हिंदू धर्म एक परिष्कृत अवधारणा है,कैसे?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
धर्म शब्द की उत्पत्ति ‘धृ’ धातु से हुई है, जिसका अर्थ है धारण करना। ऋग्वेद के समय से ही इस शब्द का निरंतर उपयोग किया जाता रहा है। विशेषकर धर्मशास्त्रों (600-300 ईस्वी पूर्व), धर्मसूत्रों (200-900 ईस्वी पूर्व) और मनुस्मृति (ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी) आदि में विशेष रूप से इस पर चिंतन किया गया है। धर्म शब्द का सबसे सरलता से समझा जाने वाला अर्थ है उचित आचरण, दायित्वशीलता, सदाचार, करुणा, विधि और विधान। लेकिन इनमें से कोई भी इस शब्द के समग्र अभिप्रायों को व्यक्त नहीं कर पाता है।
एक साहित्यिक समारोह में ‘स्वराज्य’ के सम्पादक आर. जगन्नाथन की नई किताब ‘धार्मिक नेशन’ पर चर्चा-गोष्ठी में सम्मिलित हुआ था। पेनल में लेखक अश्विन सांघी और सुधींद्र कुलकर्णी भी मौजूद थे। बहस का विषय था : ‘एक धार्मिक राष्ट्र से डर क्यों लगता है?’ मेरा मत यह था कि एक धार्मिक राष्ट्र होना अच्छी बात है, बशर्ते धर्म की व्याख्या केवल रिलीजन या पंथ के रूप में न की जाए। क्योंकि हिंदू विश्व-दृष्टि में धर्म एक बहुत जटिल और परिष्कृत अवधारणा है। वह रिलीजन से कहीं बढ़कर है।
हिंदू नैतिकता के मूल में धर्म है। उचित आचरण क्या है? क्या यह किन्हीं नैतिक नियमों का समूह है, जो वैश्विक रूप से स्वीकार्य हैं? या यह एक वैसा नैतिक व्यवहार है, जिसका निर्णय देशकाल-परिस्थिति के अनुसार किया जाएगा? दूसरे सम्प्रदायों में सही और गलत को स्पष्ट तरीके से परिभाषित किया गया है। उदाहरण के तौर पर, ईसाई धर्म में टेन कमांडमेंट्स हैं।
इस्लाम में हलाल और हराम सम्बंधी निर्देश हैं। लेकिन हिंदुओं का रवैया बहुत परिमार्जित है। वे कुछ गुणों को महत्व देते हैं, लेकिन साथ ही देशकाल-परिस्थिति के अनुसार उचित-अनुचित का चिंतन करने पर उस आदर्श से पथच्युत होने का निषेध भी नहीं किया गया है। हिंदू धर्म में स्पष्ट फरमान इसलिए नहीं दिए गए हैं, क्योंकि उनकी विश्व-दृष्टि दो मुख्य धाराओं के अंतर्गत आती है।
एक है पारमार्थिक यथार्थ, जिसमें कोई व्यक्ति ब्रह्मानुभव होने पर आध्यात्मिक रूप से उस स्तर पर चला जाता है, जहां उचित-अनुचित के लौकिक भेद मिट जाते हैं। ऐसी विभूतियों को उनकी मेधा और चिंतनपरक श्रेष्ठता (निवृत्तिलक्षण धर्म) से पहचाना जाता है।
दूसरा स्तर व्यावहारिक यथार्थ है, जो दैनंदिन जीवन से अनुभवजन्य होता है। इसमें प्रवृत्तिलक्षण धर्म होता है, जिसमें एक आचार-संहिता निर्दिष्ट की गई होती है। लेकिन क्या यह संहिता सर्वमान्य है? अगर हम दुनिया के समुदायों पर सरसरी नजर भी डालें तो पाएंगे कि अलग-अलग संस्कृतियों और समाजों में भेद होता है। जो एक वर्ग के व्यक्तियों के लिए नैतिक है, वही दूसरे के लिए अनैतिक हो सकता है। ऐसे में हिंदू मानस किसी सार्वभौमिक नैतिक नियमावली के निर्धारण के प्रति अनिच्छा का ही परिचय देता है।
लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि हिंदू समाज नैतिक रूप से विपन्न है। वास्तव में हिंदू धर्मग्रंथ नैतिक आचरण के प्रति अनुमोदन से भरे हुए हैं। मनुस्मृति ने धर्म के दस तत्वों की बात कही है- ‘धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः। धीविद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्॥’ अर्थात्, धृति (धैर्य), क्षमा, दम (संयम), अस्तेय (चोरी न करना), शौच (भीतर और बाहर की पवित्रता), इन्द्रिय निग्रह, धी (सत्कर्मों से बुद्धि को बढ़ाना), विद्या, सत्य और अक्रोध- यह धर्म के दस लक्षण हैं। दूसरे ग्रंथों में भी दान, परोपकार, दया, करुणा आदि का उपदेश दिया गया है।
महाभारत ने अहिंसा को परमधर्म निरूपित किया है। भीष्म कहते हैं, ‘जिसका न्याय में आरम्भ हो, वही धर्म है। जो भी अन्यायपूर्ण और अनाचारी है, वह अधर्म है। अगर एक धर्म दूसरे का नाश करता है, तो वह धर्म के वेश में दुष्टता है।’ तो जहां हिंदू धर्म में नैतिक आचरण के स्पष्ट निर्देश हैं, वहीं उनमें यह स्वीकारने का साहस भी है कि मनुष्यों का व्यवहार अनेक संदर्भों और तथ्यों पर आधारित हो सकता है।
मिसाल के तौर पर, अगर भूखों मर रहा कोई व्यक्ति किसी धनी के बाग से सेब चुराकर खा ले तो क्या वह चोरी कहलाएगी? यही कारण था कि धर्मराज कहलाने वाले युद्धिष्ठिर भी इस यक्षप्रश्न का उत्तर नहीं दे सके थे कि धर्म क्या है?
जब धर्म की स्पष्ट व्याख्या नहीं की जा सकती, तब आज के भारत में सर्वोच्च धर्म एक ही है- संविधान में वर्णित सिद्धांतों का अनुपालन। अगर हम वैसा करते हैं तो निश्चय ही धार्मिक राष्ट्र कहलाएंगे।
धर्म की स्पष्ट व्याख्या नहीं की जा सकती, ऐसे में आज के भारत में सर्वोच्च धर्म एक ही है- संविधान में वर्णित सिद्धांतों का अनुपालन। अगर हम वैसा करते हैं तो निश्चय ही एक धार्मिक राष्ट्र कहलाएंगे।
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