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भारत के किसानों की आय दोगुनी करने के तरीकों के बारे में चर्चा क्यों है?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

भारत के प्रधानमंत्री ने किसानों की आय दोगुनी करने के अपने स्वप्न को साझा किया जिस वर्ष भारत स्वतंत्रता के 75 वर्ष पूरे करेगा और ‘अमृत काल’ में प्रवेश करेगा। अब जबकि हम अमृत काल में प्रवेश कर चुके हैं, उस स्वप्न पर पुनर्विचार करने और यह देखने का यह उपयुक्त समय है कि क्या वह साकार हुआ, और यदि नहीं तो इसे साकार करने के लिये क्या किया जा सकता है।

  • जब तक किसानों की आय नहीं बढ़ेगी, हम समग्र सकल घरेलू उत्पाद (GDP) की उच्च वृद्धि को नहीं बनाए रख सकेंगे। ऐसा इसलिये है क्योंकि संपन्न शहरी उपभोक्ताओं की मांग को पूरा करने के तुरंत बाद फिर विनिर्माण क्षेत्र को मांग की कमी का सामना करना पड़ता है।
  • कृषि कार्यबल के सबसे बड़ा भाग को संलग्न करती है (आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण के अनुसार वर्ष 2021-22 में 45.5%)। इसलिये, कृषि पर ध्यान केंद्रित करना समग्र अर्थव्यवस्था के दीर्घकालिक उच्च विकास को सुनिश्चित करने का उपयुक्त तरीका है।
  • कृषि पर पृथ्वी की सबसे बड़ी जनसंख्या को खाद्य और पोषण सुरक्षा प्रदान करने का भी भार है। वर्तमान संदर्भ में यदि इस उद्देश्य की प्राप्ति करनी है तो इसमें ऐसी नीतियाँ शामिल होनी चाहिये जो इस ग्रह के बुनियादी संसाधनों- यथा मृदा, जल, वायु और जैव विविधता की भी रक्षा करें।

किसानों की आय दोगुनी करने से संबद्ध समस्याएँ

  • कृषि नीतियों से संबंधित मुद्दे:
    • सरकार द्वारा अपनाई गई व्यापार एवं विपणन नीतियाँ किसानों की आय को दमित कर रही हैं।
    • उदाहरण के लिये: निर्यात पर प्रतिबंध, वायदा बाज़ार से कई वस्तुओं का निलंबन और कुछ वस्तुओं पर स्टॉकिंग सीमा लागू करना।
    • ये किसानों की आय के ‘अंतर्निहित कराधान’ (Implicit Taxation) के छिपे हुए नीतिगत साधन हैं।
    • भारी सब्सिडी की नीति के साथ धान एवं गेहूँ की आश्वस्त एवं पूर्व-निर्धारित सीमा रहित खरीद पर्यावरण के लिये चुनौतियाँ पैदा कर रही है।
  • भूमि का विखंडन:
    • भारत में भूमि विखंडन एक प्रमुख समस्या है। छोटे और सीमांत किसान जिनके पास दो हेक्टेयर से कम भूमि है, भारत में किसानों की कुल संख्या के लगभग 85% भाग का निर्माण करते हैं।
    • भूमि का यह विखंडन कृषि कार्यों के पैमाने को सीमित करता है, जिससे आकारिक मितव्ययिता या ‘इकोनॉमिज़ ऑफ़ स्केल’ (economies of scale) को हासिल करना कठिन हो जाता है।
  • कमज़ोर अवसंरचना:
    • भारत में कृषि अवसंरचना कमज़ोर है, जिसमें अपर्याप्त सिंचाई सुविधाएँ, खराब भंडारण सुविधाएँ और कमज़ोर परिवहन नेटवर्क शामिल हैं। इसके परिणामस्वरूप खराब गुणवत्ता की उपज, उपज की बर्बादी और किसानों के लिये कम प्रतिलाभ जैसी स्थिति उत्पन्न होती है।
  • निम्न उत्पादकता:
    • भारतीय कृषि की उत्पादकता अन्य देशों की तुलना में कम है। भारत में प्रमुख फसलों की प्रति हेक्टेयर उपज चीन, ब्राजील और संयुक्त राज्य अमेरिका की तुलना में कम है।
  • जलवायु परिवर्तन:
    • जलवायु परिवर्तन का भारतीय कृषि पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ा है। अनियमित वर्षा, तापमान वृद्धि और सूखा एवं बाढ़ जैसी चरम मौसमी की घटनाएँ फसल उत्पादन को प्रभावित करती हैं और किसानों की आय को कम करती हैं।
  • मूल्य अस्थिरता:
    • एक स्थिर मूल्य निर्धारण नीति के अभाव के कारण भारत में कृषि क्षेत्र मूल्य अस्थिरता की विशेषता प्रकट करते हैं।
    • कृषि पण्यों की कीमतों में उतार-चढ़ाव के साथ उच्च इनपुट लागत किसानों के लिये अपने उत्पादन एवं विपणन रणनीतियों की योजना बनाना कठिन कर देते हैं।
  • अपर्याप्त संस्थागत सहायता:
    • किसानों के लिये ऋण, बीमा और विपणन सुविधाओं के रूप में संस्थागत समर्थन की कमी भी एक प्रमुख चुनौती है।
    • लघु और सीमांत किसानों के लिये ऋण एवं बीमा तक पहुँच की कमी है।
  • मानसून पर निर्भरता:
    • भारतीय कृषि का एक बड़ा भाग मानसून की वर्षा पर निर्भर है।
    • विलंबित या अपर्याप्त वर्षा फसल उत्पादन और किसानों की आय को प्रभावित करती है।

किसानों के समर्थन के लिये सरकार द्वारा कौन-से कदम उठाये गए हैं?

  • सरकार ने इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये विभिन्न योजनाओं और नीतियों को लागू किया है, जिसमें फसलों के लिये न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) की वृद्धि करना, जैविक खेती को बढ़ावा देना और राष्ट्रीय कृषि बाज़ार का निर्माण करना शामिल है।
  • सरकार उर्वरक सब्सिडी प्रदान करती है जिसका बजट 2 लाख करोड़ रुपए से अधिक है। यह ‘पीएम-किसान’ के माध्यम से किसानों को आय सहायता भी प्रदान करती है।
  • पीएम गरीब कल्याण अन्न योजना के माध्यम से लघु एवं सीमांत किसानों को कम से कम 5 किलोग्राम प्रति व्यक्ति प्रति माह का मुफ़्त राशन प्राप्त होता है।
  • फसल बीमा, ऋण और सिंचाई के लिये भी सब्सिडी प्रदान की जाती है।
  • राज्य भी वृहत मात्रा में बिजली सब्सिडी प्रदान करते हैं, विशेष रूप से सिंचाई के लिये। कई राज्यों द्वारा कस्टम हायरिंग केंद्रों के लिये कृषि मशीनरी को भी सब्सिडी दी जा रही है।

आगे की राह

  • समर्थन नीतियों का पुनर्संरेखन:
    • सरकार को उन फसलों की खेती को प्रोत्साहित करना चाहिये जो पर्यावरण के अनुकूल हैं और जल एवं उर्वरक जैसे संसाधनों का कम उपभोग करती हैं।
    • मोटे अनाज, दलहन, तिलहन और बागवानी फसलों को कार्बन क्रेडिट प्रदान किया जा सकता है ताकि उनकी खेती प्रोत्साहन मिले।
    • सब्सिडी/समर्थन फसल-तटस्थ (crop-neutral) होना चाहिये या उन फसलों के पक्ष में झुका होना चाहिये जो हमारे ग्रह के संसाधनों के लिये लाभप्रद हैं।
  • उच्च-मूल्य फसलों का प्रसार:
    • किसानों को अपनी फसलों में विविधता लानी चाहिये और उच्च-मूल्य फसलों (High-Value Crops) को शामिल करना चाहिये जिनकी बाज़ार में बेहतर मांग है और जो उच्च मूल्य प्राप्त कर सकते हैं।
    • बेहतर बीज, सिंचाई तकनीक और संवाहनीय कृषि अभ्यासों पर प्रशिक्षण प्रदान कर ऐसा किया जा सकता है।
  • निगमों के साथ सहयोग:
    • सरकार किसानों को बेहतर बाज़ार पहुँच और उनके बाज़ार जोखिम को कम करने के लिये सुनिश्चित ‘बायबैक’ व्यवस्था प्रदान करने के लिये निगमों/कॉर्पोरेशन के साथ सहयोग कर सकती है।
    • टोफू, सोया मिल्क पाउडर, सोया आइसक्रीम और फ्रोजन सोया योगर्ट जैसे मूल्य-वर्धित उत्पाद के निर्माण के लिये किसानों की उपज का इस्तेमाल करते हुए निगम द्वारा किसानों को बेहतर कीमतों की पेशकश की जा सकती है।
  • तकनीकी नवाचार:

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