क्या संसद में हंगामे और गतिरोध को मान्यता मिल चुकी है?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

कांग्रेस नेता राहुल गांधी के मामले पर तीन बातें हो रही हैं। कांग्रेस का यह कहना कि अदाणी मामले में भ्रष्टाचार के आरोपों पर जांच और जवाब के बजाय राहुल की जुबान को बंद करने की कोशिश की जा रही है।

2. भाजपा का दावा कि राहुल के खिलाफ वह नहीं बल्कि अदालतें और कानून काम कर रहे हैं।

3. यह सियासी आकलन कि अगले आम चुनाव के समर को जीतने के लिए राहुल को उभारना भाजपा की व्यापक रणनीति का हिस्सा है। इन आरोप-प्रत्यारोपों से एक बात साफ है कि भारत में सभी दलों के नेताओं की राजनीति के केंद्र में आम जनता के बजाय सत्ता हासिल करना प्रमुख हो गया है।

हालिया घटनाओं के बरक्स लोकतंत्र के पांच खम्भों के दायरे में कानून के शासन के यथार्थ को समझने की जरूरत है।

1. संसद : राहुल गांधी की सदस्यता तुरंत रद्द हो गई। लेकिन लक्षद्वीप के सांसद मो. फैजल के मामले में अदालत के आदेश पर दो महीनों तक अमल नहीं हुआ। संविधान के अनुच्छेद-141 के तहत सुप्रीम कोर्ट का फैसला देश की सभी अदालतों में मान्य होता है। लेकिन उन फैसलों को पूरी मान्यता देने के लिए संसद से कानून में बदलाव जरूरी है। अभी हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार आईटी एक्ट की धारा-66-ए को हटाने के लिए संसद में बिल पेश किया गया था। तो उसी तर्ज पर सुप्रीम कोर्ट के 2013 के फैसले को लागू करने के लिए संसद से जनप्रतिनिधित्व कानून में बदलाव क्यों नहीं होना चाहिए?

2. सरकार : हिंडेनबर्ग रिपोर्ट में लगे संगीन आरोपों को जांच के बगैर खारिज नहीं किया जा सकता। तो फिर जेपीसी के गठन पर सत्ता पक्ष को ऐतराज क्यों है? संसद की कार्यवाही में विपक्ष के हंगामे और गतिरोध को अनाधिकारिक मान्यता मिल चुकी है। लेकिन राहुल से माफी की आड़ में सत्ता पक्ष द्वारा संसद की कार्यवाही में व्यवधान डालने से गलत परम्परा शुरू हो रही है। इस वजह से बगैर चर्चा के लोकसभा में 45 लाख करोड़ के बजट का पारित होना संसदीय व्यवस्था का दुर्भाग्य है।

3. विपक्ष : सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका में मांग की गई है कि विरोधी नेताओं के खिलाफ जांच एजेंसियों के दुरुपयोग को रोकने के लिए गाइडलाइंस बनें। संविधान के अनुसार पुलिस का विषय राज्य सरकारों के अधीन आता है। लेकिन विपक्षी दलों वाले राज्यों में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार पुलिस सुधार की शुरुआत नहीं हो रही है। मध्यप्रदेश और गुजरात में भाजपा की राज्य सरकारों ने बीबीसी की डॉक्यूमेंट्री वाले मामले में विधानसभा में असंवैधानिक तरीके से प्रस्ताव पारित किए। उसी तर्ज पर दिल्ली में आम आदमी पार्टी के मुख्यमंत्री केजरीवाल ने अदाणी मामले पर विधानसभा में लम्बी चर्चा कर डाली, जो कि संविधान सम्मत नहीं है।

4. न्यायपालिका : अदाणी मामले पर भी सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित जांच कमेटी के औचित्य पर सवाल उठ रहे हैं। गुजरात हाईकोर्ट से स्टे हटने के बाद भाजपा विधायक के मुकदमे पर सीजेएम अदालत ने आनन-फानन में राहुल को अधिकतम सजा सुना दी। सूरत की अदालत की कुशलता और तेजी को सभी अदालतें अपना लें तो मुकदमों के बढ़ते बोझ के कैंसर से पूरे देश को मुक्ति मिल सकती है। राजनीतिक मामलों से जुड़े कई फैसलों की टाइमिंग और टोन से न्यायपालिका की साख को बड़ा खतरा हो रहा है।

5. मीडिया : बेमौसम बारिश और ओलों से ग्रामीण अर्थव्यवस्था और किसानों की कमर टूटने की खबरों पर अंग्रेजी अखबारों में सन्नाटा है। पाकिस्तान से जुड़े पंजाब में आतंकवाद की नई फसल को बोकर राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए बड़ा संकट खड़ा करने वाले अमृतपाल के गायब होने पर मीडिया में गहन जांच रिपोर्ट नहीं आईं। उसके बजाय टीवी चैनलों में सारस कथा और माफिया अतीक पर चर्चा चलती रही। यह मीडिया में बढ़ रही गिरावट को दर्शा रहा है।

कानून का शासन भी एक पक्ष

आपातकाल के अनुभवों से सबक लेते हुए जिसकी लाठी उसकी भैंस के प्रचलन को जड़ से खत्म करने की जरूरत है। लेकिन महाराष्ट्र मामले से साफ है कि स्पीकर, राज्यपाल और चुनाव आयोग जैसे संस्थान संविधान के बजाय सरकार की मंशा से संचालित हो सकते हैं। राज्य और केंद्र की सरकारें संवैधानिक संस्थाओं को मजबूत करते हुए कानून का शासन लागू करें तो ही वंचित वर्ग को सही अर्थों में सामाजिक-आर्थिक न्याय का वाजिब हक मिल सकेगा।

हिंडेनबर्ग रिपोर्ट में लगे संगीन आरोपों को जांच के बगैर खारिज नहीं किया जा सकता। तो फिर जेपीसी के गठन पर सत्ता पक्ष को ऐतराज क्यों है? संसद में हंगामे और गतिरोध को मान्यता मिल चुकी है।

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