पंजाब की जनसांख्यिकी जटिल है,कैसे?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
आप पूरे पंजाब में घूम आइए और किसी से यह सवाल पूछिए कि क्या वह भारत से अलग एक खालिस्तान बनाने के पक्ष में है तो बहुमत का जवाब ना में ही मिलेगा। लेकिन पंजाब का आज जो मूड है और 1980 के दशक में संकट के चरम के समय जो मूड था, उनमें दो सबसे महत्वपूर्ण समानताएं दिखती हैं। पहली समानता जो है वह अच्छी बात है।
किसी अपवाद से आप न टकरा जाएं, तो यही सर्वसम्मत राय उभरेगी। भिंडरांवाले के समय में भी यही माहौल था। दूसरी समानता कड़वी है। जो लोग अलग देश का सपना देखने वालों का मखौल उड़ाते हैं, उनसे आप पूछें कि क्या सिख नाइंसाफी के शिकार हैं? तो आपको कई लोगों से हां में जवाब सुनने को मिलेगा।
नाइंसाफी का शिकार होने का एहसास सच्चा और गहरा है। यह वाक्य आपको तब भी सुनने को मिलता था और आज भी सुनने को मिलता है कि सिख लोग ‘धक्के’ यानी भारी अन्याय के शिकार हैं। आज उनमें जो गुस्सा और अलगाव की भावना है, उसके मोटे तौर पर कारण हैं, सिख धर्म के लिए अस्तित्ववादी खतरा बने पंथों के डेरे, ‘बंदी सिंह’ (जेल में बंद सिख, जैसे आतंकवाद और हत्या के आरोपों के लिए लंबे समय से जेलों में बंद नौ सिख) और सिख धर्मस्थलों को अपवित्र करने के दोषी लोगों को गिरफ्तार न करना या सजा न देना।
इनमें से हर बात में अपने पेंच हैं और उनके साथ अपने तर्क जुड़े हैं। अगर हम मान लें कि पंजाब में आज एक चुनौती है, तो साफ हो जाएगा कि कोई सच्ची प्रगति तभी हो सकती है, जब बाकी देश और खासकर सरकार और सत्ताधारी दल शिकायत के एहसासों का समाधान करने की कोशिश करे। यहां तुष्टीकरण की बात नहीं की जा रही है। बात इतनी सी है कि संवाद और खुले दिमाग से आगे बढ़ें तो किसी की भावना आहत नहीं होती।
ऊपर बताए कारणों में से इन दो को एक साथ लिया जा सकता है- सिख धर्मस्थलों को कथित तौर पर दूषित करने के दोषी लोगों और डेरों को अछूता छोड़ना। 1980 के दशक की तरह आज भी बड़ी आशंका यह है कि सिख धर्म को उन ‘ईश-निंदकों’ से सबसे ज्यादा खतरा है, जो सिख गुरु का चोला पहनकर घूमते हैं।
पहले, निरंकारी पंथ निशाने पर था, आज डेरों के प्रमुख निशाने पर हैं। बीते समय में पहला हमला निरंकारी प्रमुख समेत उसके तमाम नेताओं पर हुआ था। आज गुस्सा उन तमाम नए बाबाओं के खिलाफ है, जो खुद को धर्मगुरु बताते हैं, लेकिन पक्के श्रद्धालु सिख उन्हें आधुनिक दौर के ढोंगी गुरु मानते हैं।
इसे सिख धर्म में ईश-निंदा माना जाता है। वे गुरुओं की तरह वेशभूषा बनाकर बड़ी संख्या में सिखों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। इनमें सबसे आगे है गुरमीत राम रहीम इन्सां, जिन्होंने अपने नाम के साथ अंतिम तीन शब्द तब जोड़े थे जब श्रद्धालु सिखों ने उन पर गुरु होने का दिखावा करने का आरोप लगाना शुरू किया था। लेकिन उनके भक्तों की संख्या बढ़ रही है। सिख समुदाय आहत है और पूछ रहा है कि अगर वे बलात्कार तथा हत्या के मामले में सजायाफ्ता हैं तो जेल से ज्यादा समय पैरोल पर जेल से बाहर रहते हुए कैसे बिता रहे हैं?
उनके क्षेत्र में, खासकर हरियाणा में जब भी कोई चुनाव होता है तो उन्हें लंबे समय के लिए पैरोल कैसे मिल जाती है? और इतने सारे नेता उनके आगे मत्था टेकने क्यों जाते हैं? सिखों में व्यापक धारणा यह है कि उनके भक्त ही धर्मस्थलों को ‘अपवित्र’ करने के लिए जिम्मेदार हैं, और उनकी राजनीतिक पहुंच की वजह से किसी भी सरकार ने दोषियों को पकड़ने या सजा दिलाने की हिम्मत नहीं की।
यह धारणा कितनी मजबूत है, यह जानने के लिए हाल में ‘लिंचिंग’ की घटनाओं पर गौर कीजिए, जिनमें श्रद्धालुओं ने उन लोगों को केवल इसलिए मार डाला कि उन पर धर्मस्थल को अपवित्र करने का संदेह था। इनमें एक घटना स्वर्णमंदिर में हुई। कभी ताकतवर रही पंजाब पुलिस ‘लिंचिंग’ की इन घटनाओं के लिए जिम्मेदार लोगों को सजा दिलाने में उतनी ही विफल रही, जितनी धर्मस्थल को अपवित्र करने वालों को सजा दिलाने में।
सिखों में दूसरी आस्थाओं और सम्प्रदायों में शामिल करने को लेकर जो असुरक्षा है, उसमें नया तत्व ईसाई प्रचारकों की नई लहर के कारण जुड़ा है। अमृतपाल सिंह की सबसे ताजा लड़ाई ईसाई पादरियों के साथ ही हुई, जिन्हें विरोध की लहर ने भगा दिया। कई सिख, खासकर अनुसूचित जातियों के, इन नए चर्चों में उसी तरह जाते हैं, जिस तरह कई सिख डेरों में जाते हैं।
ऐसे हरेक मामले को पारम्परिक सिख धर्म के लिए खतरा माना जाता है। सिख परम्परावादियों को इस बात से और ज्यादा गुस्सा आता है कि ये पादरी पारम्परिक सिख चोला धारण किए रहते हैं। पंजाब पर राज करने वाले किसी दल या गठबंधन के लिए इससे निबटना तब आसान होता अगर यह राज्य या उसके मतदाता उतने सजातीय होते, जितने बाहर वाले उन्हें मानते हैं।
‘बंदी सिंहों’ का मामला उन नौ कैदियों का है, जो आतंकवाद के आरोप में 25 से 32 साल कैद की सजा काट रहे हैं। उनमें से छह को 31 अगस्त 1995 को पंजाब के मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की हत्या के लिए सजा दी गई है। बाकी तीन को आतंकवादी बमबारियां करने के लिए।
आप सिखों से इस बारे में बात करें तो वे इस पर कुछ नहीं कहेंगे कि उन सबने गलत किया या सही, वे आपसे कहीं तीखा सवाल पूछेंगे। वे कहेंगे कि राजीव गांधी की हत्या के लिए उम्रकैद की सजा पाए लोगों को सहानुभूति के तहत रिहा कर दिया गया है। यह सहानुभूति केवल गैर-सिखों के लिए ही क्यों है? साथ ही अंतिम बात, हिंदू राष्ट्र की चर्चाओं से केवल मुसलमान ही उत्तेजित नहीं हैं।
पंजाब में सिखों की आबादी 2011 की जनगणना के मुताबिक 60 फीसदी से भी कम है, और सिखों में भी कई विभाजन हैं। सबसे मजबूत और हावी वर्ग है जट्ट सिखों का, जिसकी आबादी 20 फीसदी है। आम धारणा के विपरीत पंजाब देश में सबसे बड़ी दलित आबादी वाला राज्य है, जिनकी आबादी करीब 33 फीसदी है। चाहे डेरे हों या ईसाई, दोनों की पैठ उनके बीच ही सबसे ज्यादा है।