॉलेज की प्रवेश परीक्षा में पहला स्थान हासिल किया था, जिससे साबित होता है कि वे पढ़ाई में भी अव्वल थे।
4. स्वामी विवेकानंद ने रामकृष्ण परमहंस को अपना गुरु माना था। इनसे स्वामी जी की मुलाकात साल 1881 में कलकत्ता के दक्षिणेश्वर के काली मंदिर में हुई थी। वहां से ही परमहंस की विचारधारा से वे इतने प्रभावित हो गए कि उन्हें अपना गुरु मान लिया।
5. विवेकानंद और रामकृष्ण परमहंस की मुलाक़ात कोई आम मुलाक़ात नहीं थी, क्योंकि विवेकानंद जी ने इस दौरान उनसे वही सवाल किया जो वो दूसरों से अक्सर किया करते थे। सवाल था कि ‘क्या आपने कभी भगवान को देखा है?’। जिसके जवाब में रामकृष्ण परमहंस ने कहा था कि ‘हां मैंने देखा है, मुझे भगवान उतने ही साफ तरह से दिखते हैं, जितने कि तुम। फर्क सिर्फ इतना है कि मैं उन्हें तुमसे ज्यादा गहराई से महसूस कर सकता हूं।’ रामकृष्ण परमहंस के इस जवाब ने विवेकानंद के जीवन पर गहरी छाप छोड़ दी और वे उनके शिष्य बन गए।
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