कांग्रेस को अब पूरी ताकत से वापसी करने से कोई नहीं रोक सकता-पुरुषोत्तम अग्रवाल
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
भारत जोड़ो यात्रा ने कांग्रेस कार्यकर्ताओं और समर्थकों का मनोबल जिस तरह बढ़ाया, कांग्रेस का हाल ही में संपन्न हुआ तीन दिवसीय महाधिवेशन उसकी अगली कड़ी है। खास बात यह है कि दोनों के बीच बमुश्किल एक महीने का अंतराल रहा। कुछ भी हो, राहुल गांधी के खिलाफ हुए दुष्प्रचार और ‘कांग्रेसमुक्त भारत’ के उद्घोष काम नहीं कर रहे हैं। यह पिछले कुछ महीनों में कांग्रेस की संभवतः सबसे बड़ी उपलब्धि है।
कांग्रेस को सबसे पहले वैचारिक स्पष्टता पर बेहद संजीदेपन और गंभीरता से काम करना होगा। पार्टी अपने स्वयं के इतिहास से सबक ले सकती है। इस निमित्त कांग्रेस का कराची अधिवेशन (मार्च 1931) बेहद उपयुक्त है। इसकी पृष्ठभूमि याद करें। भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी दिए जाने से लोगों और नेताओं के बीच रोष उबल रहा था।
गांधी के खिलाफ आलोचना और रोष का माहौल था। जवाहरलाल नेहरू के शब्दों में हताशा हद से ज्यादा गहरी थी। नेहरू इसे व्यक्त करने के लिए टीएस एलियट के शब्दों का सहारा लेते हैं- ‘इस तरह से दुनिया खत्म होती है/ धमाके से नहीं, बल्कि फुसफुसाहट से।’
लेकिन कांग्रेस के तत्कालीन नेतृत्व ने कराची में कुछ ऐसा किया जो अभूतपूर्व था। इसमें लिए निर्णयों की वजह से कुछ ही हफ्तों में कांग्रेस फिर जीवंत हो उठी। कराची से पहले कुछ वर्षों तक कांग्रेस भारतीयों की लोकतांत्रिक आकांक्षाओं को आवाज देती रही थी।
एक साल पहले लाहौर अधिवेशन में कांग्रेस ने ‘पूर्ण स्वराज’ को भारतीय राष्ट्र के राजनीतिक लक्ष्य के रूप में अपना लिया था। लेकिन कराची में, कांग्रेस ने स्वतंत्र भारत की अपनी आर्थिक और राजनीतिक दृष्टि पर विचार किया और उसे जनता के सामने रखा। यानी स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद कांग्रेस किस तरह का भारत बनाने का स्वप्न देखती है, यह पहली बार स्पष्ट हुआ।
कोई पूछ सकता है कि कांग्रेस को आज इससे क्या सीखने की जरूरत है? सबसे बड़ी बात कि इतिहास के उस महत्वपूर्ण क्षण में पार्टी का कायाकल्प न किसी नेता के व्यक्तिगत करिश्मे का परिणाम था और न केवल सांगठनिक बदलाव के किसी करिश्माई फॉर्मूले का। स्पष्ट राजनीतिक दृष्टि, एक सुविचारित रणनीति और सत्ता हासिल करने की इच्छाशक्ति के बिना किसी राजनीतिक संगठन का कायाकल्प असंभव है। न ही इनके अभाव में हताश कार्यकर्ताओं में फिर से जान फूंकी जा सकती है।
आज एक बार फिर से स्पष्ट आर्थिक-राजनीतिक कार्यक्रम पर बात करना जरूरी लग रहा है। पिछले कुछ दिनों के घटनाक्रम ने ऐसे विमर्श को पार्टी के भीतर-बाहर बातचीत के केंद्र में लाने का अवसर भी प्रदान किया है। राहुल गांधी पिछले कुछ समय से ऐसा करने की लगातार कोशिश कर रहे हैं।
लेकिन कोई भी राजनीतिक लड़ाई अकेले लड़ी भी नहीं जा सकती। अगर इस महाधिवेशन के बाद कांग्रेस ने अपना विचारधारात्मक चश्मा साफ कर लिया है तो समझिए एक बहुत बड़ा अवरोध हट गया है और कांग्रेस को अब पूरी ताकत से वापसी करने से कोई नहीं रोक सकता।
कांग्रेस दक्षिणपंथी या वामपंथी पार्टियों की तरह एक वैचारिक, कैडर-आधारित पार्टी नहीं है। लेकिन यह सिर्फ चुनाव जीतकर किसी तरह सत्ता में बनी रहने के लिए बनी उदार पार्टी भी नहीं है।
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