सभी किस्मों को भविष्य के लिए बचाना व रखरखाव करना होगा,क्यों?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

अगर छत्तीसगढ़ घूमकर कोई लेखक चावल के बारे में न लिखे, तो ठीक नहीं होगा। वो भी तब जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल के ‘मन की बात’ कार्यक्रम में संदीप शर्मा का नाम लिया हो। बिलासपुर के संदीप ‘फार्मर्स प्राइड’ संस्था चलाते हैं, यह जैविक खेती की महत्ता और मिलेट्स को बढ़ावा देती है।

संदीप से मेरी मुलाकात ‘ऑफिस क्लब मेंबर’ के एक सदस्य विवेक जोगलेकर ने करवाई थी, विवेक से मैं दो दिन पहले ही मिला था। फिर शानदार किस्सागो विवेक ने मुझे भारत में चावल के इतिहास के बारे में बताया। भारत में चावल की हजारों किस्में रही हैं, जिसमें से सैकड़ों ही बची हैं।

जनजाति के साथ काम करने वाले होमप्रकाश साहू के पास खुद 400 तरह के बीज हैं, उस किस्म के चावल को उगाने के लिए वह इसे गांव वालों के साथ साझा करते हैं। चावल की विभिन्न किस्मों को संरक्षित करने और उन्हें आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी समर्पित कर दी है।

कुछ किस्में छत्तीसगढ़ियों के बीच प्रचलित हैं, इसमें विष्णु भोग, बादशाह भोग, गोविंद भोग, जीरा फूल, जबरदस्त फूल, तुलसी मंजरी, बिसनी, लोहदी या लुहुदी, डीआरके, एचएमटी हैं और डीआरके व एचएमटी को दादूराम कोपडेकर ने खोजा था, उन्हीं के नाम पर डीआरके नाम पड़ा।

दिलचस्प रूप से मुझे ये भी पता चला कि हममें से अधिकांश लोग चावल खाना नहीं जानते। हम उन्हें दाल या मसालों के साथ मिलाकर खाते हैं, जहां चावल की खुशबू पूरी तरह खो जाती है। हर किस्म की अपनी खुशबू है और ऐसे भी लोग हैं, जिनके मुंह में चावल जाते ही बंद आंखों से भी उसका नाम बता सकते हैं।

जोगलेकर ने कहा कि हमें दाल, सब्जी या मसालों की खुशबू याद रहती है, लेकिन चावल की नहीं। उन्होंने सुझाव दिया कि हमें एक चम्मच सादा चावल खाना चाहिए और उसका बेहतरीन स्वाद पाने के लिए मुंह में ऐसे घुमाना चाहिए, जैसे वाइन पीने के पहले swirl करते हैंं। वैज्ञानिक तथ्य है कि चबाते हुए लार से ऐमीलेस एंजाइम निकलता है, जो स्टार्च को माल्टोज (शुगर) में बदल देता है। यहीं से खुशबू उत्पन्न होती है।

‘लुहुदी’ का उदाहरण लें। यह सिल्की किस्म का चावल है, पर थोड़ा चिपचिपा है। यह एेसी किस्म है, जिसमें खुशबू नहीं हैं लेकिन मिठास का एक लंबा स्वाद छोड़ देता है- सोंधापन बनाके रखता है। ये सादा चावल खाने के बाद तभी हमारे पूर्वज कहते थे कि ‘अब मुंह का टेस्ट खराब नहीं करना है’। और यही कारण है कि पूर्वज इसकी खीर बनाते थे, जहां कम शक्कर मिलाना पड़े। यह उन दिनों के लिए ज्यादा ठीक था, जहां ज्यादातर लोग शक्कर के लिए राशन दुकान पर निर्भर होते थे।

ठीक ऐसे ही विलुप्त हो चुकी किस्मों की भी कहानी है। डोगरा-डोगरी, दोनों किस्में अब नहीं हैं। यहां तक कि ‘शुक्ला फूल’ का दिलचस्प किस्सा है। एक दिन एक किसान बिलासपुर से 100 किमी दूर अमरकंटक के पेरिद्रा मेें राइस मिल मालिक छाबरिया के पास पहुंचा और बोला कि उसके पास ‘शुक्ला फूल’ किस्म के चावल की पांच बोरियां हैं।

छाबरिया को लगा, किसान नई किस्म के नाम पर धोखाधड़ी कर रहा है क्योंकि उसने जिंदगी में ये नाम नहीं सुना था। उसने उसे डांटकर भगा दिया। उसने घर पहुंचकर डिनर पर ये कहानी सुनाई। मिल मालिक के पिता नाराज हुए और कहा कि उसने चावल परिवार की एक बहुत अच्छी किस्स खो दी है। तबसे अब तक पांच साल हो चुके हैं, वो छाबरिया अभी भी बिना सफलता के ‘शुक्ला फूल’ खोज रहे हैं।

 हमें उन तमाम चीजों को संरक्षित रखते हुए अगली पीढ़ी के हाथों में सौंपना होगा, जो हमारे लिए मायने रखती हैं, साथ ही इन सभी किस्मों को भविष्य के लिए बचाना व रखरखाव करना होगा।

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