अठन्नी एक प्रेम कथा:एक लेखक की मार्मिक व्यथा
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
मित्रों!मेरी दूसरी पुस्तक अठन्नी एक प्रेम कथा शीघ्र प्रकाशित होने जा रही है।यह सूचित करते हुए मुझे बहुत खुशी नहीं हो रही है।पिछली पुस्तक लॉक डाउन का जो हस्र हुआ उसे देखते हुए यही लगता है कि किताब छपवाना एक व्यर्थ का श्रम है।अधिकांश लोगों को किताब खरीदने और पढ़ने में कोई रुचि नहीं है।केवल बधाई और शुभकामना देकर अपने कर्तव्य की इति श्री कर लेते हैं।
मेरी पहली पुस्तक लॉक डाउन का जन्म ही फेसबुक की जमीन पर हुआ। मित्रों के आग्रह पर प्रतिदिन की डायरी प्रस्तुत करता रहा।मित्रों ने ही पुस्तक छपवाने के लिए प्रेरित किया।एक मित्र ने तो यहां तक कहा कि आप किताब छपवाइए सारा खर्च मैं दूंगा।और जब किताब छप गई तो एक प्रति भी लेने नहीं आए।बल्कि मेरे वाल पर आना ही बंद कर दिया।शायद उन्हें डर हो कि मैं पुस्तक का खर्च न मांग बैठू।…इतना बड़ा कमिना तो नही ही हूं मैं!,..फिर भी…
ऐसे बहुत सारे कटु अनुभव हैं।सबका जिक्र करना मेरा अभीष्ट नहीं है।जो बात मैं कहना चाहता हूं वह यह कि जिस लेखक को आप जानते हैं,पढ़ते हैं और तारीफ भी करते हैं,जब उसकी पुस्तक छपती है तो खरीदते क्यों नहीं हैं?
एक लेखक बीस हजार खर्च करके अपनी पुस्तक छपवाता है और आप दो सौ खर्च करके उसका उत्साह नहीं बढ़ा सकते है?
तो फिर किस बात के मित्र हैं?
खाली पीली बधाइयो का क्या करूं मैं?
हिंदी जगत में तीन स्तर हैं पुस्तकों के। पहला है निम्न स्तर की पुस्तक।उसका सारा कारोबार उसके पाठकों की खरीद पर टिका हुआ है।वर्दी वाला गुंडा की एक करोड़ प्रति भी बिकती है तो उन्ही पाठकों के बल पर।उन्ही पाठकों के बल पर उसके लेखक और प्रकाशक दोनो मालामाल हैं।
दूसरा है उच्च स्तरीय साहित्य।इसे बड़े प्रकाशक छापते है।बड़ी पत्र पत्रिकाओं में उसकी समीक्षा छपती है।लेखक सम्मानित होता है। पुरस्कृत होता है।उसकी पुस्तक उस स्तर के पाठकों द्वारा खरीदी भी जाती है।और सरकारी खरीद भी उन्हीं पुस्तकों की होती है। मगर यहां भी लेखक को केवल यश मिलता है। माल़ कमाता है प्रकाशक।
अब बचता है मध्यवर्गीय साहित्य।एक तो यह हिंदी में बहुत कम है।दूसरे उसके पाठक मुफ्तखोर हैं।उन्हें खरीद कर नही मुफ्त में पुस्तक चाहिए।
प्रकाशक भी दोयम दर्जे के होते हैं।लेखक के खर्चे पर पुस्तक छापकर अपना पिंड छुड़ा लेते हैं।
अब यह लेखक की जिम्मेदारी है कि वह अपनी पुस्तक का प्रचार प्रसार करे।उसकी समीक्षा के लिए निहोरा पाती करे। अपने मित्रों से अनुरोध करे कि उसकी पुस्तक खरीदें।
मगर इस वर्ग की बातें बड़ी लंबी चौड़ी होती हैं।ऊंची ऊंची हांकता है और चाहता है कि लेखक उसको पुस्तक सप्रेम भेंट करे।उसकी जेब ढीली नहीं हो।
ऐसे में बेचारा लेखक क्या करे?अपनी जेब भी ढीली करे और मुफ्त में पुस्तक बांटे भी!
बदले में उसे मिलता है प्रशंसा के दो बोल।
जो उसके लिए होते हैं अनमोल।
और अपनी प्रशंसा से फूला हुआ वह फिर दूसरी तीसरी चौथी ….पुस्तक छपवाता है।और अपने को बड़ा लेखक समझता है।
दरअसल उसके कान में एक कनखजूरा घुसा होता है,जो कहता रहता है…अपनी पुस्तक छपवाओ…अपनी पुस्तक छपवाओ।नही जीते जी तो मरणोपरांत भी तुम्हे यश जरूर मिलेगा।
तो मित्रों! शीघ्र ही आपके कदमों तले मैं अपनी पुस्तक अठन्नी एक प्रेम कथा लेकर हाजिर होनेवाला हूं।
बिना किसी उम्मीद और आशा के,
आभार-
मनोज कुमार वर्मा
अयोध्यापुरी,श्रीनगर सीवान
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