क्या जनगणना की जिम्मेदारी पूरी करना आवश्यक है?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
बिहार में जातिगत गणना के खिलाफ पीआईएल पर सुप्रीम कोर्ट में अगले हफ्ते सुनवाई होगी। संविधान की सातवीं अनुसूची और 1948 के कानून के अनुसार जनगणना कराने का अधिकार केंद्र सरकार को ही है। लेकिन ओबीसी के बारे में आयोग बनाने के साथ सामाजिक-आर्थिक सर्वे कराने के बारे में राज्य सरकारों को हक हासिल है। बिहार से पहले कर्नाटक में 2014 में जातिगत जनगणना हो चुकी है।
समान नागरिक संहिता पर कानून बनाने का केंद्र को हक है। लेकिन इस बारे में कई राज्यों में बनाई गई समितियों को सुप्रीम कोर्ट ने हरी झंडी दिखा दी है। हर 10 साल में कराई जाने वाली जनगणना को 2021 में पूरा करने में केंद्र सरकार विफल रही है। इसलिए बिहार की जातिगत गणना का राज्य के भाजपा नेता भी विरोध नहीं कर पा रहे। केंद्रीय जनगणना को टालने और राज्यों में जातिगत गणना से उपजे विवादों के चार पहलुओं को समझना जरूरी है।
1. संसाधनों की बर्बादी : ओबीसी की 52 फीसदी आबादी को 27 फीसदी आरक्षण का लाभ देने के लिए मंडल आयोग ने अविभाजित भारत की सन् 1931 की जनगणना को आधार माना था। उसके बाद से इस मामले पर तथ्यपरक काम के बजाय वोट बैंक की राजनीति और मुकदमेबाजी हो रही है।
पिछली बार 2011 की जनगणना में ओबीसी की गणना के लिए जाति के कॉलम को शामिल करने पर तत्कालीन गृहमंत्री चिदम्बरम ने वीटो लगा दिया था। उसके बाद चलताऊ तरीके से ग्रामीण विकास और आवास मंत्रालयों के माध्यम से सामाजिक-आर्थिक सर्वे किया। आधार और वोटर लिस्ट अपडेट हो रही है।
जन्म और मृत्यु के रजिस्ट्रेशन की वजह से जनगणना के अनुमानित आंकड़े भी उपलब्ध हैं। इसलिए बड़ी जरूरत शैक्षणिक, आर्थिक और सामाजिक सर्वेक्षण की है। केंद्र और राज्य की सरकारें सभी तरह के आंकड़ों को साझा और सार्वजनिक करें तो सरकारी कर्मचारियों की सरदर्दी कम हो सकती है।
2. मुकदमेबाजी : अदालतों से अनुच्छेद-15, 16 और 343 की व्याख्या से शैक्षणिक, सामाजिक और आर्थिक पिछड़ेपन के नए वर्गीकरण हो रहे हैं। संविधान के 103वें संशोधन से ईडब्ल्यूएस के आरक्षण को सुप्रीम कोर्ट की मान्यता के बाद 99 फीसदी आबादी आरक्षण के दायरे में आने से 50 फीसदी लिमिट पार होना तय है।
रोहिणी आयोग की अंतरिम रिपोर्ट के अनुसार ओबीसी की 2633 जातियों में से 983 को आरक्षण का लाभ नहीं मिलने पर उपजातियों की गणना की बात होने लगी है। स्थानीय निकायों में आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट के ट्रिपल टेस्ट फॉर्मूले को लागू करने के लिए राज्यों के पास आंकड़े नहीं हैं। गवर्नेंस से जुड़े मामलों के बजाय वोट बैंक के मामलों में मुकदमेबाजी बढ़ने से न्यायिक सिस्टम चरमरा रहा है।
3. प्रवासी वोटर और पीडीएस : जनसंख्या के आधार पर वित्त आयोग राज्यों के लिए संसाधन आवंटित करता है। खाद्य सुरक्षा कानून के तहत आबादी के अनुसार राज्यों को सस्ता अनाज मिलता है। नई जनगणना नहीं होने से लगभग 12 करोड़ गरीब पीडीएस के लाभ से वंचित हो सकते हैं। आम चुनावों के पहले सरकारी पदों में बम्पर भर्ती में आरक्षण लागू करने के लिए भी नवीनतम डाटा जरूरी है।
चुनाव आयोग के रिमोट ईवीएम पर हो रही चर्चा के अनुसार देश में 45 करोड़ लोग प्रवासी हैं। दूसरे राज्यों में बसी इस प्रवासी आबादी को किस राज्य का माना जाए? इस सवाल के जवाब से संसद और राष्ट्रपति चुनावों में राज्यों का दबदबा बदल सकता है।
4. संसद में राज्यों का प्रतिनिधित्व : फिलहाल 2001 की पुरानी जनगणना के अनुसार ही संसद में राज्यों का प्रतिनिधित्व है। 84वें संविधान संशोधन के अनुसार 2021 की जनगणना के अनुसार 2026 में विधानसभा और संसद की सीटों के परिसीमन का प्रावधान है। उस बड़ी संवैधानिक कवायद के बाद ही 2029 के आम चुनाव होने चाहिए।
नए साल की शुरुआत में राम मंदिर के निर्माण की तारीख की घोषणा और बिहार में जातिगत जनगणना की शुरुआत से अगले आम चुनावों के लिए धर्म और जाति का एजेंडा सेट-सा लगता है। जाति और धर्म के नाम पर वोटबैंक और अफवाहों की सियासत को खत्म करने के लिए जनगणना के अधिकृत और वैज्ञानिक आंकड़े जरूरी हैं। राष्ट्रीय जनगणना का संवैधानिक उत्तरदायित्व पूरा हो ताे बिहार समेत अन्य राज्यों में जाति-गणना का रिवाज कम होगा।
वोटबैंक और अफवाहों की सियासत को खत्म करने के लिए जनगणना के अधिकृत और वैज्ञानिक आंकड़े जरूरी हैं। जनगणना का दायित्व पूरा हो ताे बिहार समेत अन्य राज्यों में जाति-गणना का रिवाज कम होगा।
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